उभरते-स्वर
मशाल
रगों में दौड़ता हर वक्त जो लाल है,
असल में वो एक जलती मशाल है।
मशाल कि आग को बहते देखा है
जैसे बहता है दहकता लावा
किसी ज्वालामुखी का,
नहीं तो अब तलक
हाथों मे यार देखा है।
राहे-मंजिल को पाने चले जो यार हैं
असल में वो ख़ुद में समेटे एक आग हैं।
आँखों में हर वक्त जो दहकता लाल है,
असल में वो तुम्हारे ही भीतर की मशाल है।
जले थे तुम जिस रोज़
किसी अंजान की ख़िदमत में
नज़र आई थी उस रोज़ तुम्हें अपनी मशाल।
वो दिन था और आज का दिन है
बुझे नहीं तुम।
अँधेरे को जलाते रहे तुम
बेखौफ़ जलते रहे तुम।
आग हो जलोगे जब तलक ज़माने में
नज़र आएगी तुम्हारी तासीर ज़माने में।
बुझाने की कोशिश
कोई हर बार करता है
भूलता है रगों की आग है
जलता है पहुँच से दूरI
रहेगा जब तलक अंधेरा
जलूंगा उतना ही गहरा,
मशाले-यार की हकीकत जान लो
आग हो मेरे यार, मान लो।
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क़र्ज़
एक बच्चा जैसे एक पौधा।
माता-पिता जैसे माली।
पूरा बगीचा जैसे एक समाज।
धूप-छाँव जैसे सुख और दुख।
मेघों का गर्जन जैसे एक डर।
तेज़ बारिश जैसे कोई तूफ़ान।
पौधे से पेड़ तक का सफ़र
जैसे सफ़र बचपन से जवानी का।
सारी प्रक्रिया स्वाभाविक
जैसे प्रक्रिया हो कोई प्राकृतिक।
माली की उम्मीद पेड़ से फल की
जैसे उम्मीद किसी कर्ज़ के पाने की।
पेड़ अपना फल बाँटता सभी को
जैसे नहीं पीती नदी अपना जल,
जैसे हवा किसी एक की नहीं,
जैसे नहीं जलता सूरज
किसी ख़ास की ख़िदमत में,
नहीं बरसता मेघ सिर्फ मेरे लिए।
माली परेशान था, नहीं! उदास था
अपनी मेहनत का फल
नहीं बाँटना चाहता था।
शायद! ये उसका भ्रम था
वह भी हिस्सा था प्रकृति का
और! जाने अंजाने
वो लौटा रहा था अपना कर्ज़
जो उसे मिला था कई बरस पहले
इस प्रकृति से जीवन का।
– सुमित कुमार झा