“बचपन से लेकर आज तक, जब भी हम भीड़ के बीच होते हैं तो मैं लोगों के ध्यानाकर्षण का केंद्र रहता था। शायद यही एक कारण है कि यदि अब मैं कुछ हासिल भी करूँ तो सुर्खियों में आने से नफरत करता हूँ, भले ही उसका इस बात से संबंध भी न हो। मुझे याद है कि बचपन में जब लोगों की निगाहें मेरे कानों और चेहरे पर पड़ती थीं तो मैं घबरा जाता, डर भी जाता था। मुझे यह आश्चर्य भी होता कि मेरे साथ क्या गलत है।
किशोरावस्था के दौरान, जब दूसरे लोग मुझे घूरते थे तो मैं पागल हो जाता, ऐसा लगता था कि क्या सामने वाले के पास मुझे घूरने के अलावा और कोई काम नहीं है? इस उम्र में, मैं अपने विचारों से आक्रामक और संवेदनशील दोनों था। जल्दी ही बिखर भी जाता था क्योंकि अब मैं इन बदसूरत हिस्सों को स्पष्ट रूप से समझ सकता था।
वयस्क हुआ तो मैंने सहज भाव से इसे स्वीकार कर लिया है, और मैं स्वयं से कहता हूं कि यह ठीक है। मुझे लगता है कि एक बार मुझे हियरिंग एड पहने देख घूरने के बाद वह व्यक्ति इतना शिक्षित तो हो ही जाएगा कि फिर किसी और को इस तरह नहीं घूरेगा! मुझे इसे अपनी दैनिक दिनचर्या के एक हिस्से के रूप में स्वीकार करने के लिए विवश किया गया था, अगर मैं ऐसा नहीं करता, तो संभवतः स्वयं को और चोट पहुँचाता। अब मैं जीवन के उस स्तर पर पहुँच चुका हूँ जहाँ मुझे वास्तव में इस सब की कोई परवाह नहीं है, लेकिन पर्याप्त नुकसान पहले ही युवावस्था में हो चुका है।”
यह एक ऐसे व्यक्ति के मन की बात है जिसमें सुनने की क्षमता विकसित नहीं हुई है। हमारे देश में लाखों ऐसे नागरिक हैं जो सुनने या बोलने में असमर्थ हैं। आती-जाती सरकारों ने उनके लिए बहुत योजनाएं बना दीं, कुछ उपकरण भी प्रदान कर दिए, होटलों, कैफ़े में नौकरियाँ भी दे दीं। ‘सांकेतिक भाषा’ का शब्दकोश भी आ चुका है। लेकिन क्या इतना पर्याप्त है? कुछ उत्तरदायित्व समाज का भी तो बनता है, वह संवेदनशील कब होगा? कहने को तो ‘मूक बधिर विद्यालय’ हैं, संस्थाएं हैं, शिक्षक हैं। लेकिन उन्हें देख यही लगता है कि समाज ने न केवल इन्हें अलग-थलग कर दिया है और मान भी लिया है कि “वह तुम्हारी दुनिया है और यह हमारी!”
यह भेदभाव क्यों? जिस समाज में कोई व्यक्ति रह रहा है, उसमें सहज भाव से रहना उसका मौलिक अधिकार है। यदि वह असहज है तो प्रश्न उठेगा ही कि शेष इतने शिक्षित और सभ्य क्यों न बन सके कि उसकी ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखने की बजाय, उसकी भाषा समझ सकें!
हम हिन्दी-अंग्रेजी की लड़ाई में उलझें हैं। सबको अपनी मातृभाषा प्रिय है। कोई भोजपुरी, कोई मराठी, कोई तमिल, तेलुगु का झण्डा फहराता घूम रहा। हिन्दी को राजभाषा से राष्ट्रभाषा बनाने की मांग जोरों पर है। लेकिन इस सब के बीच बिना शोरगुल किए एक भाषा मौन खड़ी है। वह है – सांकेतिक भाषा। मूक-बधिर व्यक्ति की यही एक मातृभाषा है।
हम जानते हैं कि भारतीय सांकेतिक भाषा (आईएसएल) बधिरों के लिए आधिकारिक भाषा है। इसका बोलचाल की भाषाओं से ही कोई संबंध नहीं है तो राष्ट्रीय भाषा होने का तो सोच भी नहीं सकते! लेकिन एक तथाकथित ‘सभ्य समाज’ में इस भाषा को प्रयोग में लाने वाले व्यक्तियों के प्रति कैसी सोच है? यह अवश्य समझना होगा।
क्या हम उनके प्रति उतने संवेदनशील हैं, जितना होना चाहिए? भारतीय फिल्मों में खामोशी या ब्लैक (दृष्टि बाधित) के अलावा इक्का-दुक्का ही फिल्में होंगी जहाँ इस विषय को गंभीरता से उठाया गया है। अन्यथा शेष में तो ऐसे चरित्र हास्य उत्पन्न करने के लिए ही रखे जाते हैं। किसी पर भी हँस देना सबसे आसान क्रिया है। इससे वह व्यक्ति भीतर तक कितना आहत हो रहा है, यह सोचने-समझने की ज़हमत कौन उठाए! हँसने वाले यह नहीं समझ पाते कि यदि कोई बोल या सुन नहीं सकता, तो इससे उसकी बुद्धिमत्ता का कोई संबंध नहीं। संभव है कि उसके सामने आप सदी के सबसे बड़े मूर्ख ही हों।
कहने को ‘सांकेतिक भाषा’ पाठ्यक्रम में तो सम्मिलित कर दी गई है पर इसे अनिवार्य किये बिना जागरूकता आएगी नहीं! इसीलिए मुझे लगता है कि यह भाषा सबको सीखना चाहिए। जिससे बचपन से ही सभी के मन में इस भाषा का उपयोग करने वालों के प्रति सहज भाव रहे।
एक लड़की के बारे में पढ़ा था, जिसका कहना था कि “कभी-कभी मुझे वस्तुओं को उनके (समाज) नजरिए से देखने में अपने तर्कसंगत दिमाग से सचमुच नफरत होती है। अब मैंने कुछ हासिल करने की कोशिश करना बंद कर दिया है। मैं यह भी नहीं मानती कि मैं प्रसन्न रहने या किसी भी वस्तु का पूरा आनंद लेने के लायक भी हूँ, क्योंकि मेरे दिमाग में अच्छे से लिखा जा चुका है कि मैं इसके लायक नहीं हूँ।
जैसे कि अगर मैं अपनी परीक्षा में अच्छा स्कोर करूँ या कुछ रचनात्मक कार्य, तो मुझे बस बड़ी-बड़ी आँखें, आश्चर्यचकित भाव से देख कभी-कभार प्रश्न भी पूछे जाते हैं- आपने यह कैसे किया? यहाँ तक कि कुछ प्रशंसा भरे शब्दों का भी अप्रत्यक्ष अर्थ होता है। जैसे कि ‘आपने जो किया वह कोई सामान्य होकर भी हासिल नहीं कर सकता।”
भई! यह किस तरह की प्रशंसा है कि लोग समझ ही नहीं पाते कि एक सुनने-बोलने में अक्षम व्यक्ति असामान्य नहीं होता है। क्या आपकी इस नकारात्मक टिप्पणी से वह इंसान सचमुच प्रसन्न होगा? आपको अहसास भी है कि उसे कमतर सिद्ध करके, आपने कितनी क्रूरता से उसकी सारी उपलब्धि को एक ही झटके में तोड़ दिया है! यह किसी एक की नहीं, बल्कि किसी भी शारीरिक अक्षमता से जीने वाले हर उस व्यक्ति की बात है जो समाज की दया या उस पर वीभत्सता से हँसने का शिकार हुआ है। उसकी आत्मा तक कुचल जाती है।
लोगों को समझना होगा कि वे वाक्य जिन्हें हम बिना विचार किये बोल जाते हैं, वे किसी के दृष्टिकोण को किस हद तक प्रभावित कर सकते हैं। समाज की मान्यताएँ कितनी नृशंसता से किसी का आत्मविश्वास चकनाचूर कर देती हैं कि वह स्वयं को भी उन्हीं आँखों से देखने लगता है। लेकिन हम उनको समझने की बजाय, कब तक उन्हें ऐसी मानसिक चुनौतियाँ और पीड़ा देते रहेंगे?
मैं इस तथ्य को लेकर बहुत आश्वस्त हूँ कि यदि विद्यालयीन स्तर पर ‘सांकेतिक भाषा’ का अध्ययन अनिवार्य कर दिया जाए, किसी भी अक्षमता से प्रभावित व्यक्तियों के प्रति समाज सम्मान और समझ के साथ व्यवहार करे, साथ ही उनके लिए एक सुविधा सम्पन्न व्यवस्था हो तो स्थिति बेहतर हो सकती है। अभी तो इतनी बुरी स्थिति है कि प्लेटफॉर्म तो एस्केलेटर से चमचमा रहे हैं लेकिन चलने में असमर्थ लोगों के लिए हमारी रेलगाड़ियों में कोई व्यवस्था नहीं है। लोग घर से पटरे लेकर आते हैं और परिजन को बिठा पाते हैं। खैर!
जहाँ तक ‘सांकेतिक भाषा’ की बात है तो यह हम सब को पूरी तरह से न भी सही पर बुनियादी रूप से तो आना ही चाहिए। रोजमर्रा के सरल संकेत सीखकर भी हम इस अंतराल को थोड़ा तो पाट ही सकते हैं। हम जानते हैं कि उनके साथ संचार में सामान्य से अधिक समय लग सकता है, इसलिए उनकी गति का सम्मान करते हुए धैर्य रखना भी सीखना होगा। यदि बिल्कुल भी नहीं समझ पा रहे तो लिखकर दिया जा सकता है। यह भी स्मरण रहे कि जो ठीक से सुन नहीं पाते हैं, उनके सामने चीख-चिल्लाकर बोलना बेहद अभद्र और अपमानजनक लगता है। उस पर आपके विकृत चेहरे को पढ़ना और भी कठिन हो जाएगा।
मुख्य बात यह कि उनकी स्वतंत्रता का सम्मान करें। सहायता तब ही करें, जब आवश्यक लगे। थोड़ा स्वयं शिक्षित होकर और थोड़ा अपने परिवेश को शिक्षित कर हम एक सकारात्मक और समावेशी वातावरण बना सकते हैं।
समाज में चीखने-चिल्लाने, ज़हर घोलने वाले बहुत लोग हैं। शेष को इस समाज को सभ्य, शिष्ट और बेहतर बनाने की जिम्मेदारी अब उठानी ही होगी। मौन में डूबी ‘सांकेतिक भाषा’ इस कड़ी में एक प्रयास हो सकती है। आपको क्या लगता है?