मूल्यांकन
स्त्री संघर्षों के विविध आयाम ‘स्त्री लेखन–स्वप्न और संकल्प’: श्वेता रस्तोगी
साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब है, जो समाज के बदलते कोणों को प्रतिबिम्बित करता है। प्रतिबिम्बित अनुभुति की अभिव्यक्ति ही रचनाकार की अनुभुति का प्रतिफलन होता है। आज साहित्य में हर हाशिये की आवाज़ अपने किसी नए, तीखी, आक्रमक या करुण रूप में अपने साथ किये गए अत्याचार के खिलाफ आवाज़ बुलंद कर रही है। ‘स्त्री मुक्ति’ ऐसी ही एक आवाज़ है जो कुछ वर्षों से पितृसत्तात्मक मूल्यों को चुनौती दे रही है। स्त्री अपने ऊपर किये गए अत्याचार और शोषण का जमकर विरोध कर रही है। ऐसे समय में स्त्रियों के लेखन को केंद्रियता प्रदान करते हुए रोहिणी अग्रवाल ने अपनी पुस्तक ‘स्त्री लेखन स्वप्न और संकल्प’ में स्त्री लेखिकाओं और उनकी रचनाओं तथा उनके पात्रों के माध्यम से स्त्री की आकांक्षाओं को एक नई दृष्टि से पाठकों के सामने रखा है। इस पुस्तक में रोहिणी जी ने मीरा बाई से लेकर अब तक के स्त्री संघर्षों के सार को चित्रित किया है। मध्यकाल में किस तरह स्त्री पर्दा प्रथा और सामंती मानसिकता की कैद में जकड़ी थी और फिर धीरे-धीरे उसका किस प्रकार विकास होता है। आधुनिककाल तक आते-आते स्त्री की शिक्षा और आत्मनिर्भरता को बारीकी से दिखाया है। रोहिणी जी ने स्त्री के विकास को तो दिखाया है पर साथ ही अब पूंजीवादी और भूमंडलीकरण के आईने में स्त्री के शोषण के मुद्दे को भी अहम रूप से सामने रखा है।
स्त्री विमर्श हाशिये पर पड़ी स्त्री अस्मिता का आंदोलन है, जो स्त्री को एक मानवीय गरिमा प्रदान करने की बात करता है। हम मीराबाई की बात करें तो प्राचीन परम्परागत स्त्री की छवि को तोड़ते हुए एक नई स्त्री की छवि को गढ़ती हैं। वे रूढ़ियों और कुत्सित परम्पराओं को तो तोड़ती हैं पर अपने संस्कार की कीमत पर नहीं। उनके लिए उनकी ईश्वर भक्ति और निष्ठा पहले है। वे समाज के उस क्रूर नियमों को जरूर तोड़ना चाहती हैं, जो स्त्री की मुक्ति और स्वतंत्रता में बाधक हैं। वे समाज में स्त्री-पुरूष की समानता की बात करती हैं। मीरा का समाज भक्तिकालीन समाज था, जहाँ उस समय स्त्रियों की सीमा पर्दे तक ही सीमित थी, ऐसे समय में एक स्त्री का किसी से प्रेम करना या ईश्वर के नामोपासना के लिए सत्संग करना निंदनीय कर्म माना जाता था। ऐसे समय में मीरा ने इन सब लोक-लाज की परवाह ना करके अपने आराध्य श्री कृष्ण के प्रेम में डूबी रहीं, साधू-संतों के साथ सत्संग में भाग लेती थीं। इस तरह के विद्रोही व्यक्तित्व ने घर से बाहर स्त्री की अस्मिता और प्रतिष्ठा को स्वीकृति दी है। मीरा बाई कहती हैं, “तेरा कोई नहीं रोकणहारा, मगन होय मीरा चली।” (पृ. सं. 9)
राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती से लेकर 19 वीं सदी के नवजागरण का दौर शुरू होता है। इन्होंने स्त्रियों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए सुधार कार्य किए। अनेक साहित्यकारों और समाज सुधारको ने क्रमश: अपनी रचनाओं के माध्यम से स्त्रियों की मुक्ति के लिए सुधार आंदोलन चलाया। स्त्री शिक्षा, पर्दा प्रथा को दूर करना, विधवा विवाह की माँग की बात, समाज में समानता की बात, सती प्रथा का विरोध इत्यादि के लिए आवाज़ उठाया। रोहिणी जी ने अपनी पुस्तक में नवजागरण्कालीन स्त्रियों की दशा की बात की है। इसके लिए वे पं गौरीदत्त कृत ‘ देवरानी- जेठानी’ और श्रद्धाराम फुल्लौरी कृत ‘भाग्यवती’ उपन्यास की बात करती हैं। जहाँ स्त्री की शिक्षा का खूब समर्थन किया गया है इस प्रसंग को रोहिणी जी अपनी पुस्तक में इस तरह उद्धृत करती हैं- “लड़कियों को पढ़ाओगे तो कुल की मर्यादा,प्रतिष्ठा और समृद्धि बढ़ेगी नहीं पढ़ाओगे तो आपसी कलह, द्वेष , और मुर्खता के कारण परिवार और संतान वर्तमान और भविष्य सबको डुबो देंगी। इस तरह स्त्रियों की शिक्षा को अनेक उपन्यासों के माध्यम से समाज को जगाने का प्रयास किया। सुधारकों द्वारा स्त्रियों की शिक्षा के लिए इसका प्रभाव यह हुआ कि बंगाल, महाराष्ट्र, पंजाब पूरे देश में कन्या पाठशालाएँ खुलने लगी।“ (2) भारतेंदुने भी स्त्री की उन्न्ति का समर्थन जरूर किया है पर पुरूषवादी दृष्टिकोण से वे स्त्रियों के अधिकारों के बजाय उनके कर्तव्यों की बात करतें हैं। एक व्याखान में वे कहतें भी हैं,- “लड़कियों को भी पढ़ाइए किंतु उस चाल से नहीं जैसे आजकल पढ़ाई जाती है, जिससे उपकार के बदले बुराई होती है, ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिए कि वह अपना देश और कुल , धर्म सीखें, पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज में शिक्षा दें।“(3)
स्त्री मुक्ति की शुरूआत भले ही पुरूष लेखकों और समाज सुधारकों ने की है। पर अब इस आंदोलन की अगुवाई अनेक स्त्री- लेखिकाओं और समाज सुधारकोंने किया। सावित्रिबाई फूले, पंडिता रमाबाई राणाडे, ताराबाई शिंदे और रख्माबाई आदि ने विदेश जाकर स्त्रियों की मुक्ति आंदोलन में भाग लिया। इसके फल्स्वरूप स्त्रियों की प्रसुति गृह , बाल- हत्या,प्रबंधक गृह आदि ऐसे संगठन बनें जहाँ उपेक्षित स्त्री को आश्रय दिया जाने लगा। क्रांतिकारी स्त्रियों के मार्ग को प्रसस्थ करते हुए रहिणी जी ने अपनी पुस्तक में कहा है- “ अब हमको खुद इस जेलखाने से निकलने की तदबीर करनी चाहिए”। (4)इस तरह से रोहिणी जी ने भारतीय नवजागरण की क्रांतिकारी समाज सुधारक महिलाओं द्वारा समाज की रूढ़ियों संकीर्णताओं , प्रलोभनों से मुक्ति की आवाज़ को रेखांकित किया है और स्वयं की एक स्वतंत्र पहचान को कायम किया है। सामंतवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने स्त्रियों की श्रेष्ठता को हमेशा दबाया है और उनपर वर्चस्व कायम किया। उनकी त्याग और क्षमा को उनकी कमज़ोरी माना गया।
भारतीय नवजागरण के गर्भ से ही राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन की लौ उठती है,स्त्री को सामंवादी जर्जर पितृसत्तात्मक व्यवस्था से बाहर निकलने की मुहिम भी सक्रिय रूप से एकजुट होती है। पहली बार स्त्री को देवी के धरातल से निकाल सामान्य मनुष्य बनने की प्रेरणा दी गई। आश्चर्य तो इस बात का है कि पुंसवादी व्यवस्था स्त्री को मानवी बनाने के विरोध में अड़ा है वे यह नहीं समझते हैं कि जो हाथ पालना झुला सकते हैं वहीं हाथ देश का निर्माण भी कर सकते हैं इसके लिए स्त्रियों को समाज में समान दर्जा एवं सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक रूप से स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। स्त्रियों को उनके स्वतंत्र अस्तित्व एवं अस्मिता को समान नज़रिए से देखना होगा।
समाज के वास्तविक यथार्थ में स्त्री की स्थिति लगातार ओझल होती जा रही है। इसी संदर्भ में गोरा उपन्यास के पात्र विनय का यह कथन है- “मैं जब अपनी माँ को देखा है माँ को जाना है तब अपने देश की सभी स्त्रियों को उसी स्वरूप में देख और जान लिया है।“(5)तो दूसरी ओर निर्द्वंद भाव से स्त्री की हीन सामाजिक स्थिति भी स्वीकृत है- “समाज की स्वभाविक अवस्था में स्त्री रात की तरह ओझल हो रही है। उसका सारा काज गूढ़ और निभृत है। अपने कारोबार के हिसाब में हम रात को नहीं गिनते लेकिन गिनने से ही उसका जो गम्भीर कार्य है , उसमें से कुछ भी कम नहीं हो जाता। वह गोपन विश्राम की ओट में हमारी क्षतिपूर्ति करती है। वह हमारे पोषण में सहायक होती है।“ (5)स्त्रियों के लिए शिक्षा एवं आर्थिक स्वावलम्बन ही एक ऐसा रास्ता है जिसके द्वारा वे अपनी एक स्वतंत्र अस्मिता कायम कर सकती हैं।
हमारी सामाजिक व्यवस्था में मनु द्वारा बनाए गए आचार सन्हिता में स्त्रियों के प्रति उपेक्षा का भाव है,उसी तरह आज की पुरूषवादी दृष्टिकोण भी उसी आचार संहिता के पद्चिह्नों पर चल रही है। पुंसवादी व्यवस्था की कुत्सित मानसिकता स्त्रियों के विकास की आड़ में इन्हें माल की तरह परोस रही है जहाँ वह केवल वैभव की प्रदर्शनी और मनोंरंजन का साधन बनती जा रही हैं।भारतीय समाज में जहाँ स्त्रियों को देवी की तरह पूजा जाता है और उसे श्रद्धा के फ्रेम में जकड़ा जाता है वहीं यथार्थ धरातल पर उनके प्रति उपेक्षा का भाव है पुरूष प्रधान समाज उन्हें समानता का स्थान नहीं देना चाहता है। यही बात महादेवी वर्मा ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ में लिखती हैं – “वे चकित हैं कि स्त्री के मातृत्व को इतना अनादृत क्यों करता है? कि पशु- पक्षी पाषाण तक को सहानुभूति देनेवाला पुरूष वर्ग स्त्री के प्रति इतना असंवेदनशील एवं हिंसक क्यों हो उठा है?”(6) यही कारण है कि नारी के त्याग को उसकी कमज़ोरी समझने की भूल करते हैं पर वे यह नहीं समझतें हैं कि स्त्री सर्जक और पोषक दोनों की भूमिका को निभाती है। पर विडम्बना तो देखिए की स्त्री अपनी तमाम उर्वरता और मातृत्व गुणों को संवहन करते हुए भी समाज और सामंती व्यवस्था की विध्वंसात्मक नकारात्मकताओं का संरक्षण – संवर्धन करती चलती है।
स्त्री की अस्मिता , महत्ता को परम्परा से चले आ रहे परस्पर विरोधी विशलेषणों से बाँधकर नकारा नहीं जा सकता है। आज उसे न किसी बैसाखी की जरूरत है और न किसी सहानुभूति की। वह परम्परा और आधुनिकता के द्वंद की कड़ी के रूप में पहचानी जाने लगी। इस संदर्भ में रोहिणी जी के पुस्तक कवर पर अगर विचार किया जाए तो उस कवर में एक पर्दानसीन औरत अपने पर्दे को उठाती हुई समाज के अंधेरों और बुराईयों से आँख मिलाती हुई सामंती समाज की सच्चाईयों को बेपर्द कर रहीं हैं। इस तरह रोहिणी जी की यह पुस्तक अपने आप में स्त्री मुक्ति के प्रसंग को नवजागरणकालीन दौर से शुरू होकर आज तक की लड़ाई को अपनी पुस्तक में समादृत करती हैं। रोहिणी जी ने अपनी पुस्तक में स्त्रियों की मुक्ति के लिए स्त्री लेखिकाओं के लेखन को केंद्र में रखा है। मृदुला गर्ग, मैत्रेयी पुष्पा, चित्रा मुद्गल, प्रभा खेतान इत्यादि लेखिकाओं की रचनाओं के समीक्षात्मक वर्णन को अपनी पुस्तक में वर्णित किया है। कृष्णा सोबती की ‘डार से बिछुड़ी’ की पाशो, ‘तिन पहाड़’ की जया, ‘दिलो- दानिश’ की महकबानों, इत्यादि पात्रों के माध्यम से स्त्री की अपनी मुक्ति, आकांक्षाओं और सामंती बर्बरताओं को तोड़ने की बात करती हैं। इस दृष्टि से मैत्रेयी पुष्पा के ‘इदन्नमम’, ‘चाक’ मृदुला गर्ग के ‘कठगुलाब’ मूल्यों की उसी लड़ाई की अगली कड़ी है। रोहिणी जी ने मृदुला गर्ग के उपन्यास ‘अवकाश’, ‘कितनी कैदें’, ‘डेफोडिल जल रहें हैं।‘, ‘उसके हिस्से की धूप’, ‘चित्तकोबरा’ में स्त्री की सोच को एक नए कोण से जाँचा है।
सन 1990 के बाद के स्त्री कथा लेखन की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है जहाँ महिला रचनाकार एकाग्रचित होकर एक ऐसी स्त्री की छवि को गढ़ रही हैं जो स्त्री स्त्री की दुश्मन जैसी मान्यता को तोड़कार यूनिवर्सल सिस्टरहूड जैसे भाव को सामने ला रहीं हैं। ऐसी लेखिकाओं में जया जादवानी, अनामिका,मधु कांकरिया, गीतांजलिश्री ,नीलाक्षी सिंह, अल्पना मिश्र, मनीषा कुल्श्रेष्ठ आदि लेखिकाओं ने केवल स्त्री की समस्या को ही नहीं उठाया है बल्कि समाज, धर्म इत्यादि पर भी अपने विचार व्यक्त किए हैं। स्त्रियाँ जहाँ परिवार में सबको खुश करने के लिए कहीं ना कहीं खुद से दूर होती जा रहीं हैं अंत में उनके लिए खालीपन के अलावा कुछ नहीं होता। जया जादवानी की बात को रोहिणी जी अपनी पुस्तक में इस प्रकार उद्धत करती हैं – “ औरत सभी को सुख देती है, देह का सुख, मन का सुख पर बदले में उसे क्या मिलता है – थोड़ी सी रोटी थोड़ी सी दया”(7)
पितृसतात्मक व्यवस्था के ढ़ाँचे में स्त्री जहाँ घर की चारदिवारी में कैद अपनी आक्षांओं का त्याग करती सभी को खुश करती हुई उपेक्षित ज़िंदगी जीने को मजबूर है वहीं उससे सम्बंधित एक महत्वपूर्ण प्रश्न उसके यौंन – शोषण का है। यौनं – शोषण पुरूष की मानसिक विकृति है जो स्त्री को गुलाम बनाए रखने का षड्यंत्र रचती है। निठारी कांड, वृन्दावन- हरिद्वार- काशी में यौंन शोषण का अनवरत शिकार होती विधवाएँ, गलियों में गर्भावस्था का भार ढ़ोती बेबस पगलियाँ, घर के कोनों में सिसकती भयाक्रांत बच्चियाँ, बाज़ार में बिकती मासूम किशोरियाँ।थोड़ा अतीत की ओर झुके तो सावित्रिबाई फुले के आश्रम में अपने ही घर के पुरूषों की संतान को जन्म देती बाल- विधवाएँ आदि स्त्रियों के यौंन – शोषण के उदाहरण भरे पड़े हैं। यौंन – शोषण का अच्छा उदाहरण प्रभा खेतान के ‘छिन्नमस्ता’में भी देखा जा सकता है, प्रिया का अपने भाई द्वारा यौंन – शोषण का शिकार होना, ‘शेष कादंबरी’ (अलका सरावगी) में माया का अपने पिता द्वारा, ‘कस्तुरी कुंडल बसै’ की मैत्रेयी,’ बाबल तेरा देश की’ चंद्रकला, ‘कठगुलाब’ की स्मिता अपने जीजा द्वारा यौंन- शोषण का शिकार होती है।
इस प्रकार रोहिणी अग्रवाल की पुस्तक ‘स्त्री लेखन; स्वप्न और संकल्प ‘ में सामंती समाज से लेकर अब तक की स्त्री विचारों और भावनाओं का सार है। निस्संदेह यह पुस्तक अब- तक की स्त्री समस्याओं को अनेक नज़रिये से उभारती है। स्त्री लेखिकाओं ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज की स्वभाविक अवस्था में ओझल होती जाती स्त्री, आत्मप्रवंचित, यौंन – शोषण का शिकार होती स्त्री की समस्याओं को उभारकर समाज की वास्तविकताओं को बेपर्द करने का प्रयास किया है। किस प्रकार आज पूंजीवादी और अपभोक्तावादी संस्कृति स्त्री का शोषण कर रही है ऐसी संस्कृति ने स्त्री की देह को वस्तु बनाकर प्रदर्शन एवं मुनाफा कमाने का यंत्र समझ बैठें हैं। कारपोरेट जगत की सच्चाई को रोहिणी जी ने अपनी पुस्तक में दिखाया है कि टी. वी. सीरियल्स हो नया स्कर्ट का कोई विज्ञापन आज हर जगह नैतिकता की आड़ में स्त्री की देह से खिलवाड़ की गई है या फिर उन्हें मनोरंजन की सामग्री बना दिया गया। आज स्त्री पूंजीवाद के हाथ की कठपुतली बनकर रह गई है, जिसकी आड़ में पूंजीवाद पूरे विश्व में प्रभुत्व स्थापित कर कब्ज़ा जमाना चाहता है। अत: पूंजीवादी सोच से मुक्ति ही हमें स्त्री के प्रति सुधारवादी दृष्टि के प्रति उन्मुख करती है। इस पुस्तक में रोहिणी जी स्त्री के प्रति प्रगतिशील दृष्टि को विकसित करने में अपना महत्वपूर्ण प्रयास किया है।
संदर्भ सूची:
1. अग्रवाल रोहिणी, स्त्री लेखन: स्वप्न और संकल्प, राजकामल प्रकाशन प्रा.लि., नी दिल्ली, पहला संस्करण- 2011, पहली आवृत्ति- 2012, पृष्ठ संख्या- 9
2. वही, पृष्ठ संख्या – 27
3. वही, पृष्ठ संख्या – 36
4. वही, पृष्ठ संख्या – 81
5. वही, पृष्ठ संख्या – 126
6. वही, पृष्ठ संख्या – 223
7. वही, पृष्ठ संख्या – 322
– श्वेता रस्तोगी