ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
यक़ीन मौत का जब ज़िन्दगी में आएगा
शऊर जीने का तब आदमी में आएगा
जो हँसते-हँसते तुम्हारे निकल पड़े आँसू
ग़मों का लुत्फ़ भी तुमको ख़ुशी में आएगा
वो तीरगी की हुकूमत है आज चारों तरफ
भला कहाँ से कोई रोशनी में आएगा
ख़ुद अपनी क़ैद में ज़िंदा हूँ एक मुद्दत से
कहाँ से कोई मेरी ज़िन्दगी में आएगा
वो दुनिया छोड़ गया फिर भी तक रही हूँ उसे
पलट के जैसे वो मेरी गली में आएगा
न डालते कभी काग़ज़ की नाव पानी में
जो जानते कि भँवर इस नदी में आएगा
जो दर्द सबको बताया न जा सकेगा सिया
वो दर्द सिर्फ मेरी शायरी में आएगा
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ग़ज़ल-
देखता क्या है तू हैरत से हमारा चेहरा
हमने मुद्दत से सजाया न सँवारा चेहरा
ये तो अच्छा है कि बेरंग है आँसू वर्ना
किस क़दर दाग़ लिए फिरता हमारा चेहरा
रोज़ होता है गुज़र एक नयी आँधी से
और अट जाता है फिर धूल से सारा चेहरा
ज़िंदगी एक ही चेहरे पे गुज़ारी हमने
हमने पहना न कभी हमने उतारा चेहरा
मुद्दतों बाद मेरे हाथ लगी है तस्वीर
ग़ौर से देख रही हूँ मैं तुम्हारा चेहरा
रेहल पर रखते हैं जिस तरह सहीफ़ा कोई
रख लूँ इस तरह हथेली पे तुम्हारा चेहरा
दाग़ लग जाए अगर कोई भी पेशानी पर
आईना भी नहीं करता है गँवारा चेहरा
– सिया सचदेव