उभरते स्वर
भाषायी सभ्यता
सिंधु से सिंध और
सिंध से हिन्द
हिन्द से हिंदी
बदलते हुए
हिंदी की निकल गई
चिंदी
ना पाली काम आई
ना उर्दू से कुछ काम चला
हमने तो हिन्द की
हिंदी को भी
हि न् दी
न रहने दिया
अपभ्रंश और प्राकृत का
ज्ञान रहा अधूरा
फिर नई भाषा
एक और भाषा
भाषा, विभाषा और इनकी
परिभाषा खोजते हुए
भाषा को ही भूले हम
भाख़ा, भाषा एक समान
मातृ भाषा से अन्जान
मातृ भाषा
मात्र भाषा रह गई
पश्चिम के रंग में रंगे
हिन्द के हिंदुस्तान होने
से पहले ही
इंडिया अब इंडो हो चला है
क्या इंडो की आधुनिकता है?
क्या मातृ दुलार है ये!
हमें खोजना था खुद को
अपनी निज भाषा में
और आज रहे ख़ोज हम
खुद को ही
जाने कहाँ-कहाँ
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रोटी की आस में
एक मंदिर
मंदिर के गेट पर बैठी
वो बुढ़िया
मंदिर के गेट पर बैठा
वो मासूम बच्चा
बूढी दादी के सीने से लिपटा
वो मासूम है
वो नादान है
वो है इस आस में
कि कोई एक रुपया डाल देगा
उसके झोले में
उसकी आँखें चमक उठती है
इस आस में
कुछ मिलेगा
पर वो ‘कुछ’ मिलता है
उस बे-जुबां मूर्ति को
लोग चढाते हैं दूध इस आस में
शायद यह देगी उन्हें सुख-सम्पति
और अकूत धन संपदा
पर उस
मासूम का क्या
उस बूढी दादी का क्या
जो बैठे हैं एक जून की रोटी की आस में
– तेजस पूनिया