ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
जहाँ देखो सियासत हो गई है
यही सबसे बुरी लत हो गई है
दुआ जाने लगी किसकी ये मुझको
मेरे घर में भी बरकत हो गई है
उड़ा देगा वो सारी ही पतंगें
उसे हासिल महारत हो गई है
रही इन्कार करती प्यार से ही
मगर वो आज सहमत हो गई है
बड़ा ख़ुदगर्ज़ निकला दिल हमारा
नई पैदा-सी हसरत हो गई है
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ग़ज़ल-
चोर ख़ज़ाने के रखवाले हैं साहब
उनके आगे क्या ये ताले हैं साहब
नदियाँ अपनी पावनता खो देती हैं
मिल जाते जब गंदे नाले हैं साहब
जिसको सारी दुनिया पागल कहती थी
उसने मोती खोज निकाले हैं साहब
कैसे बतलाऊँ इस मन की पीड़ा को
दिल के ऊपर कितने छाले हैं साहब
मेरी नीयत में बिल्कुल भी खोट नहीं
उसने ही तो डोरे डाले हैं साहब
– सुनीता काम्बोज