ग़ज़ल-
वो रंग वो बहार वो निकहत चली गई
यानी कि ज़िंदगी से मुहब्बत चली गई
रंगो-सुखन की महफिलें भी अब नहीं रही
इस दौर में बुजुर्गों की सोहबत चली गई
सर से गिरा जो पल्लू तो कांधे पे आ गया
घर से बड़े बुजुर्गों की इज़्ज़त चली गई
लोहे के जंगलों में किया जबसे बसेरा
पेड़ों से परिंदों की भी निस्बत चली गई
दर्दो-अलम से जबसे मेरी यारियाँ हुईं
अल्लाह क़सम रोने की आदत चली गई
जबसे पढ़ा है हमने मुहब्बत का फ़लसफ़ा
सारे जहाँ से तब से अदावत चली गई
बदनाम हुए इश्क़ में तो नामवर भी थे
तेरे बिना तो मेरी वो शुहरत चली गई
चिड़िया की तरह आठ पहर चहचहाती थी
बेटी गई है घर से तो ज़ीनत चली गई
जो बन के रहा सायबान मेरा उम्र भर
अब मेरी ज़िंदगी से वो दौलत चली गई
नादान इबादत में उसे ढूंढ रहा है
जो मां के साथ घर से है नअमत चली गई
तुम शायरी में डूब गये रब को भूल के
‘यूसुफ़’ तुम्हारे हाथ से जन्नत चली गई
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ग़ज़ल-
दौर-ए-जुनून जज़्बे-जवानी न कम हुआ
परवान पे सैलाब था पानी न कम हुआ
अपना ज़मीर बेचकर शोहरत खरीद लूँ
आंखों से अभी इतना पानी न कम हुआ
इक रोग लग गया था लड़कपन में जाने क्या
वो हाय मेरी पूरी जवानी न कम हुआ
वो क्या दुआयें पढ़के बनाती थी मेरी माँ
घर में कभी जो दाना-पानी न कम हुआ
वो लफ़्ज़ कब के धुल चुके हैं जो दिल पे लिखे थे
आंखों से ना-मुराद ये पानी न कम हुआ
– यूसुफ़ रईस