मूल्यांकन
हम रच रहे हैं: आशाओं के सपने बोती राहुल देव की कविताएँ
हिंदी साहित्य के वर्तमान दौर में हर कोई कवि है, लेखक है, कहानीकार और आलोचक है। किंतु उनमें कुछ ऐसे भी हैं जो निष्पक्ष तरीके से कविताएँ लिख रहे हैं और ऐसे अच्छे तथा गुपचुप कवियों से मेरा राब्ता बहुत कम हुआ है। यूँ तो एक आध कविता, कहानी लिख या फिर किताब लिख उसे ही चहुँ ओर पुरस्कारों तथा समीक्षाओं के लिए भेजने में लोग लगे रहते हैं। यही कारण है कि हिंदी साहित्य में अच्छे लोगों की (यानी पाठकों के साथ साथ लेखक भी) कमी होती जा रही है । दूसरी ओर कुछ लोग रॉयल्टी के पीछे भागने वाले और पाठकों तथा शोधार्थियों के ही पिछलग्गू बने रहते हैं। खैर… गुपचुप कवियों में से एक हैं राहुल देव। कवि एवं आलोचक बनने की दिशा में निरंतर अग्रसर तथा व्यंग्य में रूचि रखने वाले राहुल देव के अभी तक दो कविता संग्रह क्रमश: उधेड़बुन (2014) तथा हम रच रहे हैं (2017) प्रकाशित हुए हैं। हम रच रहे हैं कविता संग्रह में कुल 35 कविताएँ हैं जो विभिन्न पैमानों तथा व्यंग्य मिश्रित विभिन्न संदेशों को अपने साथ लेकर चलती हैं। कविताओं के इतर एक कहानी संग्रह ‘अनाहत एवं अन्य कहानियाँ’ (2015) में प्रकाशित है । सम्पादक एवं युवा कवि राहुल देव अंतर्राष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका ‘इंदु संचेतना’ के उपसम्पादक भी हैं। इसके अलावा विभिन्न कई किताबें अलघ से भी प्रकाशित हो चुकी हैं तथा समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ एवं इनके द्वारा की गई आलोचनाएँ, व्यंग्य इत्यादि निरंतर प्रकाशित होते रहते हैं। वर्तमान में राहुल देव सरकारी हाई स्कूल, लखीमपुर में प्रधानाध्यापक के रूप में कार्यरत हैं।
‘हम रच रहे हैं’ कविता संग्रह की पहली ही कविता इतनी प्रभावशाली है कि आगे की कविताएँ पढ़ने को आप स्वयं उत्सुक होते हैं। हम रच रहे हैं, कविता प्रारम्भ में प्रकृति की सैर कराती है तो एकदम बीच में आकर राजनीति की और रुख करती है। प्रकृति तथा राजनीति का सम्बन्ध इसमें अनूठा है। कविता की शुरुआत ही कुछ इस तरह है –
अनंत तक विस्तृत सागर कर्मशील होता है
झरनों का कलनाद हमें अच्छा लगता है
और नदियाँ बड़ी सुंदर होती हैं
सदा अबाध गति से चलती हैं
लेकिन दलदल
दरअसल हिंदी साहित्य ही नहीं अपितु विश्व के तमाम साहित्य में प्रकृति को हमेशा से महत्व दिया गया है। यह जीवनदायनी होने के साथ-साथ मानसिक शांति का भी कारण है किन्तु आज जिस तेजी से हम इस चराचर जगत पर मौजूद इस जीवनदायनी की हत्या कर स्वयं के लिए भी आत्महन्ता बनते जा रहे हैं वह वाकई चिंता का विषय है और वही चिंता कविता की अगली पंक्तियों में नजर आती है। लेकिन अगले ही पल आदमी होने के अहसासात से भी कविता भर जाती है। एक ही कविता में इतनी तरह की वैरायटी वर्तमान दौर में कम कवियों में ही नजर आती है। वहीं यह कविता जिंदगी जीने के मुगालते को जिन संवेदनाओं की चाशनी में डुबाकर पाठक के समक्ष प्रस्तुत होती है वह वाकई काबिले गौर बन जाता है। यूँ एक कविता के भिन्न अर्थ निकाले जा सकते हैं और यह वैरायटी भी मात्र कविता में ही मौजूद है कि जहाँ एक ही शब्द के तथा एक ही पंक्ति के कई अर्थ निकाले जा सकें। वहीं जिस तरह आदमी के लिए आदमी होना भी तथा आदमी का आदमी को आदमी समझना शर्मनाक बनता जा रहा है ठीक उसी तरह सत्ता का भी खेल इस कविता के माध्यम से समझने को मिलता है।
हिंदी साहित्य में लंबी कविताओं को कुछ लोग कम ही महत्व दिया करते हैं किन्तु मेरे मायने में लंबी कविता ज्यादा प्रभावशाली होती है, कारण कि वह ज्यादा स्पेस लिए जो होती है। हिंदी साहित्य में मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में सबसे लंबी कविता मानी जाती है। उसी लंबी कविता की तर्ज पर राहुल देव ‘उजाले में’ नाम से कविता लिखते हैं। इस कविता को लिखने से पूर्व वे फिल्मों की तरह डिस्कलेमर भी देते हैं। हालांकि यह कविता न तो अँधेरे में कविता का उत्तरार्द्ध बन पाई है और न ही उससे ज्यादा प्रभावित भी। यह कविता अँधेरे में की भांति पैरोडी भी नहीं है लेकिन अँधेरे में कविता से भिन्न होते हुए इसमें जो उजाला है वह भी बाकी कविताओं की तरह ज्यादा प्रभावशाली नहीं बन पड़ा है। यह मेरी कविताओं के मामले में कम अक्ली या कम समझी का परिणाम भी हो सकता है। किन्तु जिस निष्पक्षता से एक लेखक लिखता है मेरा मानना है उसी अथवा उससे कहीं ज्यादा निष्पक्ष होकर आलोचना की जानी चाहिए।
इसके अलावा इस कविता संग्रह में असम्पृक्त रहते हुए, तारीख, गर्भस्थ शिशु, बिकना, बेनाम रिश्तों की महक, ब्रेकट्स के बाहर, मुझे मालूम है कि तुम डर रहे हो, मानसिक गुलामी के इस दौर में, मैं किसे पूज रहा था आज तक, अनुसंधान जारी है आदि जैसी एक अलग शीर्षक के साथ अलग भाव एवं दृष्टिकोण प्रदान करती हुई कविताएँ हैं। ‘असम्पृक्त रहते हुए’ कविता हमें बताती है कि किस तरह दिन और रात जो आर्थिकता के द्योतक एवं प्रतीक चिन्ह है; वे किस तरह मज़बूरी को महात्मा गांधी का नाम दे देते हैं। समस्त कविताओं में प्रतीक का ही अहम महत्व होता है और इस प्रतीक को इस तरह की कविताओं में बखूबी भुनाया गया है। इसी तरह ‘तारीख’ कविता आपको भीतर तक इतना झकझोरती है कि आप इतिहास की कुछ कलंकित तारीखों को कभी अपने जेहन में लाना ही नहीं चाहेंगे। हर तारीख के अपने मायने होते हैं और तारीख पर इससे बेहतर कविता शायद ही मैंने कहीं और पढ़ी हो।
तारीखों पर राजनीति भी होती है
तारीखों पर प्रेम किये जाते हैं
शोषण के अभ्यारण्यों से परे
10 दिसम्बर भी महज एक तारीख ही है
‘गर्भस्थ शिशु’ कविता पूंजीवादी सत्ता पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। पूंजीवाद की चपेट में न जाने कितने मासूम रोजाना लपेटे जाते हैं। इस कविता को पढ़ने के बाद काश जैसी भावनाएं दिलोदिमाग में उठना स्वाभाविक है। वहीं ‘बिकना’ कविता साधारण स्तर की कविता है किन्तु इसके मायने वही आम नागरिक के से हैं कि पूंजीवाद के इस दौर में हर कोई एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है कि वह अपने आप की बोली लगाने को तैयार है इसके लिए उसे हर्ज भी नहीं क्योंकि उसका मानना है कि इस संसार में कोई चीज ऐसी नहीं जो बिकाऊ नहीं।
अगर अच्छी कीमत मिले
तो बिकने में कोई हर्ज नहीं है
संसार में हर चीज बिकती है
यानी हर चीज बिकाऊ है
यूँ होता है कि बेनाम रिश्ते कई बार हमारे-आपके जीवन में घर कर जाते हैं। जिनको निभाना हमें भारी लगता है लेकिन फिर भी न जाने किस मजबूरी या किस मनोभाव के चलते हम उन्हें निभाते हुए चले जाते हैं। कुछ इसी तरह की कविता है ‘बेनाम रिश्तों की महक’
हमसे जुड़े हुए रिश्ते
जिनको निभाना हमें भारी लगता है
लेकिन वह रिश्ते हमसे चिपके हुए होते हैं
हम उन्हें ढ़ोते हैं जिंदगी भर
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कुछ रिश्ते ऐसे भी
जिन्हें चाह कर भी हम छोड़ नहीं पाते हैं
जब दिल से दिल मिल जाते हैं
और बेतरह ग़ालिब याद आते हैं
यह कविता इस संग्रह की अगली कविता ‘ब्रेकेट्स से बाहर’ का पूर्वार्द्ध भी महसूस होती है। रिश्तों में कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं जिन्हें हम ब्रेकेट्स यानी अपनी निश्चित सीमा रेखा के दायरे में उन्हें रखते हैं और कुछ को हम इन रिश्तों को ब्रेकेट्स के बाहर भी। ये ब्रेकेट्स हमारे आस-पास हमेशा मौजूद रहते हैं जिनसे एक सभ्यता तथा संस्कृति का भी निर्माण होता है। किन्तु यह ब्रेकट्स समाज के उन रिश्तों ही नहीं अपितु राजनीति में भी हरदम लगे रहते हैं। यह कविता राजेश जोशी की कविता ‘जो सच बोलेंगे मारे जायेंगे’ की भी याद स्वाभाविक रूप से दिलाती है। क्योंकि यह दौर मानिसक गुलामी के साथ साथ डर कर रहने का भी है। जो कि आगे की दो कविताएँ पढ़ने पर ज्ञात हो ही जाता है।
‘हम रच रहे हैं’ कविता संग्रह की आगे की कविताएँ कुछ इस प्रकार हैं – द्वारा उचित माध्यम, प्रीति भोज, युवा कवि, कवि श्री सीरीज, नजर, कुत्ते, तलाश, लखनऊ, चिठ्ठियाँ, शरीफ आदमी, कविता और तुम, मैं भूलना चाहता था, मेरी जिद है, एक देश, अपरिभाषित समय में, आखिर कब, जो भी लिखूंगा, सशंक्ति हूँ, व्यापार, भुलक्कड़, मेरी अभिव्यक्ति, आदिमराग, यह विकासयात्रा, खेल, काश, उजाले में। इस क्रम में ‘द्वारा उचित माध्यम’ कविता जितना सामाजिक स्तर पर सशक्त बन पड़ी है उतना ही ‘कवि श्री सीरीज’ पाठक को निराश भी करती है ।
शहर से बहुत दूर किसी गांव में
बुढ्ढे चारपाई पर पड़े कराह रहे हैं
और उनके रोते बच्चे
राष्ट्र का अन्नदाता थककर
बीड़ी फूंक रहा है
‘प्रीतिभोज’ इस कविता संग्रह की दूसरी सबसे व्यंग्यात्मक कविता कही जा सकती है।
नए साल पर
मेजबान के जज्बात ने
जब उनके तनबदन में आग लगायी
तब उन्होंने अपने विचारों के पतीले में
कविता की खीर
पकाई
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मेजबान ने मेरी ओर देखकर बड़ी आत्मीयता से कहा-
‘यू नो शेरू इज अवर फैमिली मैम्बर’
यह कविता पूर्ण रूप से निम्न एवं उच्च तबके के बीच की खाई के साथ साथ सामाजिक एवं जातिगत असमानता को भी बखूबी व्यंग्य के रूप में पाठक के समक्ष उपस्थित होती है। ‘युवा कवि’ कविता को ‘हम रच रहे हैं’ कविता संग्रह की सबसे दर्दनाक कविता की श्रेणी में मैं रखना चाहूँगा। यह कविता अपने आप में एक पूरा आख्यान है किसी के कवि होने का तथा उसके कवि बनने की शृंखला का। यह कविता हिंदी साहित्य के भीतर लगभग अपने पाँव जमा चुके चापलूसी के भाव को भी भरता चला जाता है और अंतत: एक प्रकार का निराशावाद का भाव पाठक के मन के किसी कोने में उभरता है। ‘नजर’ ‘कुत्ते’ आदि जैसी कुछ छोटी किन्तु मारक कविताएँ भी इस संग्रह में शामिल है।
कुल मिलाकर इस कविता संग्रह को धीर-गम्भीर तथा कविता की समझ रखने वाले पाठकों को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए। इसे पढकर महसूसा जा सकता है कि वाकई कविता का रूप कुछ यूँ भी हो सकता है। हम रच रहे हैं, कविता संग्रह की एक छोटी से छोटी कविता पर भी काफ़ी सारे पेज आलोचनात्मक एवं समीक्षात्मक रूप से लिखे जा सकते हैं किन्तु मैं ना ना करते भी खुद को रोक नहीं पाया, इस संग्रह पर कुछ लिखने से और मजबूरन मुझे कुछ ऐसी कविताओं को भी छोड़ना पड़ा।
कविता संग्रह – हम रच रहे हैं
प्रकाशक – यश पब्लिकेशंस
ISBN नंबर – 978-93-81491-30-0
प्रथम संस्करण – फरवरी 2017
मूल्य – 450 हार्ड बाइंड
– तेजस पूनिया