आलेख
रंगमंच का ऐतिहासिक स्वरूप
– सविता रानी
(क) वेदकालीन
सम्पूर्ण विश्व में रंगमंच का जो स्वरूप है, उसमें सर्वाधिक लोक-मनोरंजनकारी और स्पष्ट रूप भारतीय वाड्मय का ही है। भारतीय रंगमंच (नाट्य) परंपरा के उद्गम की ओर हमारी दृष्टि जाती है तो सर्वप्रथम हम वेदकालीन ग्रंथों की ओर देखते हैं। ऋग्वेदकाल में नृत्यकला का बहुत प्रचार-प्रसार हुआ। ऋषि उषा का वर्णन करने के लिए नर्तकी की उपमा देते, नाटक के संवादों का उल्लेख पुरुरवा-उर्वशी, इन्द्र-इन्द्राणी-वृषाकपि, यम-यमी, सरमा-पाणि के संवादों में उपलब्ध होता है। कात्यायन श्रौतसूत्र में सोमपान के अवसर का लघु अभिनय प्राप्त होता है। सोमरिक आत्मवादी इन्द्र के अनुयायी सोमयाग नामक यज्ञ-क्रिया की योजना करते हैं। यजमान सोम-विक्रेता और अध्वर्सु के साथ सोम बेचने वाले वनवासियों के संवाद अभिनव के सूचक प्रतीत होते हैं-
सोमक्रिया- सोमराजा बेचोगे?
बिकेगा तो लिया जायेगा।
ले लो
सोमराजा इससे अधिक मूल्य के योग्य है।
गौ भी कम महिमा वाली नहीं है। इसमें भट्ठा, दूध, घी सब हैं।
अच्छा आठवाँ भाग ले लो।
नहीं, सोमराजा अधिक मूल्यवान है।
तो चौथाई लो
नहीं, और मूल्य चाहिए।
अच्छा आधी ले लो।
अधिक मूल्य चाहिए।
अच्छा, पूरी गौ ले लो भाई
सोमराज बिक गए। परन्तु और क्या दोगे?
सोम का मूल्य समझकर
और कुछ दो
स्वर्ण लो, कपड़े लो, गाय के जोड़े, बछड़े वाली गौ,
जे चाहे सब दिया जाएगा।
इस वार्तालाप के पश्चात् सोम-विक्रेता अपना सोम बेचने के लिए तैयार हो जाता है, तब स्वर्ण का लोभ देकर उसके हृदय में तृष्णा कर उसे निराश किया जाता है। यह अभिनय कुछ समय तक रहा। ‘सम्मत इति सोमविक्रमिणं हिरण्येनभिकम्पयति। हिरण्य दत्वा स्वीकुर्वतस्तं निरांशं कुर्यात्’। इन कुछ दृष्टांतों के आधार पर मैक्समूलर ने अनुमान लगाया कि भारतीय रंगमंच के आदि स्त्रोत वेदों में उपलब्ध कर्मकाण्ड के मंत्र है। उनका मत है कि “यज्ञों के समय इन्द्र और मरुत करने वाले दो पक्ष, जो परस्पर संवाद करते थे, वही कथोपकथन भारतीय नाटक का प्रारंभिक रूप था।” प्रोफेसर लेवी ने भी मैक्समूलर के मत का समर्थन करते हुए कहा, “वैदिक काल में भारत में नृत्य और संगीत कला पूर्णरूप से उन्नत हो चुकी थी।” ओल्डेनवर्ग के अनुसार, “वैदिक संवाद इण्डो-यूरोपियन काल के विवरण के सूचक है और मूलतः ये संवाद गद्य-पद्यात्मक हैं। पद्य भाग भाव प्रदर्शन का साधन होने से सावधानी से विरचित और सुरक्षित रहे, किन्तु गद्यांश पद्य भागों को केवल श्रृंखलाबद्ध करने हेतु प्रयुक्त होते थे, अतः अनिश्चित और आरक्षित बने रहे। अतः संहिताकाल में विलुप्त हो गये।” डाॅ. दासगुप्त ने इस मत की पुष्टि कर अपने विचार यूँ व्यक्त किए, “इसे स्वीकार करने में किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि वैदिक ग्रंथो में नाटकीय तत्त्व विद्यमान थे और तत्कालीन धार्मिक संगीत और नृत्य के साथ-साथ नाटक का संबंध अवश्य रहा है।”
यस्या गायन्ति नृत्यन्ति भूभ्यां मत्र्या व्यैलवाः – अथर्ववेद, 12 कां. सू. 1 मं. 41
यजुर्वेद वाजसनेय संहिता के तीसवें अध्याय में शैलूष जाति के अस्तित्व के आधार पर कुछ विद्वानों का मानना है कि उस समय व्यवसाय के रूप से नाटक करने वाली शैलूष जाति विद्यमान थी-
नृत्ताय सुतं गीताय शैलूष धर्माय समाचार नरिष्ठायै
भीमलं नर्माय रेयं हसाय कारिमानन्दाय स्त्रीषखं प्रमदे
कुमारपुत्रं मेघायै रथकारं धैयर्याय तक्षाणम्।
अर्थात् नृत्य के लिए सूत को, गीत के लिए शैलूष को, धर्म-व्यवस्था के लिए समाचतुर को तथा सभी को विधिवत बिठाने के लिए भीमकाय युवकों की, विनोद के लिए विनोदशिलों की, श्रृंगार के लिए कलाकारों की, समय बिताने के लिए कुमारपुत्रों की, चातुरीपूर्ण कार्य करने के लिए रथकारों की और धीरज युक्त कार्य के लिए बढ़ई को नियुक्त करना चाहिए। अतः कहा जा सकता है कि यजुर्वेद के समय किसी न किसी रूप में नाटकों का प्रचलन था। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार निष्कर्ष स्वरूप कह सकते है कि नाटकों के बीज रूप का आरंभ वैदिककाल से ही हो गया था।
(ख)- रामायण और महाभारत कालीन
रामायण के रचयिता वाल्मीकि राम के राज्यभिषेक को चित्रित करते हुए लिखते हैं, उस समय विभिन्न प्रकार के उत्सव-गायन हो रहे थे। जनता नटों और नर्तकों का सुखद आनंद ले रही थी-
नट नत्र्तकसंघानां गायकानां च गायतम्।
यतः कर्णसुखा वाचः शुश्राव जनता ततः।
प्रस्तुत श्लोक से स्पष्ट हो जाता है कि रामायण काल में रंगमंच अवश्य था और नाटय अभिनय निश्चित रूप से होते थे। रामायण काल में रंगमंच का अस्तित्व बना हुआ था। रामायण के पश्चात् महाभारत में दो नाटकों का उल्लेख मिलता है- 1. रामायण नाटक, 2. कौबेर-रंभाभिसार नाटक। यें दोनों ही नाटक ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, जिनमें भारतीय नाटकों का विलक्षण इतिहास छिपा है। नाट्य-शास्त्र और नाट्य कला के संबंध में प्राचीन साक्ष्यों का अभाव मिलता है किन्तु कौटिल्य अपने अर्थशास्त्र में तत्कालीन नर्तक, गायक, चारण, कथावाचक, प्लवक, वादक, कुशीलव, सौमिक आदि का उल्लेख करते हैं। इस समय नाट्य मंडलियों के लिए कर व्यवस्था थी। इसी प्रकार बौद्धकाल के विनय पिटक से भारत में नाट्य प्रचार प्रमाणित होता है। विनय पटक के चुल्लवग्ग में अश्वजित् और पुनर्वसु नामक दो भिक्षुओं की कथा मिलती है। पतंजलि ऋषि ने दो धार्मिक नाटकों- ‘बालिका’ और ‘कंसवध’ का उल्लेख किया। कंसवध के विषय में कुछ विद्वानों का विचार है कि कंस-कृष्ण के युद्ध को नट आकृति प्रदान करते थे। डाॅ. कीथ का कथन है, “पतंजलि के समय नट मात्र नर्तक ही नहीं रह गये थे, बल्कि संगीतज्ञ थे और संगीत तथा अभिनय द्वारा नाटक की घटनाओं को प्रदर्शित करते थे।…..इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि संस्कृत नाटक ईसा-पूर्व द्वितीय शताब्दी से प्राचीन नहीं, तो उससे अधिक अर्वाचीन भी नहीं हैं और इनकी प्रेरणा महाकाव्यों के गायन तथा कृष्ण-जीवन की उन नाटकीय घटनाओं से प्राप्त हुई, जिनमें बालक कृष्ण अपने शत्रुओं से संघर्ष कर विजय प्राप्त करते थे।” विभिन्न अवसरों-पर्वों पर नाटक खेले जाते थे। नटों द्वारा अभिनय होता था। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मानना है, “ऐसे नाटक केवल सरस्वती मंदिरों तक ही सीमित नहीं थे, बल्कि इनका मंचन अन्य देव मंदिरों में नियमानुसार हुआ करता था। शादी-ब्याह, पुत्र जन्म या आनन्द व्यंजक अवसरों पर नागरिक रंगशाला और नाचघर बनवा लेते थे।” इस समय लोकनाट्य परंपरा भी विद्यमान थी। पारिवारिक स्तर पर मनोरंजन के लिए नाटकों की व्यवस्था की जाती थी। विवाह व अन्य अवसरों पर रसप्रिया, नौटंकी एवं लोकगितों का आयोजन किया जाता था।
(ग) पालि, प्राकृत और अपभ्रंश काल
अपभ्रंश काल में नाटयभिनय के प्रमाण मिलते हैं। रास और रासउ आदि इसके सूचक हैं। गीत-नृत्यपरक गेयकाव्य रास, जिसमें गायक अभिनयपूर्वक गाकर सुनाता है। इसका उल्लेख अद्दहमाण रचित ‘संदेश रासक’ में मिलता है-
विविह विअक्खण सत्थिहि जइ पवसीइ नरु,
सुम्मइ छंदु मणोहरु पायउ महुरयरु।
कहव ठाइ चउवेइहिं वेउ पयासिमइ,
कह बहुरुवि जिब्द्धउ रासउ भसियइ।।
कबह ठाइ आसीसिय चाइहिं दयवरहिं,
रामायणु अहिणवियइ कत्थवि कयवरिहि।
अर्थात् यदि चतुरजनों के साथ नगर में प्रवेश करते हैं तो मधुर-मनोहर प्राकृत छन्द सुनाई पड़ते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि पालि, प्राकृत और अपभ्रंश काल में अभिनव कला प्रचलित थी। रास, रासक की परंपरा दीर्घावधि तक प्रचलित रही। इस शैली में अनेक रास काव्यों की रचना हुई।
(घ) आधुनिक काल की रंगमंच परंपरा
हालांकि लोक नाटकों का उत्स वैदिक काल से जोड़ा जाता है किन्तु यह भी सत्य है कि आदिकाल से मानव अपने मनोरंजन के लिए कुछ न कुछ आयोजन किया करता था। अर्थात् लोकनाटय की परंपरा अनादि काल से चली आ रही है। लोकनाटय के संबंध में डाॅ. दशरथ ओझा का विचार है कि, “किसी भी देश की सामान्य जनता अपने वातावरण तथा रुचि के अनुकूल विनोद का साधन स्वभावतः निकाल ही लेती है। इन साधनों में नाटक को उसी प्रकार सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, जिस प्रकार पठित समाज में ‘काव्येषु नाटकम्‘ का। पठित समाज के सदृश अपठित तथा अर्द्धपठित समाज में भी प्रतिभाशाली व्यक्ति होते रहते हैं, जो अपने समुदाय के अनुरूप जनकाव्य और जननाटक का सजृन करते रहते हैं। उनकी रचना द्वारा लक्ष-लक्ष ग्रामीण जनता दृश्य तथा भ्रव्य काव्य का रसास्वादन करती है। यह परम्परा अनादि काल से चली आ रही है।” उत्कृष्ट नाटकों की उपस्थिति के बावजूद जन-नाटकों की रचना के कारण को स्पष्ट करते हुए डाॅ. कीथ कहते हैं, “संस्कृत में जो नाटक मिलते हैं, वे जनभाषा से बहुत भिन्न थे और उस भाषा के स्वरूप को समझना जनता के लिए प्राय असंभव था। केवल अल्पसंख्यक शिष्ट वर्ग उस भाषा को समझने में समर्थ था और उच्च पदस्थ अल्पसंख्यक पठित समाज के लिए साहित्यिक नाटक लिखे जाते थे। एतदर्थ संस्कृत नाटक केवल एक वर्ग-विशेष की कला-अभिरुचि और हास्य-विनोद का विषय रहा है। सामान्य जन-समुदाय से उसका कोई संबंध नहीं था।” स्पष्ट होता है कि साहित्यिक नाटक किसी भी काल में साधारण जनता के मनोविनोद के साधन नहीं बन पाए। यही कारण हैं कि साधारण जनता के जीवन अनुरूप हास्य-विनोद के लिए लोक-नाटयों का प्रचलन सर्वकालिक रहा। यह भी सत्य है लोकनाटक और साहित्यिक नाटक परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करते रहे। उनमें परस्पर तथ्यों का आदान-प्रदान होता रहा। भारत के प्रत्येक अंचल में आंचलिक भाषा के साथ लोक-नाट्य परंपरा अवश्य विद्यमान थी, जिसे आधार बना साहित्यिक नाटकों की रचना हुई। लोकनाटय और साहित्यिक नाटकों की परस्पर अन्नोन्यश्रिता और अन्तर्सम्बंधता प्रायः सभी देशों में रही है। इस तथ्य की पुष्टि कैंबिज हिस्ट्री आॅफ इंग्लिश लिटरेचर के खण्ड 5, पृ.-23 पर की गई है। भारत में भी साहित्यिक नाटकों की रचना के शताब्दियों पूर्व से लोकनाटक समाज का मनोरंजन करते रहे हैं। भोजपुरी भाषा में ‘बिदेसिया’, ‘नौटंकी’, बंगला में ‘यात्रा’, ‘कीर्तनिया’, बिहार में ‘बिदेसिया’ तथा खड़ी बोली में ‘रास’, ‘स्वांग’, ‘भाड’, ‘नौटंकी’, राजस्थानी में ‘रास‘, ‘ढ़ेला मारू‘, गुजराती में ‘मवाई‘, महाराष्ट्री में ‘लड़िते‘, ‘तमाशा‘, तमिल में ‘भगवतमेल‘ जैसी लोकनाटय विधायें आज भी विद्यामन है। भारत के लोकनाटयों में गीतों की प्रधानता पायी जाती है। कथानक, क्रिया-व्यापार, संघर्ष, चरित्र-चित्रण पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था। महत्वपूर्ण और विशेष गीत ही थे। इनके अतिरिक्त राजस्थान के गीत-नाटकों का भी साहित्यिक नाटकों पर प्रभाव पड़ा।
(1) स्वांग नाटक
स्वांग नाटकों में अपना विशेष स्थान रखता है। हिन्दी में स्वांग नाटक सर्वाधिक प्राचीन है। चौरासी सिद्धों में कह्णपा ने अपने गीतों में ‘डोमिनी‘ का आह्वान करते समय स्वांग की चर्चा की, जिससे सिद्ध होता है कि सिद्धों के समय में स्वांग विधा प्रचलित थी। उत्तर भारत में आज भी विवाह के अवसर पर ‘डोमकच‘ स्वांग रचा जाता है, जिसमें स्त्रियाँ ही पुरुष पात्रों की भूमिका का निर्वाह भी करती हैं। संस्कृत का ‘भाण‘ जनसामान्य में भाण्ड के नाम से प्रसारित है, जिसका उल्लेख भक्तिकाल के जायसी ने अपनी पद्यावत में किया है। जायसी से पूर्व कबीर ने भी स्वांग का वर्णन इस प्रकार किया-
कथा होय तहँ स्त्रोता सोवैं, वक्ता मूॅड पचाया रे।
होय जहाँ कहीं स्वांग तमाशा, तनिक न नींव सताया रे।
यह बात सर्वविदित है कि लोक-साहित्य एवं लोक-नाट्य प्राचीनकाल से मौखिक रूप में उपस्थित रहा है। स्वांग का लिखित रूप उन्नीसवीं सदी से प्राप्त होता है। पं. रामगरीब चौबे ने स्वांग की उत्पति के संबंध में कहा, “अम्बाराम नामक एक गुजराती ब्राह्मण सहारनपुर में निवास करते थे। सर्वप्रथम आधुनिक शैली में उन्होंने स्वाँग के गानों की रचना की और सन् 1819 ई. के आसपास इसका अभिनय हुआ।” जो नाटक हमें तत्कालीन समय में प्राप्त होते है, वें हाथरस और रोहतक दो शैलियों में मिलते हैं। आज स्वाँग नाटक निहाल दे, नवदले, हीर रांझा और नौटंकी आदि चार रूपों में प्रचलित हैं। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में दीपचन्द नामक सवाँगी प्रसिद्ध था, जो काव्य प्रतिभा के साथ अभिनय में भी निपुण था। दीपचन्द ने श्रृंगार परक और अश्लील स्वाँगों का अहिष्कार कर वीर रस प्रधान स्वांगों की रचना की, जिससे जनसामान्य में उत्साह और शौर्य उत्पन्न हुआ। रोहतक में प्रचलित स्वांगों के कथानक सामाजिक, राजनीतिक और पौराणिक थे।
(2) यात्रा नाटक
यात्रा नाटक शैली प्राचीन काल से ही प्रचलित रही है, जिसके लिए किसी प्रकार के मंच की आवश्यकता नहीं होती। यात्रा लोकनाटक बंगाल में आज भी बहुप्रचलित है। डाॅ. दशरथ ओझा इस संबंध में लिखते हैं, “इन यात्रा-नाटकों का संबंध भी जुलूस से रहा होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारंभ में देवोपासकगण अपने आराध्यदेव की प्रतिमा का जुलूस निकालते समय किसी न किसी प्रकार का अभिनय करते जाते रहे होंगे और उस अभिनय-विशेष का नामकरण ‘यात्रा‘ किया गया हो। इस प्रकार देवोपासना के समय जुलूस के संबंध रखने वाले नृत्य, संगीत और नाट्य सम्मिलित अभिनय की पद्धति यात्रा नाम से प्रचलित हुई।” यात्रा नाटक की उत्पति के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। कुछ इसका आरंभ वैदिककाल पूर्व मानते हैं तो कुछ पश्चात। इस पर डाॅ. ओझा अपना मत प्रकट करते हैं, “देव-प्रतिमा के जुलूस के साथ इसका संबंध इस बात का प्रमाण है कि नाटक मानव इतिहास के उस युग में प्रचलित हुआ होगा, जब संसार की विभिन्न जातियाँ प्रारंभ से अपने उपास्य देव की प्रतिमाएँ जुलूस के रूप में निकाल कर नृत्य और संगीत के साथ अभिनय किया करती थीं। हमें मेसोपोटामिया के प्राचीन इतिहास से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि ईसा से चार सहस्र वर्ष पूर्व वहाँ की सुमेर जाति में इसी प्रकार देव-प्रतिमा के जुलूस के साथ नाटक प्रचलित था।” इस संबंध में ई. पी. हरविट्ज अपने विचार प्रकट करते हैं, “यहाँ तक की वैदिक युग भी यात्रा से परिचित था। यात्रा के समय जो नृत्य हुआ करते थे, वे वैदिक काल के सुसंस्कृत आर्यों के नृत्य नहीं, संभव है कि प्रत्युत यहाँ के मूल निवासियों के असंस्कृत नृत्य थे। यहाँ के मूल निवासियों की यह नाट्य शैली वैदिक काल के आर्यों ने अपना ली हो और उनके गानों के स्थान पर वेदमंत्रों के गान संयुक्त करके इसे संस्कृत नाम ‘यात्रा‘ प्रदान कर दिया हो, परन्तु इस नामकरण का यह अर्थ समझना भ्रमपूर्ण होगा कि यात्रा नाटक का आरंभ वैदिक काल में हुआ।” प्रस्तुत साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि यात्रा नाटकों की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। इनका प्रभाव संस्कृत नाटकों पर भी पड़ा। भारतेंदु हरिश्चंद्र भी इनसे प्रभावित थे। श्री गिरीश चन्द्र घोष ने जनभाषा के जन-नाटयों का उत्थान यात्रा मण्डली की सहायता से किया था।
सर्वविदित है कि कोई भी विधा प्रत्येक युग में समान रूप से महत्त्वपूर्ण नहीं रहती, अपितु समाज और युग परिवेशानुसार उसमें परिवर्तन होता रहता है। इसीलिए यात्रा नाटयशैली युगानुरूप परिवर्तन अवश्यंभावी है। परवर्तीकाल के यात्रा नाटकों में कृष्णलीला का महत्वपूर्ण स्थान है। तत्पश्चात् पुराण यात्रा, शेखर यात्रा, सुन्दर यात्रा का अभिनय होता रहा। यह क्रम अठारहवीं शती के अंत तक चला। उन्नीसवीं शती में यात्रा और साहित्यिक रंगमंच दोनों के समन्वय से नाटयाभिनय प्रारंभ हुआ। मुसलमान आक्रमण के समय असमी, मैथिली, उड़िया, बांगला और पूर्वी हिन्दी में इस शैली का प्रयोग हुआ। सर्वप्रथम विद्यापति ने लोकभाषा का प्रयोग नाटकों में किया। उन्होंने संस्कृत के साथ-साथ देशी भाषा का भी उपयोग किया। पंद्रहवीं शती के मध्य में शंकरदेव ने भारत के प्रसिद्ध तीर्थो का भ्रमण कर असम लौटने पर उन्होंने वैष्णव-धर्म प्रचार के उद्देश्य से सात नाट्कों की रचना की, जिसमें ‘रासयात्रा‘ पर ब्रज के रास और जगन्नाथ पुरी के ‘यात्रा‘ का प्रभाव दिखाई देता है। मैथिली भाषा के साथ असमी का पुट भी दिखाई पड़ता है। मिथिला में विद्यापति से पूर्व ज्योतिरीश्वर ने लोकभाषा में जन-सामान्य के लिए ‘धूर्त-समागम‘ प्रहसन की रचना की। जिसने तत्कालीन समाज की विसंगतियों, दुराचारों, पाखण्डों का पर्दाफाश बड़े ही नाटकीय ढ़ंग से किया। निष्कर्षतः रंगमंच आज भी अपनी परंपरागत मान्यताओं को बनाए हुए है।
– सविता रानी