ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
आया कठिन यूँ दौर तो रिश्ते मुकर गये
अपने ही घर के लोग दरीचे मुकर गये
बाज़ार में खड़ा हूँ खरीदूंगा कुछ नहीं
इस बार मेरी ज़ेब के सिक्के मुकर गये
आंधी चली थी तेज़ थीं कमज़ोर डालियाँ
टूटी न कोई डाल ये पत्ते मुकर गये
करते कहाँ हैं फोन वो लिखते नहीं हैं ख़त
थोड़े जो क्या बड़े हुए बेटे मुकर गये
मूझको कोई बता कि चलूं भी तो कैसे मैं
फिर आज मेरे पाँव के छाले मुकर गये
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ग़ज़ल-
लाया हूँ अब की बार मुहब्बत की पोटली
मैंने भी छोड़ दी है वो दौलत की पोटली
होगा न अब कोई भी सियासत के रू-ब-रू
दरिया में डाल देंगे सियासत की पोटली
माना तुम्हारा, आज ज़माना ख़राब है
लेकिन गली-गली है इनायत की पोटली
उनका पता बताओ कि उनको मैं ढूँढ लूँ
बस्ती शरीफ़ और शराफ़त की पोटली
नफ़रत की आंधियाँ चलीं रिश्तों के दरमियाँ
सबकुछ उड़ा चली ये अदावत की पोटली
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ग़ज़ल-
यहाँ की धूप शजर का मिज़ाज लिख देना
क़दम-क़दम पे सफ़र का मिज़ाज लिख देना
नए हैं हम भी मगर घर से तो निकलना है
है कैसा आज इधर का मिज़ाज लिख देना
बहुत-से लोग नज़र को झुका के मिलते हैं
झुकी-झुकी-सी नज़र का मिज़ाज लिख देना
मेरे ख़िलाफ़ छपी थी जो न्यूज़ पेपर में
उसी सुलगती ख़बर का मिज़ाज लिख देना
तुम्हारे शौक में शामिल नई-नई साज़िश
कभी इधर का, उधर का मिज़ाज लिख देना
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ग़ज़ल-
हर एक बार मुहब्बत परोस देते हैं
शरीफ़ लोग शराफ़त परोस देते हैं
यही है हाल ज़माने का क्या कहूँ तुमसे
जिन्हें मिलूं वो सियासत परोस देते हैं
ज़रा-सी बात वफ़ा की हुई हुई न हुई
लजा-लजा के नज़ाकत परोस देते हैं
कभी जो देर यूँ होती है घर को आने में
पड़ोस वाले शिकायत परोस देते हैं
उन्हें कहो कि तरक्क़ी बहुत मुबारक हो
नज़र झुका के जो इज़्ज़त परोस देते हैं
– विकास