डॉ. मधु संधु जी का नाम स्मरण आते ही आँखों के समक्ष उनकी मनमोहिनी मुस्कान, वात्सल्यमय नेत्र, मृदुभाषी आकर्षक एवं शालीन व्यक्तित्व साकार हो उठता है। उनका साहित्य पुरुष- वर्चस्व को निरंतर चुनौती देते हुये महिला सशक्तिकरण का मूर्त्त करता है। डॉ. मधु संधु जी से मेरा प्रथम परिचय तब 1980 में जालंधर के डी. ए. वी.महाविद्यालय में तब हुआ जब मैंने एम. ए. हिन्दी के प्रथम वर्ष में दाखिला लिया। उन दिनों डी. ए. वी. जालंधर में महिला छात्राओं को सिर्फ स्नातकोत्तर विभाग में ही प्रवेश मिलता था और आश्चर्य की बात कि हिन्दी विभाग में ही नहीं अपितु पूरे महाविद्यालय के 300 के लगभग प्राध्यापकों के मध्य अपनी विद्वता और कर्मठता से प्रभुत्व जमाये हुये डॉ. मधु ही एकमात्र महिला प्राध्यापिका थी, जिनकी शिष्या बनने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। मधु मैडम हमें कहानी पढ़ाती थी। कथा साहित्य से मेरा शुरू से ही लगाव था और तब तक मैंने कई कहानियाँ और उपन्यास पढ़ भी रखे थे, लेकिन लेखक की रचना धर्मिता और कथा की पाठ्य प्रक्रिया को समझ कर कहानी जानने- समझने की समझ से प्रथम परिचय मैडम मधु ने ही कराया। उन दिनों मैडम मधु कॉलेज के ‘वुमेन यूथ क्लब’ की भी अध्यक्षा थी। रंगमंच से मेरे जुड़ाव के कारण मेरा उनसे संपर्क कक्षा की चारदीवारी के बाहर भी बना रहता।
आज डॉ. दीप्ति द्वारा संपादित डॉ. मधु संधु जी की चार दशक की साहित्यिक यात्रा पर आधारित पुस्तक ‘सर्जक, आलोचक और कोशकार डॉ. मधु संधु’ प्राप्त हुई तो ‘ द संडे इंडियन’ द्वारा 21वीं शती की 111 हिन्दी लेखिकाओं में गणनीय डॉ मधु संधु जी के विविधमुखी स्वरूप को जानने का अवसर मिला।
समयानुकूल साहित्यिक माध्यमों का प्रयोग करने में डॉ मधु सदैव अग्रणी रही है। इंटरनेट के आरंभिक दिनों में जब स्थापित और प्रतिष्ठित साहित्यकार उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे तब- “ डॉ. मधु संधु केवल इंटरनेट की शक्ति को ही नहीं बल्कि वह इससे आगे बढ़कर आई. टी. क्रान्ति के सभी पक्षों को समझ रही थी।– इस क्रान्ति की पहली लहर में भी अग्रणी थी—जब हिन्दी का पहला यूनिकोड फॉन्ट मंगल उपलब्ध हुआ तो सबसे पहले इसमें रचनाएँ टाइप करके भेजने वालों में डॉ. मधु थी।” -( डॉ. मधु संधु का साहित्य: एक प्रवासी का दृष्टिकोण- सुमन कुमार घई)। “यूनिकोड में सॉफ्ट कॉपी में प्रेषित करने वाले अग्रणी साहित्यकारों में उनका नाम है और नवीनतम तकनीक, स्वचालित आई. वी. आर. एस. फोन-इन के जरिये रचनापाठ रचनाकार यू ट्यूब चैनल पर अपनी आवाज़ में प्रकाशित करने वाले चंद चुनींदा अग्रणी रचनाकारों में भी उनका नाम है।”–(ऑन लाइन ई पत्रिका रचनाकार आर्ग में प्रकाशित रचनाएँ- रवि रतलामी)
प्रस्तुत पुस्तक में डॉ. दीप्ति ने डॉ. मधु संधु के साहित्य को चार भागों में बांटा है। खंड एक– संस्मरण में डॉ. मधु के साहित्य संपर्क से प्रभावित 9 सुप्रसिद्ध लेखकों के संस्मरण प्रकाशित हैं। साहित्य कुंज डॉट नेट के संस्थापक, संपादक एवं प्रकाशक सुमन कुमार घई मानते हैं कि –“डॉ. मधु संधु की कहानियों में नारी विमर्श प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में प्राय: मिलता है, परंतु वह इसमें उलझी नहीं दिखाई देती। अपने समय में यह कहानियाँ न केवल आधुनिक समाज की बात कर रही हैं, पर क्षितिज से परे भविष्य में झाँकती हुई दिखाई दे रही हैं।” प्रवासी साहित्य के प्रति अनुराग और उसे भारतीय जगत में प्रस्तुत करने का श्रेय डॉ मधु संधु को देते सुमन घई आगे लिखते है- “प्रवासी साहित्य दशकों से लिखा जा रहा है। —- गुरु नानक देव विश्वविद्यालय में हुई एक संगोष्ठी में डॉ मधु संधुने एक पेपर पढ़ा था, जिसमें उन्होने प्रवासी कहानी की चर्चा की थी—यह एक सुखद आश्चर्य था और दूसरी ओर संतोष भी कि प्रवासी साहित्य भी अब अकादमिक मंच पर चर्चित हो रहा है। यह उन दिनों की बात है जब प्रवासी साहित्य पर बात करने का चलन नहीं था। प्रवासी साहित्य पर उनके अनुराग का प्रमाण उनके द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाओं में दिखाई देता है। — इतनी प्रवासी लेखकों की पुस्तकों की समीक्षा करने वाली डॉ मधु संधु ही संभवत: अकेली साहित्यकार हैं। — डॉ मधु संधु जैसे स्थापित साहित्यकारों के प्रयास हैं कि आज प्रवासी साहित्य भारत के विश्वविद्यालयों में शोध का विषय भी बन गया है और पाठ्यक्रम का भाग भी। — इसके लिए प्रवासी साहित्य जगत उनका आभारी है।” -( डॉ. मधु संधु का साहित्य: एक प्रवासी का दृष्टिकोण)
कलकत्ता के इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग से रवि रतलामी ने भी अपने संस्मरण ‘डॉ. मधु संधु का रचना संसार’ में स्वीकारा है- “डॉ. मधु संधु बहुआयामी प्रतिभा की धनी,बहुविध रचनाकार हैं। –साहित्य लेखन की नवीनतम तकनीक के उपयोग में प्रथम और अग्रणी भूमिका भी उन्होंने निभाई है। — उनके साहित्य में आपको जीवन का एक गूढ फलसफा भी दिखेगा, चुटीले हास्य व्यंग्य की झलक भी।”
लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज की अङ्ग्रेज़ी प्रवक्ता दीपक शर्मा उनके साहित्य में नारी विमर्श की गहनता को नापते हुये कहती हैं कि उनके रचनात्मक लेखन में स्त्री के प्रति उनकी गहन संवेदना प्रतिध्वनित होती है। डेनमार्क से अर्चना पेन्यूली ‘उत्कृष्ट रचनाकार और आलोचक’ में लिखती हैं-“मधु जी ने प्रवासी साहित्य को लेकर विस्तार से अपनी लेखनी चलाई है और अत्यंत धैर्य से कृतियों का विश्लेषण किया है—मधु जी संवेदनशील पाठक ही नहीं, उत्कृष्ट समीक्षक भी हैं।– अपनी सटीक व सारगर्भित विवेचना एवं विश्लेषण द्वारा वे उन बिन्दुओं की तरफ ध्यान आकर्षित करती है, जिससे पाठकों के साथ स्वयं लेखक को भी नई अंतर्दृष्टि मिलती है।”
टोरेंटों विश्वविद्यालय के भाषा अध्ययन विभाग की डॉ. हंसा दीप मधु जी के व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों की प्रशंसक हैं। उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विवेचन करती अपने संस्मरण ‘रिश्तों की गहराइयों को उभारती रचनाएँ’ में लिखती हैं- “डॉ. मधु संधु जी की रचनाओं को पढ़ते हुये शब्दों की माला से चरित्रों को जीते हुये, रोमांच, दुख, गुस्सा, नफरत, सहानुभूति, आदर, प्यार, स्नेह, सुकून जैसे कई मिले- जुले भाव लगातार मन को आंदोलित करते हैं।– उनकी लेखन शैली अनुपम है। कविता में भी जैसे अनायास ही कहानी कह दी जाती है।”
अमृतसर के डी. ए. वी. कॉलेज की हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. किरण खन्ना अपने संस्मरण ‘तन वासी मन प्रवासी: रचनाधर्मिता– प्रो. डॉ. मधु संधु’में बताती हैं कि वे उनके प्रवासी लेखन और महिला लेखन से अत्यधिक प्रभावित हैं। लिखती हैं-“वह नारी विमर्श के प्रत्येक पक्ष पर अपनी लेखनी चलाती हैं- ग्रामीण, दलित, कामकाजी और शिक्षित– सभी प्रकार की महिलाओं की बदलती सामाजिक भूमिका को पारिवारिक, सामाजिक, नैतिक, आर्थिक और राजनैतिक सभी परिप्रेक्ष्यों को अपने सशक्त लेखन में प्रस्तुत करती हैं।–मधु भारतीय होकर, भारत में रहकर भी प्रवास में जा चुकी महिला लेखिकाओं के उन गहरे और आंतरिक संघर्षों को चुनती हैं, जो वर्तमान जीवन के निकट हैं और नई नैतिकता की रचना के लिए प्रतिबद्ध हैं।”
अगले तीन संस्मरण उनके संसर्ग में पीएच. डी. करने वाले उन पूर्व शोधार्थियों के हैं, जो उनके अपनत्व, ज्ञानक्षमता और बहुमुखी लेखन से अभिभूत हैं। अमृतसर खालसा कॉलेज फॉर वुमेन की प्रवक्ता डॉ चंचल बाला लिखती हैं– “डॉ. मधु संधु ने संवेदनशील पाठक को आंदोलित किया है। –नारी विमर्श सशक्तिकरण और उत्पीड़न को उभारा है। भूमंडलीकरण और बाजारवाद को समेटा है। प्रवासी जीवन की हलचल प्रस्तुत की है।”शिक्षा विभाग में अध्यापिका पद पर आसीन उनकी शिष्या डॉ. अनुराधा शर्मा‘स्वर्णिम पलों का आकलन’में मानती है– “समकालीन चिंतन के साथ- साथ उनका लेखन जड़ता से परे प्रगतिशील और प्रयोगधर्मी रहा।”दीनानगर के ग्रीनलैंड पब्लिक स्कूल की प्रिन्सिपल डॉ. ज्योति ठाकुर भीकहती हैं-“एक संवेदनशील कहानीकार, कवयित्री होने के साथ- साथ एक चिंतनशील शोध निर्देशिका भी हैं। बड़ी से बड़ी बात को कम शब्दों में अभिव्यक्त करना उन्हें बखूबी आता है।”
खंड- दो ‘सर्जक’ के कहानी भाग में डॉ. दीप्ति ने डॉ. मधु संधु के दो कहानी संग्रह ‘नियति और अन्य कहानियाँ’(2001) तथा‘ दीपावली@अस्पताल. कॉम’(2015) में प्रकाशित 38 लंबी और 26 लघु कहानियों पर13 अभिलेखों को संकलित किया है।
नीदरलैंड के प्रो. मोहंकान्त गौतम ने उनकी कहानियों को ‘साँसों की जीवित कहानियाँ’ माना है तो डॉ. सृजना वेदी, डॉ. महक और डॉ. शैलजा सैली उनकी विविध कहानियों में निहित स्त्री पात्रों की सामाजिक विडंबनाओं, स्त्री चेतना, नारी विमर्श और आधुनिक नारी के जीवन मूल्यों पर प्रकाश डाला है। डॉ. नितिन उपाध्ये के अनुसार,“जरूरी नहीं कि उनकी कहानियों में स्त्री हर जगह शोषित के रूप में चित्रित की गई हो। — स्त्री का चरित्र सिर्फ काला या सफ़ेद नहीं है। वह काले और सफ़ेद के बीच अपना रंग खुद तलाश करता है। –उन्हें पढ़कर दर्शक कुछ सोचने पर विवश हो जाता है।”डॉ. सृजना वेदी का मानना है,“डॉ मधु संधु की नायिकाएँ चाहे परम्पराओं, प्रथाओं, सामाजिक विसंगतियों को तोड़ने, पुरुष प्रधान समाज को चुनौती देने और स्त्री को दोयम दर्जे की मानने की मनोभावना का विरोध भी करती हैं, फिर भीकहीं न कहीं भारतीय नारी की परम्परागत छवि को पूरी तरह तोड़ नहीं पाई हैं।”डॉ. महक का कहना है कि यहाँ हर तबके की महिलाओं की समस्या है और स्त्री इनको अपने सृजनात्मक ढंग से सुलझा रही है। डॉ. शैलजा सैली ने उनकी सशक्त स्त्री की चर्चा की है।
नारी विमर्श पर ‘दीपावली @अस्पताल डॉट कॉम’के प्राक्कथन में डॉ. मधु संधु लिखती हैं,“स्त्री आज भले ही सशक्त हुई हो, पर उत्पीड़न को जड़ से उखाड़ने वाली धार कहीं नहीं मिलती। पुरुष के कभी पति (जीवन घाती), कभी भाई (कुमारिका गृह) कभी पुत्र (अभिसारिका, वसीयत), कभी पिता (संरक्षक) बनकर उसे बार- बार छला है। उसे उसका दोयम दर्जा याद दिलाया है। उसके जीवन राग को चुनौतियाँ दी हैं, व्यर्थता बोध को हवा दी है।”
श्रीमती सुजाता जी. नायक ने ‘नागर जीवन का संश्लिष्ट चित्रण’ सरिता देवी ने ‘लघु कथाओं में समाज’पूजा ने ‘लघुकथाओं में सामाजिक सरोकार’ और ज्योति ने वर्तमान समाजको चित्रांकित किया है। डॉ. देवेन्द्र कुमार ने समग्र विवेचन, रश्मि शर्मा ने ‘अंतरपाठीयता: सिद्धान्त एवं अनुप्रयोग की प्रासंगिकता’ पर और सरोज बाला ने शैली वैज्ञानिक विश्लेषण के माध्यम से इन्हें कालजयी एवं सार्थक कहानियाँ सिद्ध किया है।
संपादिका डॉ. दीप्ति लिखती हैं- “उन्होंने अपने पात्रों को मन और आत्मा से जिया है। उनका नारीवाद समस्त विद्रोह और तीखे तेवरों के बावजूद भारतीय मूल्यवत्ता से जुड़ा है। बदलते परिवेश के सकारात्मक रूप को भी उन्होंने मान्यता दी है।– शिक्षा जगत, कारपोरेट जगत, राजनीति, प्रशासन कुछ भी यहाँ छूटा नहीं है।”
सर्जक के द्वितीय भाग (काव्य) में डॉ. मधु संधु के दो काव्य संग्रहों– ‘सतरंगे स्वप्नों के शिखर’ (2015) और संकल्प सुख (2021) की कविताओं पर 13 मूल्यांकनपरक आलेख संपादित हैं । नारी विमर्श,प्रकृति, उत्सव, मानवतावाद एवं समाज की कई यथार्थवादी स्थितियों पर आधारित उनकी कविताओं पर समीक्षकों ने लेखनी चलायी है। डॉ. विवेकमणि त्रिपाठी, श्रीमती पवनकुमारी, डॉ. प्रशांत कुमार और चित्रा सिंह ने उनके काव्य में चित्रित अभिशप्त नारी की वेदना को मुखरित किया है। डॉ. त्रिपाठी मानते हैं,“नारी विमर्श के अंतर्गत डॉ. मधु संधु जी द्वारा उठाए गए प्रश्न समूहिक होने के साथ- साथ सदियों से प्रत्युत्तर की चाह में उसी स्थान पर, उसी रूप में विद्यमान हैं।– मधु जी द्वारा नारी विमर्श के अंतर्गत उठाए गए प्रश्न सनातन होते हुये भी नूतन परिवेश में मौलिक हैं। –इनके द्वारा पुरुष सत्ता को दर्पण दिखाने का काम किया गया है।”
पवन कुमारी जी कहती हैं कि इन कविताओं में नव स्त्री सम्पन्न उस समाज की कल्पना है, जिसका धर्मशास्त्र स्त्री स्वयं लिखकर नये दंड विधान बनाना चाहती है-
कोई दंड विधान
गौतम और इन्द्र के लिए
रासरंगी पांडवों, युधिष्ठिर
या मर्यादा पुरुषोत्तम के लिए भी रखा होता।
डॉ प्रशांत कुमार लिखते हैं,“डॉ. मधु संधु जीवन से मुठभेड़ करने वाली कलमकार हैं। स्त्री की बेबसी को अंकित करने के लिए भाव के तनाव को भाषा के तनाव से व्यक्त करने का अद्भुत उपक्रम इनकी स्त्री विमर्श संबंधी कविताओं में दिखाई देता है।”
उन्होंने प्रकृति, उत्सव, त्योहार, नदियां,प्रदूषण-पर्यावरण,सौंदर्य, प्रेम पर भी विस्तृत विवेचन किया है। पूर्णिमा वर्मन, विवेकमणि त्रिपाठी,सूर्यकांत सुतार सूर्या, चित्रा सिंह के प्रपत्रों में इसकी सविस्तार समीक्षा है। पूर्णिमा वर्मन लिखती हैं,“‘पतंग की पुकार’ शीर्षक से गीत शैली में लिखी गई उनकी कविता में उस पतंग की कहानी है, जो आसमान में नहीं मोबाइल में उड़ाई जाती है। यह कविता गूगल के पतंग माँझा नामक मोबाइल ऐप के बारे में है।– कहना न होगा कि किसी भी मोबाइल ऐप के बारे में लिखी गई हिन्दी की यह पहली कविता होगी।”
डॉ अनु गौड़ मानवतावाद पर बात करते कहती हैं,“उनके लेखन का उद्देश्य मनोरन्जन नहीं सुधार है, कोरी कल्पना नहीं चिंतन मन है।”किरीट देवनाथ ने मधु जी की‘आकांक्षा’और‘महारावण’कविताओं के माध्यम से उनमें निहित ऐतिहासिक और सामाजिक यथार्थ को खोजा है। डॉ. तेजिंदर कौर ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के अवदान पर बात की है। डॉ. नीलू शर्मा ने मधु जी के काव्य को शैलीवैज्ञानिक निर्वचनात्मक दृष्टिकोण से विवेचित कर उनकी काव्य अस्मिता को एक नया मुखर अर्थ प्रदान किया है।
‘खंड-3 आलोचक’में उनकी आठ आलोचनात्मक पुस्तकों पर आधारित तीन आलेख हैं। डॉ. तरसेम गुजराल‘हिन्दी कथा लेखन में महिलाओं का अद्भुत योगदान’में‘भारतीय औरप्रवासी महिला लेखन’ को पहचान दिलाने में डॉ. मधु संधु का योगदान स्वीकारते हैं। स्मिता रजक मानती हैं,“डॉ. मधु संधु की आलोचनात्मक वृति की प्रखरता इतनी गंभीर है कि कभी समाजशास्त्रीय अध्ययन की ओर झुकती जान पड़ती है तो कभी ऐतिहासिक अध्ययन की ओर। कभी शोधपरक अध्ययन की बारीकियाँ दिखती हैं तो कभी नारीवादी आलोचक की झलकियाँ।”डॉकंचन गोयल ने ‘रचना प्रक्रिया और आलोचक’ शोध पत्र में उनकी आलोचनात्मक प्रवृति का मूल्यांकन करते कहा है कि मधु जी ने महिला लेखन की संपूर्णता का अपनी बौद्धिक कुशलता से सारगर्भित विवेचन किया है।
‘खंड- 4 कोश ग्रंथ’है। पंजाब विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. इंद्रनाथ मदान ने एक ‘वायवा’ लेने के दौरान हिन्दी कहानी कोश न होने पर चिंता प्रकट की तो डॉ. मधु संधु ने इससे प्रेरणा ले हिन्दी साहित्य को 1992 में 1. ‘कहानी कोश (1951-1960)’ (72 कहानीकारों की 600 कहानियाँ) 2. 2009 में‘हिन्दी कहानी कोश (1991- 2000) (525 कहानियाँ), 3.2019 में ‘प्रवासी हिन्दी कहानी कोश (473 कहानियाँ)की अमूल्य निधि भेंट की।2001 में विभागाध्यक्ष के पद पर रहते सह- प्राध्यापकों के साथ ‘हिन्दी लेखक कोश’ को भी आकार दिया । डॉ. राकेश प्रेम, डॉ. नीना मित्तल, डॉ. सीमा शर्मा ने उनके प्रयास को कोश जगत में एक नई शुरुआत माना है। एक लंबे समय की कहानियों को उनके रचनाकार, प्रकाशक, पात्र, समस्या, कथ्य, शिल्प को क्रमबद्ध रूप में लिखना अत्यन्त श्रमसाध्य कार्य है। लेखक कोश के कहानीकार भाग में पंजाब के कहानीकारों का जीवन और साहित्यिक विवरण है।
डॉ. दीप्ति द्वारा संपादित यह पुस्तक हिन्दी जगत को कथाकार, कवयित्री, आलोचक और कोशकार डॉ. मधु संधु से सम्पूर्ण रूप से परिचित करवाने में सक्षम सिद्ध होगी।
एक महिला साहित्यकार का इतने अधिक साहित्य रूपों में प्रतिष्ठित होना कोई सहज सुगम नहीं होता। स्वयं डॉ. मधु संधु ने ‘तलवार की धार बनाम महिला साहित्यकार” आलेख में इस तथ्य की पुष्टि की है,“महिला साहित्यकारों का रास्ता कभी सुगम नहीं रहा। उन्हें घर के भीतर और घर के बाहर ऐसी चुनौतियों, बाधाओं, दुविधाओं से दो-चार होना पड़ता है कि बाहरी तकलीफ़ें और भीतरी छटापटाहटें नासूर बन जाती हैं। —औरत और वह भी साहित्यकार – परिवार तो उसे क्योंकर स्वीकारेगा।“ उनकी स्त्री विद्रोह कर रही है, पिता बनना चाहती है-
सजायाफ्ता औरत मुझे नहीं बनना
मुझे पत्नी नहीं
पति का पति बनना है
भेड़ बकरी नहीं
सिंह बनना है। —-
पिता मैं हूँ तुम्हारी आत्मजा
सिर्फ तुम्हारा प्रतिरूप बनना है —
मुझे लिखना है एक नया धर्मशास्त्र।
डॉ. मधु जी की जब यह पुस्तक हाथ आई, तो लगा इन्हें तो मैं जानती हूँ। 1980 में मेरे प्रिय गुरु और अभिभाविका, लेकिन जैसे जैसे उनके रचना संसार से मेरा परिचय होता गया, उन पर लिखे लेख और उनके साहित्य एवं कविताओं की गहन- गंभीर भाव शैली मुझे भाव- विभोर करती गई। 1980 से 1982 तक जिनके सतरंगी रंगों से मैं परिचित थी, वो तो सहस्त्ररंगी होकर अपनी आभा से हिन्दी साहित्य जगत को प्रकाशित कर रही है।