मूल्याँकन
आँचलिक बोध और सहज संवेदना का काव्य: ‘मेरे गांव का पोखरा’
साहित्य जीवन की संकल्पना का आधार स्तंभ है। गहन जीवन अनुभूतियों को साहित्य ही साकार रूप देने में सक्षम है अन्यथा भावगुम्फन की अधिकता एक अदृश्य अंधेरे की ओर धकेल देती है। संवेदनसिक्त हृदय संवेदना में डूबकर कविताएँ रचता है और पाठकों को भी भावनदी में डुबकी लगवाकर कविता से जोड़ता है। आधुनिकता ने मानव जीवन को एक ब्लैकहोल में तब्दील कर दिया है। समय और समाज बहुत तेजी से आगे निकल जाने के लिए तत्पर है लेकिन साहित्य की तासीर ऐसी होती है कि वह हमें अपने लोकजीवन और परिवेश से जोड़ने में विलम्ब नहीं करता।
इधर महानगरीय भावबोध ने ग्राम्य जीवन की संवेदनात्मक कविता को हाशिए पर धकेल दिया है। कविता के उत्तरआधुनिक दौर में जहां संवेदनाओं पर संकट मंडरा रहा है और उपभोक्तावादी दुनिया सब कुछ ग्लोबल करने पर आमादा है वहीं समकालीन कवि नीलोत्पल रमेश अपनी कविताओं के द्वारा ग्राम्य परिवेश और उसकी सांस्कृतिक विरासत को बचाने में लगे हुए हैं। वे समकालीन कविता के नवें दशक से निरंतर सक्रिय हैं। सद्य प्रकाशित काव्य संग्रह ‘मेरे गांव का पोखरा’ उनका पहला कविता संग्रह है जिसमें आंचलिक भावबोध के साथ ग्राम्य परिवेश की सघन अनुभूति व्यक्त हुई है। कविता संग्रह से गुजरते हुए सहज ही अंदाज लग जाता है कि ये कविताएँ गांव, खेत-खलिहान, समाज और संस्कृति को सहेजे सामयिक संवेदना का महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
हिंदी साहित्य में आंचलिक भावबोध पर लेखन की एक विस्तृत परंपरा है। फणीश्वरनाथ रेणु, शिवपूजन सहाय, शिवप्रसाद सिंह, शिवमूर्ति, जयनंदन आदि साहित्यकार आंचलिक कथालेखन के आधार स्तंभ हैं इसके इतर आंचलिक भावबोध की काव्यधारा में नीलोत्पल रमेश की कविताएँ अतीत की भित्ति पर वर्तमान संभावनाओं की तलाश करती हैं।
कवि नीलोत्पल रमेश अपने समय की समसामयिक घटनाओं से बेहद मर्माहत हैं। सत्ता की निरंकुशता और संवेदनहीन कृत्य कवि को अन्दर तक झकझोर देती हैं। अस्पतालों में नौनिहाल बच्चे ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। प्रशासन के नकारापन के कारण देश की संभावनाएं दम तोड़ रही हैं। कवि नौनिहालों के असामयिक मृत्यु को परंपरा और भविष्य के खत्म होने का संकेत देता हुआ कहता है-
बच्चे मर रहे हैं
एक के बाद एक
मरने का यह सिलसिला जारी है
उसी तरह हमारे देश का
भविष्य भी मर रहा है
और मर रही है सदियों की परंपरा
और इसी के साथ मर गई
देश की संभावनाएं भी
(बच्चे मर रहे हैं, पेज- 10)
कवि की संवेदना ग्रामीण जीवन से गहराई से जुड़ी हुई हैं इसका कारण कि कवि भी ग्रामीण अंचल में पढ़ा और बड़ा हुआ है। उसने भी खेत-खलिहान में रहते हुए अपनी खेती पर हल की मूठ पकड़ी है और धान की रोपाई भी की है। कवि को खेतों में धान रोपती हुई स्त्रियां एक लय में दिखाई देती हैं। वे एक सांस्कृतिक परिवेश को प्रस्तुत करती हैं। उनके लिए धान रोपना अपनी जड़ से जुड़े रहने में सहायक है-
रोपनी करने वाली औरतें
धान रोपते हुए
पूरी ताकत से
रोपती आ रहीं हैं पृथ्वी में
अपने जीवन को जड़ें।
(रोपनी करते हुए, पेज- 44)
भारत एक कृषि प्रधान देश है। लगभग सत्तर प्रतिशत लोग खेती किसानी से जुड़े हुए हैं। देश को किसानों ने अपने श्रमकणों से बहुत ऊँचाइयां दी हैं लेकिन आज तक किसानों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं हुई। कभी फसल सूख जाती है, कभी बाढ़ आ जाती है और कभी मंडी में फसलों का उचित दाम नहीं मिलता। मेहनत किसान करता है और उसका फायदा व्यापारी जमाखोरी कर उठाते हैं। सरकार भी किसान की सुनती। छोटे छोटे लोन लेकर किसान खेती करते हैं और जब खेती की फसल का उचित दाम नहीं मिलता तो किसान कर्ज में डूबकर आत्महत्या को विवश हो जाते हैं। आये दिन अखबारों में किसान आत्महत्या की खबरें जनमानस को हिलाकर रख देती हैं। कवि भी अपने समय में यह सब घटित हुआ देखता है। वह मानता है कि किसान के मरने का सबसे ज्यादा दुःख धरती को होता है क्योंकि किसान ही सही मायने में उसका सच्चा सपूत है-
उनके पैरों के निशान
पृथ्वी पर हैं
हल की मूंठ और कुदाल के बेंट पर हैं
हाँथों के निशान
और उनके मारे जाने का
सबसे ज्यादा दुःख
परिजनों से अधिक
धरती को है।
(धरती का दुख, पेज- 47)
पोखर हमारी सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे। आज से चालीस-पचास साल पहले हर गांव के किनारे पोखर (तालाब) हुआ करता था जिसमें गांव के सभी लोग स्नान करने के साथ- साथ विभिन्न त्योहारों पर लोकरंजन किया करते थे। किंतु आज की आधुनिक सभ्यता ने पोखर की सांस्कृतिक विरासत हमसे छीन ली है। गांव के भूमाफियाओं ने पोखरों का अतिक्रमण कर उसे गन्दे पानी का पोखरी में तब्दील कर दिया है। कवि के गांव का पोखरा अब पोखरी में तब्दील हो चुका है। स्वच्छ जल से लबालब पोखरा कवि की स्मृतियों में बसा हुआ है लेकिन कवि जब उसी पोखरा की दुर्गति देखता है तो आंखें सजल होकर गहरी संवेदना में डूब जाती हैं। इस संग्रह की बीज कविता ‘मेरे गांव का पोखरा’ में कवि की आत्मपरक संवेदना परिलक्षित हुई है-
समय की मार
और लोंगों की
संकुचित मानसिकता ने
इस पोखर को
पोखरी बना दिया है
जो दिनों-दिन
और सिकुड़ता जा रहा है।”
(मेरे गाँव का पोखरा, पेज- 54)
कवि नीलोत्पल रमेश प्रकृति में गहरी आस्था रखते हैं। ‘हे वसंत’ कविता में वे वसंत को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे वसंत तुम कभी की कालकलवित नहीं होगे क्योंकि वसंत चिर शाश्वत है। सदियों से वसंत का आना और जाना स्वतः ही नियत है। वह हमारी संस्कृति और शास्त्रों में सदा समाहित है। कवि की चेतना में प्रकृति का खिला हुआ रूप वसंत ही है-
हे बसंत!
तुम कभी भी
नहीं होओगे काल कलवित
क्योंकि तुम्हें चिर यौवन प्राप्त है
तुम तो सदियों से
शास्त्रों में समाहित हो।
(हे वसंत, पेज- 58)
कविता संग्रह की कविता ‘कुम्हार, मिट्टी और औरतें’ में अनुभूति की तीव्रता और लोकजीवन का मर्मस्पर्शी चित्रांकन हुआ है। कवि इस कविता में कुम्हार (मिट्टी के बर्तन बनाने वाला) की जीवन व्यथा को चित्रत करते हुए कहते हैं कि कुम्हार मिट्टी से अपने मन के अनुसार बर्तन गढ़ता है। इससे पहले वह मिट्टी को गूँथता है फिर चाक पर चढ़ाता है। वह चाहता है उसकी पहचान जाति और धर्म से न हो बल्कि उसकी पहचान इसी मिट्टी से हो जिससे वह अनेक कलाएं गढ़ते हुए इस दुनिया में अपनी अनंत कलाएं छोड़ जाए। इस कविता का लोकपक्ष जीवंत चेतना बनकर उभरता है-
वह निर्मित करना चाहता है
एक पूरी दुनिया
जिसमें न मंदिर -मस्जिद का झगड़ा हो
न जाति-पाति का भेद
न ऊंच-नीच का झंझट
बल्कि, जहां मिट्टी से पहचानी जाती हो
उसकी जाति।
(कुम्हार, मिट्टी और औरतें, पेज- 148)
कवि हाशिए के समाज के नायक से सम्बल प्राप्त करता है। पर्वत की छाती चीरकर रास्ता बनाने वाले माउंटेन मैन दशरथ मांझी की दृढ़ इच्छा शक्ति और मानव जिजीविषा की प्रबल आकांक्षा व्यक्त करती यह उदात्त कविता पर्वत पुरूष दशरथ मांझी को समर्पित करते हुए कवि कहते हैं कि यदि मानव अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति पर अटल रहे तो पर्वतों को भी झुकना पड़ता है-
पर पहाड़ को एक दिन
हरना ही पड़ा
और होना पड़ा
तुम्हारे आगे नतमस्तक।
(दशरथ मांझी, पेज- 65)
कवि नीलोत्पल रमेश को अतीत के जीवन मूल्यों से गहरा लगाव है। कवि अपनी माँ की अतीत में कहीं हुई बातें हमेशा स्मरण रखता है। मां की बातें जीवन मूल्य से गहराई तक जुड़ी हुई हैं। उनकी एक एक बात सूक्त के रूप में कवि याद करता है। कवि अपने अतीत में झांककर वर्तमान के संदर्भ में अपनी मां के जीवन अनुभव को साझा करता है-
मेरी माँ
बार-बार कहा करती
बेटा! अपने जीवन में
तभी तुम आगे बढ़ पाओगे
जब तुम
अपने जीभ और जुन्जी को
हमेशा रखोगे काबू में।
(मेरी माँ, पेज- 31)
कविता संग्रह ‘मेरे गाँव का पोखरा’ मे कुछ कविताएँ प्रतीकात्मक अर्थ में व्यंजित हुई हैं। ‘परिवेश’ कविता में कवि ने सत्ता के गिरते स्तर पर चिंता व्यक्त की है। कवि का कहना है कि आज सत्तासीन दल सत्ता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए गंदी राजनीति कर रहे हैं। विधायक और सांसदों की खरीद फ़रोख़्त आम चुकी है। लोकतंत्र का धज्जियां उड़ रही हैं। सफेदपोश धीरे-धीरे मनुष्यता को निगल जाने को उद्धत हैं। इतिहास की खंडित होती हुई ‘लाश’ यह सब देखने को विवश है-
गद्दी के लिए
एक लिजलिजा नाटक जारी है
और इतिहास मुड़-मुड़कर
खंडित होती हुई अपनी लाश को
देख रहा है विवश।
(परिवेश, पेज- 150)
कवि नीलोत्पल रमेश ने अपने अंचल के जनजीवन का समग्र बिम्बात्मक चित्रण किया है। अंचल की सभ्यता, रहन सहन, भाषा, लोकजीवन, लोकचेतना आदि को इसतरह समावेश किया है जिससे समूचा कोयलांचल का परिवेश उभरकर पाठकों के समक्ष आ जाता है। कवि ने भी अपने परिवेश को मनोरम कहा है और अपनी इच्छा व्यक्त की है कि वह भी इसी परिवेश में घुल-मिल जाना चाहता है-
सूर्योदय के साथ ही
झारखंड के जंगलों में
इतना मनोरम दृश्य
प्रकृति ने निर्मित कर दिया है
जैसे अब और कहीं
जाने की आवश्यकता नहीं है
मन करता है
यहीं कहीं रच बस जाऊं।
(जंगल की आग, पेज 72)
आज खत्म होते हुए जलस्रोत का खतरा बरकरार है। पर्वतों के ग्लेशियर बहुत तेज़ी से पिघल रहे हैं। स्थितियां यही रही तो पीने लायक पानी इस धरती से जल्द विलुप्ति के कगार पर पहुंच जाएगा। कवि भी इस भयावह स्थिति से बेहद चिंतित हैं। ‘जल है तो कल है’ इस कविता में कवि नीलोत्पल जी स्पष्ट घोषणा करते हैं कि यदि पानी को लेकर हमारी पीढियां सजग न हुईं तो आने वाले समय में अगला विश्वयुद्ध पानी के अस्तित्व को बचाने के लिए होकर रहेगा। मनुष्य पानी का अतिदोहन कर स्वयं अपने लिए मौत का कुआं खोद रहा है।
कवि की यह कविता भविष्य के प्रति सावधान करती है-
कहते हैं जानकार
कि अगला विश्वयुद्ध
लड़ा जाएगा-
पानी के लिए ही
फिर भी
लोग सचेत नहीं हो रहे
अपनी भावी पीढ़ी के लिए
और स्वयं खोद रहे हैं
अपने ही लिए
मौत का कुआँ।
(जल है तो कल है, पेज- 83)
कविता संग्रह में 67 कविताएँ हैं। इन कविताओं में प्रेम, प्रकृति, सत्ता प्रतिरोध, सघन वैयक्तिकता के साथ कवि के ग्राम्य जीवन की गहरी अनुभूति के दर्शन होतें हैं । आँचलिक भावबोध की कविताएँ कवि के परिवेशगत संवेदना को उजागर करती हैं। इस काव्य संग्रह की कविताएँ भावावेग (इंटरनल टेंशन) से परिपूर्ण सीधे पाठक को प्रभावित करती हैं। संग्रह की कविताओं की भाषा सहज और सरल है। बिम्ब ग्राह्य हैं बोझिल नहीं हैं। कहीं-कहीं प्रतीकविधान प्रभावित करता है। काव्य संग्रह की सभी कविताएँ बेहद पठनीय हैं। आंचलिक भावबोध के स्तर पर यह कविता संग्रह उल्लेखनीय है।
प्रिय कवि नीलोत्पल रमेश जी के पहले कविता संग्रह के लिए बहुत बहुत बधाई।
समीक्ष्य संग्रह- मेरे गाँव का पोखरा
रचनाकार- नीलोत्पल रमेश
प्रकाशन- प्रलेक प्रकाशन, मुम्बई
मूल्य- ₹240
– शिव कुशवाहा