आलेख
भाषा और भारोपीय भाषा परिवार: यासीन अहमद
आत्माभिव्यक्ति सभी प्राणियों की नैसर्गिक प्रवृृत्ति है। प्रत्येक प्राणी अपने भावों को प्रकट करनें के लिए साधन अपनाता है। मनुष्य जीवन में भाषा का अत्यंत महत्तव है। परन्तु यह भाषा है क्या ? “संस्कृत के भाष््् (व्यक्तायां वाचि) धातु से ‘अ’ और ‘टाप््’ प्रत्यय लगाकर ‘भाषा’ शब्द सिद्ध होता है। इसके अर्थ है- बोली, वाणी, शैली, परिभाषा, सरस्वती का नामांतर।”1 भाषा विचारों को प्रकट करनें का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है। मनुष्य अपने भावों एवं विचारों को अभिव्यक्त करनें के लिए जिन-जिन ध्वनि-संकेतों का सहारा लेता है वही भाषा है। ‘‘बहुत से पशु ऐसी ध्वनियाँ करतें हैं, जिससे भाषा का विशद शब्द भण्डार बन सके लेकिन उनमे बुद्धि नहीं है कि वे इस क्षमता का लाभ उठाऐं जैसे कि मनुष्य उठाता है।”2 तब मनुष्यों में और पशुओं में भेद क्या है ? क्यों दूसरे प्राणी मनुष्यों की तरह भाषा के समृद्ध भण्डार की रचना नहीं कर पातें ? कारण है ”मनुष्य का परिवेश, उसके जीवन की आवश्यकताएंे तथा उसका विशेष शारीरिक गठन।“3
मनुष्य नें जो कुछ भी सीखा वह वस्तुओं के साथ अस्थायी संबंधों के निर्माण से ही सीखा है। “बच्चा स्वयं निरर्थक ध्वनियाँ करता है और इन निरर्थक ध्वनियों में कुछ को सार्थक भी बना लेता है सुनी हुई और अपनी स्वतः स्फूर्त ध्वनियों से वह वस्तुओं का अस्थायी संबंध कायम करता है। भाषा के निर्माण की भी यही प्रक्रिया है।”4 परिस्थितियों के आधार पर ही ध्वनि संकेतों का विकास होता है। इन्ही ध्वनि संकेतोें से नवीन शब्दावलियों की व्युत्पत्ति होती है तथा शब्दों के भण्डार जैसे-जैसे बढ़ते जाते हैं। भाषा उतनी ही समृद्ध होती जाती है।मनुष्य पशुओं के दायरे से तभी बाहर निकला है जब उसमें कुछ ऐसे गुणों का विकास हुआ जो पशुओं में कभी न थे और वे हैं- चिन्तन, संयम व ज्ञान का संगम। मनुष्य अपने शारीरिक गठन के कारण पशुओं की तुलना में अधिक ध्वनि संकेतांे का उपयोग करन में सफल रहा है यहीं से मानवीय भाषा समृृद्ध होती गयी औरवहआदिम मानव की पाश्विक भाषा से पूर्ण रूप से निवृृत्ति पा गयी और कहते भी है कि, भाषा मनुष्य की संस्कृति के विकास का साधन है।
कोई भी भाषा प्रारम्भ से ही पूरी-पूरी रीति से परिपक्व या निष्पन्न अवस्था में नही पहुँच जाती। शनंै-शनैं विकास करती हुई वह कालान्तर में जटिल रचनावलीं, भिन्न-भिन्न पदार्थो, उनके गुणों क्रियाओं और गूढ़ विचारों के लिए पृथक-पृथक संकेतों वाले पदार्थो और विचारो के परस्पर संबंधों को ठीक-ठीक प्रकट करनें के लिए समन्वित हो सकते है। यदि ऐसा न होता, यदि भाषाओं में ये बातें शनैंः-शनैंः विकास के फलस्वरूप न होकर प्रारभ से ही पायी जाती तो भाषा की उत्पत्ति के प्रश्न का समाधान करने के लिए किसी को सचेष्ट होने की आवश्यकता न थी। उस अवस्था में तो भाषा की उत्पत्ति किसी अचम्भे द्वारा ही सबको माननीं पढ़ती। अलौकिक शक्ति द्वारा ही वह मनुष्य को प्राप्त हुई, इसका विरोध करने का किसी को साहस न होता। परन्तु हम देख चुके है कि, ‘‘किसी भी उत्कृष्ट भाषा की उन्नति धीरे-धीरे होने वाले विकास का ही फल है।’’5 ध्वनियों के आधार पर भारोपीय परिवार को दो वर्गो में बांटा गया है। शतम् और केन्टुम देवेन्द्र नाथ शर्मा ने इस परिवार कीे कुल 20 शाखाऐं गिनायीं हैं जिन्हे वे उपयुकर््त दोनों वर्गो के अन्तर्गत रखतें है-
शतम वर्ग 1. भारती-ईरानी (आर्य) 2. बाल्टो-स्लाविक 3. आर्मीनी 4. अल्बानी
कैन्टुम वर्ग 1. ग्रीक 2. केल्टिक 3. जर्मनिक (ट्यूटानिक) 4. इटालिक 5. हिटाइट (हित्ती) 6. तोखारी
इन शाखाओं की पुनः उप शाखाऐं तथा बोलियाँ हुई, समय के परिप्रेक्ष्य मेें ये ही विभिन्न भाषाओं के रूप में विकासित हुई। जिसका कालान्तर में तीन वर्गो में विकास हुआ।
1 प्राचीन भारतीय आर्य भाषाऐं (1500 ई0 पूर्व से 500 ई0पूर्व तक)
2 मध्य कालीन आर्य भाषाऐं (500 ई0 पूर्व से 1000 ई0 तक)
3 आधुनिक भारतीय आर्य भाषाऐं (1000 ई0 से अब तक)
प्राचीन भारतीय आर्य भाषा के अन्तर्गत वैदिक और लौकिक संस्कृृत भाषा आतीं हैं। सभी विद्वान इस बात का मुक्त कंठ से समर्थन करते आये हैं कि, विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद हंै। आज भी विद्वान ‘ऋग्वेद’ को सर्वाधिक प्राचीन मानतें हैं। तथा अन्य वेदों को ऋग्वेद के बाद का कहकर अपना अभिमत प्रकट करतें हैं। यहाँ एक बात ध्यातव्य है कि, जब वेद जैसी उत्कृष्टत्म ग्रंथ की रचना (संस्कृत भाषा में) हुई थी तब यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भाषा का संपूर्ण विकास उससे पूर्व ही हो चुका होगा तभी तो वह वेद जैसे गरिमामय एवं प्रभावशाली साहित्य का सृृजन कर सकी। इस प्रकार वैदिक साहित्य में चारो वेद, वेदांग, ब्राह्मण ग्रंथ तथा उपनिषद आते हैं। लौकिक संस्कृत साहित्य के अन्तर्गत धार्मिक तथा ऐतिहासिकता- परक काव्यों, प्रबंध काव्यों, गीति काव्यों, नाटकों, मुक्तक काव्यों, कथा साहित्य, अलंकृत गद्य काव्यों, इतिहास एवं पुराणों, समीक्षा शास्त्र, नाना वैज्ञानिक विषयों के अतिरिक्त पत्थरों और तामपत्रों के साहित्य को भी समाविष्ट कर लिया गया है। परन्तु 5 वी सदी ईसा पूर्व तक आते-आते वैदिक भाषा को समझना कठिन हो गया था, क्योंकि तब तक (ब्राह्मार्षि और अन्तर्वेदिकी) लोक भाषा विकसित होकर साहित्य के क्षेत्र में परिनिष्ठित रूप लेने लगी थी। पाणिनी ने इस लोक भाषा का व्याकरण के द्वारा परिष्कृत व परिमार्जित रूप दिया। पाणिनी से पंडित राज जगन्नाथ तक इस भाषा में सृृजन कार्य चलता रहा।
मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा के अन्तर्गत पालि, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाऐं विकसित हुई। पालि भाषा बोल चाल की उस विशेष से विकसित हुई जो वैदिक काल की विभाषाओं के उत्तरोत्तर किसी प्रदेश में प्रचलित था। पालि का मूल क्षेत्र कहाँ तथा यह किस भाषा से उत्पन्न हुई इस संबंध में भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों में मतभेद है। बौद्ध धर्माश्रयी भारतीय विद्वानों ने पालि को मगही का विकसित रूप माना है। पाश्चात्य विद्वानों में कुछ विद्वान उसे उज्जयिनी की विभाषा मानतें हैं तो कुछ कलिंग देेश की भाषा कहतें हैं। पालि भाषा केे उत्पन्न व स्रोत के विवाद में न पड़ते हुए संक्षिप्त में उसके साहित्य पर एक सरसरी नज़र डालना आवश्यक है। स्थूल रूप मे पालि को दो भागों मे विभाजित किया गया है। एक त्रिपिटक तथा दूसरा अनुपिटक त्रिपिटक बौद्ध धर्म के सिद्धांत से संबंधित है तो अनुपिटक सिद्धांतेतर साहित्य है। इसे अनुपालि साहित्य भी कहा जाता है। पालि मे व्याकरण, अलंकार शास्त्र छंद शास्त्र आदि पर भी अनेक रचनाऐं मिलती हैं।
विद्वानों ने प्राकृत का उदभव एवं विकास संस्कृत से माना हैं मूलतः प्राकृतों की संख्या पाँच मानी जाती है। महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, अर्धमागधी और पैशाची। परन्तु ये साहित्य के आधार पर हैं। वैयाकरणों ने प्राकृत के अन्तर्गत- महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका, चंडाली दक्खिनी, शगरी और अपभ्रंश मानते हैं। भरत के नाट्य शास्त्र में प्राकृतों की संख्या सात मानी गयी है। जो इस प्रकार है-मागधी, अवन्निजा, प्राच्या, शौरसेनी, अर्धमागधी, वाल्हिका, और दक्षिणात्य धार्मिक प्राकृतों मे बौद्ध ग्रंथों की भाषा पालि, जैन उपागमों की भाषा अर्ध मागधी महाराष्ट्री, शौरसेनी और अपभ्रंश की गणना की गई है। साहित्यिक प्राकृत भाषाऐं अर्थात महाराष्ट्री शौरसेनी, अर्धमागधी, मागधी तथा पैशाची ही आगे चलकर अपभ्रंश बनी है।
अपभ्रंश मध्यकालीन भाषा का अन्तिम रूप है। प्राकृत भाषा जब साहित्य के क्षेत्र में आकर नियमों से बद्ध होनें लगी तब जनता ने उसे कुबूल नही किया। परन्तु प्राकृत से व्युत्पन्न हुई कुछ लोक प्रचलित बोलियांे का विकास जन सामान्य में बराबर होता रहा है। इन्हे देशी भाषा व अपभ्रंश कहा गया, प्रायः इसे दोहा, दूहा, अवहट््ट और अवहत्थ आदि भी कहा गया। जिसका अर्थ बिगड़ी हुई अशुद्ध असंस्कृत एवं अव्याकरण सम्मत भाषा है। इस प्रकार प्रत्येक प्राकृत से एक-एक अपभ्रंश निकली आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का जन्म अपभ्रंश साहित्य से हुआ प्राकृत साहित्य के समान अपभं्रश साहित्य भी अत्यंत समृृद्ध है। इसमें महाकाव्यों, खण्ड काव्यों, गीति काव्यों, लौकिक प्रेम काव्यों, धार्मिक रचनाओं रूपक साहित्य, स्फुटसाहित्य तथा गद्य साहित्य की नाना विधाओं की सृृष्टि हुई है। केवल इतना ही नही जैन धर्म के सिद्धांत एवं सिद्धांतेतर साहित्य, नाथ सिद्ध, बौद्धों, के साहित्य तथा शौर्य व श्रृृंगारात्मक लौकिक काव्यों का सृृजनात्मक कार्य भी इसमें हुआ है। बौद्ध, सिद्धों ने अपने चर्यापदों व दोहों के द्वारा अपभ्रंश साहितय को समृृद्ध तो किया नाथ पंथियों ने भी अपनी वाणियों सेे इसे नया रूप दिया।
आधुनिक भारतीय आर्य भाषाऐें अपभं्रश से विकसित हुई है। इन्हीं से उपजी कई भाषाओं व बोलियों का अस्तित्व आज तक है। विभिन्न अपभं्रशों से विविध भाषाओं व बोलियों का जन्म हुआ। शौरसेनी से पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, पहाड़ी, गुजराती निकली है। पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ है-खड़ी बोली, ब्रज भाषा, बाँगरू, कन्नौजी और बुन्देली। राजस्थानी की बोलियाँ है- पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी), उत्तरी राजस्थानी (मेवाती), दक्षिणी राजस्थानी (मालवी), पहाड़ी भाषा की तीन बोलियाँ हैं- पश्चिमी पहाड़ी (कुमांयऊनी), मध्यवर्ती पहाड़ी (गढ़वाली) तथा पूर्वी पहाड़ी की बोली नेपाली के अन्तर्गत आती है।
पैशाची अपभ्रंश से लहंदा एवं पंजाबी भाषा की व्युत्पत्ति हुई। ब्रांचड़ के अन्तर्गत सिन्धी व महाराष्ट्री के अन्तर्गत मराठी भाषाओं का उदभव हुआ। मागधी से बिहारी, बंगला, उडि़या तथा असमियां भाषाओं का जन्म हुआ। अर्धमागधी से पूर्वी हिन्दी का जन्म हुआ पूर्वी हिन्दी के अन्तर्गत बोली जानें वाली बोलियाँ है- अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी और बिहारी हिन्दी की बोलियाँ है- मैथिली, मगही, भोजपुरी। यहाँ केवल हिन्दी भाषा व हिन्दी की उपभाषाओं की बोलियों के नाम गिनायें है। केवल हिन्दी भाषा कहने से विभिन्न अपभ्रंशों से उपजी (हिन्दी की विभिन्न ) बोलियों को नज़र अन्दाज़ करना होगा। अतः यह जानकारी अपेक्षित है कि पृृथक अपभं्रशों से किस प्रकार अलग-अलग भाषाओं व बोलियों की व्युत्पत्ति हुई।
भारतीय आर्य भाषा को अलग-अलग भाषा वैज्ञानिकों ने पृृथक-पृृथक ढ़ग से विभाजित किया है।डा0 ग्रियर्सन नें आधुनिक भारतीय आर्य भाषा को तीन वर्गो में विभाजित किया है।“6 बाहरी उपशाखा, मध्य उपशाखा, भीतरी उपशाखा
बाहरी उपशाखाः- (1) पश्चिमोत्तर भाषा समुदाय (लंहदा, सिन्धी) (2) दक्षिणी समुदाय (मराठी)
(3) पूर्वी समुदाय ( बिहारी, बंगला, उडि़या, असमिया, ) मध्य उपशाखाः- पूर्वी हिन्दी
भीतरी उपशाखाः- पश्चिमी हिन्दी, पंजाबी, गुजराती, भीली, खानदेशी, एवं राजस्थानी भाषाऐं
इनके अलावा पहाड़ी समुदाय नेपाली, केन्द्रिय पहाड़ी तथा पश्चिमी पहाड़ी । डा0 चटर्जी ने ग्रियर्सन के इस वर्गीकरण में परिवर्तन करके इस दिशा में नया आलोक प्रदान किया। डा0 चटर्जी के अनुसार ‘‘आधुनिक भारतीय भाषाओं के पाँच भेद है-उदीच्य, प्रतीच्य, मध्यदेशिय, प्राच्य तथा दक्षिणात्य । इसमें भारतीय आर्य भाषाओं को इस प्रकार क्रमगत रखा गया है-
उदीच्यः- सिन्धी, पंजाबी प्रतीच्यः-गुजराती, राजस्थानी मध्यदेशियः-पश्चिमी हिन्दी, (बंुदेली, कन्नौजी, ब्रजभाषा, बंागरू तथा हिन्दुस्तानी) प्राच्यः-पूर्वी हिन्दी, बिहारी, उडि़या, बंगला तथा असमिया
दक्षिणात्यः-मराठी
आधुनिक भारतीय आर्य भाषा को डा0 हरदेव बाहरी ने दो वर्गो में विभाजित किया है। हिन्दी वर्ग तथा हिन्दीतर वर्ग। हिन्दीतर वर्ग में उन्होंने निम्न लिखित भाषाओं को रखा है। उत्तरी-नेपाली, पश्चिमी पंजाबी, सिन्धी, गुजराती, दक्षिण सिंहली, मराठी तथा पूर्वी में उडि़या, बंगला, असमिया। इसी प्रकार हिन्दी वर्ग मे उन्होंने मध्य पहाड़ी, राजस्थानी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी व बिहारी आदि। इसकी पाँच विभाषाओं को सम्मिलित किया गया है
संदर्भ-
1 संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ (पृृ0 829) ‘‘भाषा और मनुष्य‘‘ ओम शिवराज-पृृ0-1 पर उद््धृृृत
2 ‘वी‘ ई नीगस द कमपेरेटिव एनाटोमी ऐंड कि फिजियोलाॅजी आॅफ द लैरिन्क्स- पृृ0 127, लंदन 1949,
रामविलास शर्मा के भाषा और समाज-पृृ0 61 से उद््धृृत
3 भाषा और समाज-राम विलास शर्मा पृृ0 71
4 वही पृृष्ठ 70
5 भाषा विज्ञान पृृ0 185 ‘‘भाषा और मनुष्य‘‘ पृृ0 77/80 से उद््धृृत किया गया है।
6 सर जार्ज ग्रियर्सनः भारत का भाषा सर्वेक्षण अनुवाद खण्ड-1, भाग-1, द्वितीय संस्करण, पृृ0 235-236
– यासीन अहमद