ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
हौसले से उड़ान की सोचो
जब कभी आसमान की सोचो
वो जहाँ देख कर है कौन आया
क्यूँ न तुम इस जहान की सोचो
मंज़िलें दिल की बन सकें जिन पर
इस बिना पर मकान की सोचो
चार दिन ज़िंदगानी को हैं मिले
इसमें अम्न-ओ-अमान की सोचो
पेड़ वो नीम का हो या हो बबूल
दे रहा सायबान की सोचो
ज़िन्दगी इम्तिहां है, हर पल
इक नये इम्तिहान की सोचो
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ग़ज़ल-
खिली धूप तो कभी बारिशों-सी तुझे सलाम है ज़िंदगी
डगर इक़ ज़रा-ज़रा ख़्वाहिशों की उसी का नाम है ज़िंदगी
किसी खिड़कियों से निहारती नई सुब्ह को ही तलाशते
कि मसर्रतों के दिए लिए कोई एक शाम है ज़िन्दगी
जिसे थामते हुए ख़ाली रहती हैं हथेलियाँ सभी की यहाँ
वो उमीद के बने मयकदे में छलकता जाम है ज़िंदगी
हैं मोहब्बतें, कहीं हैरतें, कहीं हसरतें तो हिदायतें
फ़क़त और कुछ नहीं आरज़ू से लिखा कलाम है ज़िंदगी
वो मिला नहीं ये हुआ नहीं, कभी तुम नहीं कभी हम नहीं
सो पलटते रहते किताबे-ज़ीस्त में बस तमाम है ज़िंदगी
– शिल्पी अनूप