“Our Revenge will be the Laughter of our Children”-Bobby Sands (IRA Political Prisoner)
सरदार उधम और मेरे शब्द (it’s not a film Review)
एंड क्रेडिट्स रोल हुए काफी देर हो चुकी थी शायद कोई दो मिनट के आसपास पर मैं भी उसी धुंधलके में खोया था जब अंत में वीर शहीद सरदार ‘उधम’ उर्फ़ राम मोहम्मद सिंह आज़ाद पवित्र सरोवर में डुबकी लगाते है, जैसे कोई मन भर का बोझ धो डालना चाहते हो, एक बोझ जो आज भी अमृतसर की गलियों में महसूस होता है, व्यक्तित्व जिसकी धमक का एहसास आपको हाल बाज़ार अमृतसर के चौक पर तना उस वीर शहीद “उधम सिंह” का स्टेचू अनायास ही करवा देगा, या आठ साल पुरानी 26 जनवरी के रोज़ NDTV की एक फुटेज जिसमे उस पुरुषार्थी उस परमार्थी के तिल तिल गरीबी में डूबे वंशज जो फटा पुराना कपडे का झोला हाथ में लिए राजभवनों के चक्कर काट रहे है व दिहाड़ी मजदूरी करने को मजबूर है जो सरकारों की बेकदरी और आज़ादी के इतने साल बाद तक भी शहीद परिवारों की उपेक्षा यहाँ तक की दस्तावेजी रूप से शहीद का दर्जा तक ना मिलने के कारण उसी भरे मन से फफक फफक के रो पडते है जिस भरे मन से उधम सिंह ने जालियांवाला नर-संहार के बदले की कसम खाई, इस सब स्मृतियों के बोझ से दबा मैं फिल्म के उन बढ़ते हुए क्षणों में कब एंड क्रेडिट्स रोल हुए पता ना चला, मुझे तो जैसे उधम सिंह के साथ साथ खुद के व्यक्तित्व का पंचतत्वो के विलीन होने का एहसास हुआ,
“शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले/ वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा”
वो मेले कहाँ लगते है? मुझे कोई बताये भला, कितने ही युवा FB, Insta या Google पर उपलब्ध फ़ोटोज़ को कुछ ख़ास दिनों पर स्टेटस अपलोड करने के अलावा कभी उन जगहों पर वास्तविक रूप में गए है ? या कोई मुझे बताएगा की हम कितनी किताबें साल भर में अपनी सभ्यता अपनी पुरखी विरासत विरसे या शहीदों पर पढ़ते है? इसी सिलसिले में मुझे याद आता है बटुकेश्वर दत्त का वो कथन जब वो 1965 में AIIMS दिल्ली के बिस्तर पर मरणासन्न अवस्था में थे की “कौन यकीन करेगा की हम वो लोग हैं जिस से 1930 में पूरा ब्रिटिश एम्पायर कांपता था, जिनके चर्चे हर अखबार और ब्रिटिश एम्पायर के हर वांटेड पोस्टर्स में थे वो आज अपने ही आज़ाद मुल्क में एक गुमनाम मौत मर रहा है, मुझे भी शायद उसी रोज़ मर जाना चाहिए था !!” खैर…
मैं जानता हूँ आप फिल्म का रिव्यू पढने आये है पर हर सवाल का एक वक़्त होता है और जब उस सवाल का वक़्त आता है तब वक़्त भी उस सवाल को नहीं टाल सकता, कुल अस्सी साल पहले तक सरदार उधम सिंह हमारे बीच इस फानी दुनिया का हिस्सा थे, जी हाँ एक जीते जागते हाड़ मांस के बने शख्स, अंग्रेजों से एक माफ़ी और उन्हें एक अच्छी जिंदगी मिल सकती थी पर उस दौर के युवाओं ने तो महबूब के बदले फांसी के फंदों को चूमने की कसमें खायी हुई थी, उनकी महबूब उनकी मौत थी वो लोग कुल तेईस साल की उम्र में भी इतने परिपक्व थे जितने आज साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता नहीं होते, वो इतने जाबांज थे जिनकी सिर्फ मिसालें दी जा सकती है और उसके लिए भी शायद शब्द कम पड़े, बिना फिल्म की कहानी खोले मैं सिर्फ ये कहना चाहूँगा की पूरी फिल्म बेहद रियलिस्टिक और प्रभावी बन पड़ी है और ऐसी फिल्मों के लिए किसी भी टेक्निकल कमी का बाकी रह जाना या नुमाया होना माफ़ होता है, इस फिल्म को देखने से पहले इस फिल्म के मुताल्लिक बहुत से रिव्यू भी पढ़े पर फिल्म देखने के बाद सबको अनपढ़ता के सोपान पर खड़ा पाया, उन सबके मुताबिक रही होगी फ़िल्म में कमी, रही होगी फ़िल्म की लेंग्थ लम्बी, रहा होगा जलियांवाला बाग़ का दृश्य बेहद लम्बा; पर सिर्फ उनकी नज़र में जिसने इस जरुरी ऐतिहासिक डॉक्यूमेंट को केवल फिल्म या मनोरंजन में दृष्टि से देखा, इतिहास की किताबें भले ही बैक बेन्चेर्स को बेहद उबाऊ और मोटी लग सकती है पर उन पर कोई क्रैश कोर्स या कोई छोटी कसी हुई कुंजी तो हरगिज़ किसी भी इंसान को पूरी तरीक़े से प्रौढ़ नहीं बना सकती, आप ढाई घंटे से ज्यादा लम्बाई की इस फिल्म में कतरा कतरा “राम मोहम्मद सिंह आज़ाद” का बीस सालों का सफ़र और संघर्ष देखते है, आप देखते है कि कैसे एक आम जीवन की कामना रखने वाला शख्स गुरूद्वारे के ग्रंथी जी की कही बात का मायना अपने अंतिम क्षणों में ढूंढता है, कैसे उसे ये महसूस होने लगता है कि अब कुछ नहीं किया तो अगले सौ साल हम यानी आज तक भी हमारे पासपोर्ट पर ब्रिटिश इंडियन एम्पायर का ही ठप्पा लग रहा होता, जो एक जगह तो ये बताता भी है कि उसे गोरों से नहीं उनकी नीतियों से नफरत है जिसके जरिये वो भारत का खून तिल तिल कर चूस रहें है,
फिल्म जिस रफ़्तार से आगे बढती है वो भले ही बाजारू फिल्मों की चाल ना हो पर एक ऐतिहासिक दस्तावेज की चाल से दुरस्त चाल मिलाती हुई एक आला दर्जे मुकाम तक पहुँचती है, फिल्म में भले ही कोई एक्शन हीरो टाइप रक्त उबालू डायलाग ना हो पर ‘सीन 24’ यानी जालियांवाले बाग़ के सम्पूर्ण दृश्य में क्षण क्षण आपका अश्रुपूरित व्यक्तित्व चिल्ला चिल्ला कर उस दौर-ए-निज़ाम को गुस्से और दर्द से गलियाने लगता है आप मन ही मन या अगर सिनेमा में होते तो शायद खुल कर चिल्ला चिल्ला कर नृशंस जनरल डायर को गालियाँ भी बक देते और अंत होते होते नायक के साथ साथ “रब्बा बक्श दे” सरीखी दुआ आपके होंठों पर भी तैरती है…, इस फिल्म बहुत से अन्य सीन शूट भी हुए पर किसी वजह से फिल्म में डालें नहीं गए और बहुत सी जगह निर्देशक और पटकथा लेखक की सिनेमेटिक लिबर्टी आपको एक क्रांतिकारियों के साथ साइकोलॉजिकल रूप से मुलाकात का दुर्लभ मौका भी देती है जो किसी भी एंगल से अखरती नहीं है तो अब आप बताइए क्या आप इस मौके को छोड़ना चाहेंगे? क्या आप भगत सिंह के शब्दों में नहीं जानना चाहेंगे की अगर देश भगतसिंह के सामने आज़ाद होता तो उस दिन वो अपनी शाम कैसे बिताते? उस समय विश्वभर में क्रांतिकारियों की क्या स्थिति थी? और विश्व भर की सरकारों में क्रन्तिकारी और आतंकवादी को लेकर जो धागे भर का कूटनीतिक फ़र्क आज भी नज़र आता है जहाँ वो अपनी सत्ताई हनक से प्रोटेस्ट को मर्डर और मर्डर को प्रोटेस्ट कैसे साबित करते है उस फ़र्क को उस दौर में इन कम उम्र जियालों ने कैसे समझ लिया और अपनी कार्यशैली और नीति दोनों में ऐसे उतारा की वो जान गए कि बहरों को सुनाने के लिए धमाके की ही जरुरत होती है और धमाका कहाँ,कब और कैसे करना है जो इन बहरों के कान दुरुस्त हो सके, ऐसे बहुत से महत्वपूर्ण सवालों का जवाब है अमेज़न प्राइम की पेशकश “सरदार उधम”
दुबारा दोहराना चाहूँगा की कोई कमी कोई गलती कंटेंट के स्तर को हल्का नहीं करती है, एक्टिंग से लेकर एडिटिंग, आर्ट से लेकर सिनेमेटिक अप्प्रोच और कलर से लेकर क्रांति तक फिल्म कहीं कमतर नहीं कही जा सकती साथ ही किसी एक एक्टर की या किसी एक डिपार्टमेंट की तारीफ़ करना अन्य दूसरे के साथ नाइंसाफी होगी, और माफ़ी सहित कहूँगा की इस लेख को फिल्म रिव्यू की केटेगरी में ना रखा जाए कुछ चीज़ें लफ्जों के दायरे से बाहर होती है, कुछ रचनाएँ प्रभु की इच्छा, और कुछ क्रांतियाँ मृत्युपान के बाद भी कालजयी और जब उनका वक्त आता है तब उनका अस्तित्व खुद वक़्त भी नहीं टाल सकता, पहली ही फुर्सत में देख डालिए या फिर सब काम छोड़कर सपरिवार फुर्सत निकालिए और उनसे मिल लीजिये जिनकी वजह से आज हम ये लेख बिना राजनैतिक बंदी बने आज़ाद भारत में सांस लेते हुए पढ़ पा रहे है, साथ ही पूरी फिल्म टीम को क्रांतिकारियों की इस अलख को जगाये रखने लिए HSRA सलाम!!
“Long live Revolution Down with Imperialism”