ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
मुहब्बत की ज़मीं पर खूं के मंज़र उफ़, अरे तौबा
ज़रा-सी बात पर हाथों में खंजर उफ़, अरे तौबा
मुई दौलत की ख़ातिर भाई भाई का हुआ दुश्मन
नज़र आई मुहब्बत आज बेघर उफ़, अरे तौबा
समय की इक घड़ी कर देती है बर्बाद जीवन को
बिगड़ जाता है इक पल में मुकद्दर उफ़, अरे तौबा
अमीरों का भी ईमां डगमगाए एक रोटी पर
ग़रीबों का उड़े उपहास अक्सर उफ़, अरे तौबा
वो निर्धन की हो या धनवान की बेटी तो बेटी है
फिरें हैं लोग दिल में खोट लेकर उफ़, अरे तौबा
ग़ज़ल बेटा रहे परदेस में दौलत पे इतराए
डसे माँ-बाप को लेकिन यहाँ घर उफ़, अरे तौबा
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ग़ज़ल-
चाँद का रूप आँखों मैं था रात भर
चाँदनी मैं नहाई धरा रात भर
कोई आँखों पे पट्टी को बाँधे हुए
ढूँढता ही रहा रास्ता रात भर
रात भर रात रानी सँवरती रही
मुस्कुराता रहा आईना रात भर
दिल के टुकड़े को करके जुदा एक बाप
सिसकियाँ ले के रोता रहा रात भर
रात भर उसका रस्ता मैं तकती रही
वो न आया मगर बेवफ़ा रात भर
मैं भी उसके ख़यालों में डूबी रही
गुनगुनाता रहा वो ग़ज़ल रात भर
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ग़ज़ल-
दुआओं का तेरी असर चाहती हूँ
कि जीवन में मैं कुछ अगर चाहती हूँ
मिले ना मिले जो भी अपना मुकद्दर
तू हो साथ जिसमें, सफ़र चाहती हूँ
नहीं आरजू माल-औ ज़ार की मुझे कुछ
मुहब्बत की तेरी नज़र चाहती हूँ
जो आकर रुके सिर्फ तेरे ही दर पे
वही मेरे मालिक डगर चाहती हूँ
कहे मुझको रब माँग ले वर कोई तू
ग़ज़ल तुझको सारी उमर माँगती हूँ
– सविता वर्मा ग़ज़ल