ख़ास-मुलाक़ात
अंतर्जाल के कारण साहित्य के दरवाज़े हर आम व्यक्ति के लिए खुल गये हैं: सौरभ पाण्डेय
(आज हम आपसे रूबरू करवा रहे हैं एक ऐसे शख्स से जो साहित्य और साहित्य से इतर हर विषय पर गहरी समझ रखते हैं, उस पर धारा-प्रवाह बोलते हैं और आपको एक पल के लिए भी ‘बोर’ नहीं होने देते। छंद विधान की चर्चित पुस्तक ‘छंद मंजरी’ के रचनाकार और समृद्ध गीतकार, ग़ज़लकार सौरभ पाण्डेय जी की इस बार ख़ास मुलाक़ात हुई ‘हस्ताक्षर’ के प्रधान संपादक के. पी. अनमोल के साथ। मुलाक़ात में हुई बातचीत प्रस्तुत है आपके समक्ष।)
अनमोल- किसी भी इंसान के व्यक्तित्व के विकास में बचपन, परिवेश और संगति बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। आपको भी माज़ी में ले जाकर कुछ यादें टटोलने की चाहत है। अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि, शिक्षा व कैरिअर आदि को लेकर कुछ बताएँ।
सौरभ जी- हमारा पैतृक गाँव उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के द्वाबा परिक्षेत्र में है। मेरे पापा अपने पाँच भाइयों में सबसे बड़े थे और एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर थे। परिवार संयुक्त था। नौकरी के सिलसिले में सभी चाचा चाहे जहाँ रहे, पारिवारिक सम्मिलन का सर्वमान्य स्थान बलिया जिले का अपना गाँव ही हुआ करता था। आज भी इलाहाबाद में हम सभी भाई पिछले लगभग पच्चीस वर्षों से सपरिवार संयुक्त रूप से ही रहते हैं।
पापा बिहार राज्य विद्युत परिषद से उच्चाधिकारी के तौर पर सेवामुक्त हुए थे। वे अपनी सेवा के प्रति महती दायित्वबोध से भरे एक समर्पित अधिकारी हुआ करते थे। उनका शुद्ध आचरण, सद्व्यवहार और उनकी ईमानदारी व खरी ज़िन्दग़ी हम सभी के लिए नैतिकता का व्यावहारिक पाठ हुआ करती थी। उनके व्यवहार से हमने नौकरी की ताब और उसके रुआब का अर्थ खूब जाना। और जाना कि अपने वेतन पर अटूट भरोसा करना क्या होता है!
पापा ने हम तीनों भाई-बहनों को तथाकथित अधिकारी-पुत्रों की तरह कभी पलने-सोचने नहीं दिया, लेकिन किसी तरह से किसी कमतरी का अहसास भी नहीं होने दिया। अलबत्ता, नैतिक रूप से एक आश्वस्त व्यक्ति के लिए आत्मसम्मान और आत्मगौरव का अर्थ और इसका सुख क्या होता है, इस समझ को जीने का हमें समृद्ध वातावरण अवश्य उपलब्ध कराया। वे हमें धन नहीं, संस्कार का अर्थ बता कर गये। पापा कई मायनों में बहुत ही खुले विचारों के थे। लेकिन साथ ही, कई बिन्दुओं के सापेक्ष हम उन्हें बहुत ही कठोर, नहीं, क्लिष्ट पाते थे। हम जहाँ गये, रहे, पापा के साथ-साथ हमारे पूरे परिवार की बहुत ही प्रतिष्ठा हुआ करती थी। यह प्रतिष्ठा किसी अधिकारी के परिवार को मिलने वाली सायास प्रतिष्ठा न होकर लोगों का स्वतः उमड़ा भाव ही हुआ करता था। उनके जॉब का नेचर ही ऐसा था कि समयबद्ध या विभागीय आवश्यकताओं के अनुसार हुए स्थानान्तरणों से हमारा परिवेश बदलता रहता था।
हालाँकि मेरे बाल्यकाल का बहुत बड़ा भाग बरौनी थर्मल की कॉलोनी में बीता। लेकिन किशोरावस्था और युवावस्था के दौरान मुज़फ़्फ़रपुर, समस्तीपुर, दरभंगा आदि स्थानों में भी निवास रहा। ज़ाहिर है, हम सभी भाई-बहन की प्रारम्भिक शिक्षा कई स्थानों पर हुई। बरौनी थर्मल के प्राइमरी और माध्यमिक स्कूल, ज़िला स्कूल, मुज़फ़्फ़रपुर और केईएचई स्कूल, समस्तीपुर से लेकर वाराणसी के यू.पी. कॉलेज के इण्टरमिडियेट सेक्शन तक की उपस्थिति-पंजिकाओं में आप मेरा नाम पायेंगे।
बचपने से ही मैं दो तरह की प्रवृतियों को जीता हुआ व्यक्ति था। खेलकूद या अन्यान्य क्रियाकलापों में यथोचित बहिर्मुखी दिखता हुआ भी मैं परख और चिंतन के धरातल पर नैसर्गिक रूप से अंतर्मुखी ही था। जहाँ पापा अपने डील-डौल और शारीरिक सौष्ठव के कारण हर तरह के खेलकूद में एक सीमा से आगे की रुचि लिया करते थे, तमाम अंतर्संस्थानिक और अंतर्विभागीय प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत होते थे, मैं बचपन से ही सामान्य कद-काठी का होने से अपनी बुद्धि पर भरोसा करता। हालाँकि मेरी रुचि ऐसे मामलों में खुलकर अभिव्यक्त हुआ करती थी। मैं खूब बढ़-चढ़ कर आउटडोर गेम्स में भाग लेता था। इसके बावजूद एक प्रारम्भ से ही मुझे यह भान था कि मेरे लिए वे मैदान और क्रीड़ा-प्रतियोगिताएँ नहीं हैं। कई मायनों में, जिस आयु में बच्चे गंभीर सोच के प्रति पूर्णतया अन्यमन्स्क हुआ करते हैं, मैं तथाकथित बड़ी-बड़ी किताबें पढ़ने लगा था और, अपने वायवीय संसार में नायक हुआ करता था। बच्चों को लेकर सोचिये, तो सामान्यतया यह एक ख़तरनाक प्रवृति है। लेकिन पापा को मुझे लेकर विचित्र प्रकार की आश्वस्ति थी। उन्होंने मेरे किसी अतुकान्त व्यवहार को लेकर कभी टोका-टाकी नहीं की।
इसी प्रवाह में शब्दों के प्रति मेरे मन में कब से एक विशेष तरह का अनुराग बन गया, पता ही नहीं चला। ख़ैर। फिर गणित विषय से ग्रेजुएट हो जाने के बाद पटना में ही अकेले रहकर मैंने आगे के जीवन की तैयारी शुरु की। वह मेरे जीवन का बड़ा ही आत्मपरक काल-खण्ड था। उन दिनों की कई बातें तब मेरे लिए बड़ी ही उलझी हुई प्रतीत होती थीं। जबकि उन्हीं बातों को आज याद करता हूँ तो उनकी चर्चा मात्र से रोमांच हो आता है। लेकिन यह भी है, कि एक विशेष प्रकार की आश्वस्ति की अनुभूति होती है।
फिर नेशनल लेवल की एक कम्पनी में मेरा चयन हो गया। कई स्थानों से होता हुआ मेरा स्थानान्तरण मुम्बई हुआ। सात-आठ वर्षों के मुम्बई प्रवास ने मुझे व्यावहारिक तौर पर स्वयं को माँजने के खूब अवसर दिये। फिर, अचानक सबकुछ छोड़-छाड़ कर कम्प्यूटर-प्रोग्रामिंग और सॉफ़्टवेयर की दुनिया में चेन्नै चला गया। ग्यारह-बारह वर्ष वहाँ कैसे व्यतीत हो गये पता ही नहीं चला। चैन्नै प्रवास के दौरान ही विवेकान्द केन्द्र, कन्याकुमारी के सीधे सम्पर्क में आने का महती सौभाग्य मिला। इस संस्था के वरिष्ठों और प्रथम श्रेणी के महानुभावों के सीधे सम्पर्क में आने से भारतीय वैचारिकता और वैदांतिक दृष्टिकोण के सापेक्ष संसार को समझने की दृष्टि विकसित हुई। आध्यात्म के कई पहलुओं से लेकर योगशास्त्र की कई गूढ़ अवधारणाओं को अपने सामने खुलता हुआ पाया। उन सभी का साहचर्य और उनसे बनता दैनिक संवाद मेरे जीवन की महती उपलब्धि की तरह है।
फिर हैदराबाद में टेक्निकल जीवन के लगभग दो वर्ष व्यतीत हुए। तभी बंगाल की एक मल्टीनेशनल कम्पनी के न्यौते और सौजन्य से उत्तर भारत में आना सम्भव हुआ। आजकल विभिन्न सरकारी परियोजनाओं के क्रियान्वयन और संचालन के क्रम में एक कम्पनी के ऑपरेशन तथा प्रशिक्षण के प्रमुख के तौर पर राष्ट्रीय भूमिका का निर्वहन करता हुआ सेवारत हूँ। चूँकि ये सब साहित्येतर बातें हैं, अतः इनकी विशेष चर्चा कतई उचित नहीं है। यह अवश्य है, कि मैं चाहे जहाँ गया, साहित्य से मेरा साबका भले ही एक पाठक के तौर पर लेकिन लगातार बना रहा। एक प्रवाह में यही कुछ मेरे आज तक के जीवन का लेखा-जोखा है।
अनमोल- साहित्य की ओर आपका रुझान कब और कैसे हुआ, जानना चाहेंगे?
सौरभ जी- आदमी की प्रवृति जन्मजात हुआ करती है। आगे, उचित वातावरण और उसके द्वारा की गयी मेहनत और देख-भाल ही उसके इस बीज के अँकुरने और पनपने का कारण बनती हैं। संवेदनशीलता कोई ऐसा पाठ नहीं है कि उसे सिखाया-पढ़ाया जा सके। यह तो किसी व्यक्ति की जन्मजात प्रवृति का ही अन्योन्याश्रय हिस्सा है। संवेदना की निगाह से हुई हर क्षण की परख और आत्मसात हुई अनुभूतियों को संप्रेषित करने के लिए अलबत्ता अभ्यास अवश्य किया जाता है। वैसे तो मेरे संवेदनशील मन के लिए कुछ कहने या शाब्दिक करने का वातावरण मेरे परिवार में ही उपलब्ध था। मेरे नानाजी प्रातः स्मरणीय पंचानन मिश्रजी हिन्दी विद्यापीठ, देवघर (अब झारखण्ड) से सम्बद्ध थे। वे ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की जीती-जागती प्रतिमूर्ति तो थे ही, एक उद्भट्ट विद्वान होने के साथ-साथ संवेदनशील साहित्यकार भी थे। किन्तु, यह उनका नितांत आत्मजीवी आचरण ही था कि वे साहित्य के क्षेत्र में बहुत मुखर नहीं थे। लेकिन उनकी प्रकाण्ड विद्वता को लेकर उनके शिष्यों से लेकर तब का विद्वद्समाज भी एकमत था। प्रदर्शनप्रियता से उन्हें सख़्त नफ़रत थी।
मैं बचपन से ही उनके व्यक्तित्व से बहुत ही अधिक प्रभावित था। उनके कहे, लिखे से मैं बचपन से ही जुड़ाव महसूस करता था। उसी समय अर्थात, कक्षा पाँच में ही, मेरी तुकबन्दियों पर जब कभी उनसे शाबासी मिलती, जो सच मानिये, वो अत्यंत अनुशासित प्रशंसा हुआ करती थी, मेरा बाल-मन कई दिनों तक गुनगुनाता फिरता था। मेरी माताजी भी मुझे बहुत उत्साहित किया करती थीं। मेरी माता जी तब ‘वोरैसियस’ पाठक हुआ करती थीं। घर में किताबों का अम्बार था। सो तो आज भी है। यही सारा कुछ मेरे लिए साहित्य के प्रति अनुराग का कारण बनता गया। लेकिन यह भी सच है, कि मेरी साहित्य यात्रा सहज प्रवाह में कभी आगे नहीं बढ़ी। इसके कई व्यक्तिगत, तो कई परिस्थितिजन्य कारण भी प्रभावी रहे। फिर, मेरे ग्रेजुएशन के काल-खण्ड में पापा का स्थानांतरण पतरातू थर्मल पॉवर स्टेशन (अब झारखण्ड में) हो गया। वहाँ की कॉलोनी का माहौल कलामय था। साहित्य के कई अनुरागियों के संपर्क में आने का सुखद संयोग बना। वहीं शिक्षकों और साहित्यप्रेमियों की एक साप्ताहिक ’बैठकी’ हुआ करती थी, ‘वातायन’ के नाम से। वहाँ सभी अग्रजों ने मुझे खूब प्रोत्साहित किया। जबकि मैं मात्र एक विद्यार्थी था, लेकिन उनके बीच मुझे जिस तरह से स्वीकृति मिली, वह आज भी मुझे चकित करती है। अवश्य ही, यह उन अग्रजों की उदारता ही थी, अन्यथा, किसी प्रथम सोपान के अभ्यासी को कोई मंच पर खड़ाकर कवि के तौर पर उद्घोषित करे, ऐसा अमूमन होता नहीं है।
हालाँकि मेरे करीयर को लेकर तब पापा अवश्य चिंतित रहने लगे थे। यह लाज़िमी भी था। लेकिन यह भी हुआ कि उन करीब दो वर्षों में मुझमें साहित्यबोध और सकर्मक लेखन की नींव पड़ चुकी थी। इसके बाद अचानक मेरे जीवन में लेखन को लेकर कई वर्षों का एक ऐसा दौर आया, जब मेरे लिए सारा कुछ स्टैण्ड-स्टिल सा हो गया था। फिर मेरे जीवन में ’ओपन बुक्स ऑनलाइन’, यानी, ’ओबीओ’ के आभासी मंच का संयोग बना। इसके लिए मैं ’ओबीओ’ के प्रधान-सम्पादक योगराज प्रभाकरजी का सदा आभारी रहूँगा। विधाओं, विधानों और उनकी शास्त्रीयता के तमाम प्रारूपों से मेरा साक्षात परिचय हुआ। यह मंच मेरे लेखकीय जीवन में एक ठोस चट्टान की बनी दृढ़ नींव की तरह है।
अनमोल- आपके अंदर के नव रचनाकार को कैसा साहित्यिक परिदृश्य मिला? ख़ुद को किस तरह से तराशते गये और इस कार्य में किन-किन साहित्यिक शख्सियतों का साथ रहा?
सौरभ जी- कोई बालक, फिर किशोर और आगे युवा किस तरह के वातावरण में पलता, बढ़ता और रहता है, वह वातावरण तो उसे और उसकी संचेतना को गढ़ने का काम करता ही है, इसी के साथ एक और बिन्दु प्रभावी हुआ करता है कि वह अपने गठन के क्रम में किस-किस तरह के या कैसे-कैसे लोगों के संपर्क में आता है। मैं समस्तीपुर के अपने हिन्दी शिक्षक को नहीं भूल सकता, जिन्होंने तब हमें रचनात्मक लेखन के प्रति खूब प्रोत्साहित किया था।
फिर पतरातू के ‘वातायन’ के समय में कई हिन्दी, भोजपुरी और मैथिली साहित्य के रचनाकारों और सुधीजनों के दैनिक सम्पर्क में आने का सौभाग्य मिला। उनमें स्व. पशुपतिनाथ सिंह, श्री बी.बी. चौधरी, श्री ब्रजभूषण मिश्र, श्री कृष्णधारी, श्री रामानन्द राही का विशेष उल्लेख करूँगा। तब हमारे बीच भुरकुण्डा के ज़हीर नियाज़ी का बड़ा नाम हुआ करता था। उनकी कहानियाँ और आलेख आये दिन कहीं न कहीं छपा करते थे और हम उन्हें चाव से पढ़ा करते। मुझे उनका भी आशीर्वाद मिला है। ‘वातायन’ के कारण तब के राँची क्षेत्र के कई विद्वानों और लेखकों का संपर्क बना था। इन सभी प्रणम्य सुधीजनों का मेरी युवावस्था की समझ को तराशने में यथोचित योगदान रहा है। विशेषकर ब्रजभूषण मिश्रजी के सान्निध्य में पटना स्थित ‘भोजपुरी अकादमी’ से सम्बद्ध कई विद्वानों से मिलने और सुनने का अवसर मिला था। भोजपुरी साहित्य के भगवती प्रसाद द्विवेदी जी से तभी की पहचान है। आगे, इलाहाबाद में साहित्यिक गतिविधियों के कारण कई सुधीजनों के संपर्क में हूँ।
यह तो खैर अब एक सतत प्रवाह है, जिसमें लोगों से मिलना-जुलना और सीखना-सिखाना बना रहता है। इसे नहीं रुकना चाहिए। हाँ, मैं एहतराम इस्लाम साहब का विशेष तौर पर नाम लूँगा, जिनका मुझ पर विशेष स्नेह रहा है। मुझसे उनकी अपेक्षाएँ भी बहुत हैं, जाने उनका किस स्तर तक निर्वहन हो पायेगा। इसी के साथ, जनवादी गीतकार नचिकेता जी का अपार स्नेह और उनकी आत्मीयता मेरे लिए गौरव की बात है। गीत विधा के प्रति मेरी समझ के विकसित होने में उनसे बने नियमित संवादों की विशेष भूमिका रही है। और कई वरेण्य अग्रज हैं, जिनका होना वैचारिक रूप से मेरे होने का कारण बना है। मैं किन-किन का नाम लूँ और किन-किन का न लूँ? वैसे, मैं आपके सामने जितना और जो कुछ भी हूँ, निस्संदेह इस होने में साहित्यिक मंच ‘ओपन बुक्स ऑनलाइन’ का अकथ योगदान है। इस मंच के सभी आत्मीयजनों का आजीवन आभारी रहूँगा।
अनमोल- किसी साहित्यिक विभूति के साथ का कोई वाकया, जो हमारे पाठकों के लिए संदेशप्रद और रोचक हो?
सौरभ जी- ऐसे तो कई वाकये हैं, जिनकी मैं धारा-प्रवाह चर्चा कर सकता हूँ। विशेषकर डॉ. धनन्जय सिंह जी, जो ‘कादम्बिनी’ से सम्बद्ध रहे हैं, से जब-जब मिलना हुआ है, वे अपने अनुभवों का पिटारा खोल देते हैं। उस क्रम में कई-कई वाकये जानने-सुनने के हुआ करते हैं जो वाकई अत्यंत रोचक होते हैं। लेकिन एक वाकया अभी स्मरण में आ रहा है जिसकी अवश्य चर्चा करना चाहूँगा।
मैं बुद्धिनाथ मिश्र जी के साथ एक साहित्यिक आयोजन के लिए देहरादून से ऋषिकेश जा रहा था। कार में हम दो ही थे, सो साहित्य से सम्बन्धित तमाम मुद्दों पर लगातार बातचीत बनी हुई थी। उसी समय ओबीओ के पटल पर मासिक ऑनलाइन इण्टरएक्टिव आयोजन ‘चित्र से काव्य तक-छन्दोत्सव’ प्रारम्भ था। इस आयोजन के संचालन का दायित्व चूँकि मुझ पर ही है, अतः मैं अपने लैपटॉप पर रह-रह कर नज़रें जमा देता था। उसी क्रम में मुझे बार-बार टिप्पणियाँ भी करनी पड़ती थीं। इस कारण, बुद्धिनाथ जी को बोलने-बतियाने में बार-बार व्यवधान हो रहा था। एकबारग़ी वे बोल उठे, “भाई, पहले आप ये अपना डिब्बा बन्द कीजिये!..” मैंने मुस्कुराते हुए उन्हें ओबीओ के पटल पर चल रहे उस ऑनलाइन आयोजन की सारी जानकारी दी और उन्हें दिखाया कि प्रदत्त चित्र का आधार लेकर ‘भुजंगप्रयात छन्द’ जो कि उस आयोजन का प्रदत्त छन्द था, में रचनाकारों की ओर से लगातार न केवल रचनाएँ आ रही हैं, बल्कि तमाम ऑनलाइन पाठक-सुधीजन उन रचनाओं पर अपनी टिप्पणियाँ भी कर रहे हैं। कुछ पाठक तो भुजंगप्रयात छन्द में ही उन रचनाओं पर टिप्पणियाँ भी कर रहे थे!
बुद्धिनाथ जी तो स्वयं गीत-पुरोधा और छन्दों के विद्वान हैं, सारा कुछ देख और पढ़ कर तो बस दंग रह गये। वे एकदम से बोल उठे, “क्या कमाल कर रहे हैं आप लोग भाई!.. आजके दौर में छन्दों में न केवल रचनाकर्म, बल्कि रचनाओं पर टिप्पणियाँ भी छन्दों में! फिर उन प्रस्तुतियों पर चर्चा, और सुधार के लिए सुझाव-सलाह..! वाह! ये तो एक सपना जैसा है जी!..” मैंने कहा, “आदरणीय, इसी कारण तो मैं भी दायित्वमुक्त नहीं हो पा रहा हूँ! जबकि मेरे लिए आपका सान्निध्य और आपकी बातें भी उतनी ही ज़रूरी हैं, जितना आवश्यक ये आयोजन है..” उन्होंने मेरे कन्धे थपथपाये और कहा, “मैं आज पूरी तरह आश्वस्त हूँ। छन्द वस्तुतः सधे हुए हाथों में हैं। और, छन्द आज भी प्रासंगिक हैं, यह एक सैद्धांतिक वाक्य मात्र नहीं है! प्रत्यक्षम् किम् प्रमाणम्!..”
अनमोल- साहित्यकार मन से एक फ़क़ीर की तरह होता है, जबकि जीवन में सामाजिक और पारिवारिक दायित्वों का भी अहम् स्थान होता है। ऐसे में एक गृहस्थ सामाजिक व्यक्ति और साहित्यिक फ़क़ीर दोनों तरह की मानसिक स्थितियों में आपने किस तरह सामंजस्य बैठाया?
सौरभ जी- बहुत ही कठिन सवाल है यह! इस बिन्दु पर मैं ये अवश्य कहना चाहूँगा कि व्यावहारिकता और पारिवारिक दायित्वों की कसौटी पर अधिकांश तथाकथित फ़क़ीर अपने धर्म से च्यूत पुत्र, पति और पिता होते हैं। अन्यथा झूठ बोलते हैं। भाई, कृपया मुझसे झूठ न बुलवाइये! ख़ैर, यह तो हुई लाइटर नोट में बात।
वस्तुतः साहित्यकर्म एक सामाजिक दायित्व है। एक सचेत साहित्यकार अपने परिवार का दायरा इतना बड़ा कर लेता है, कि उसमें उसके वो सभी भाषा-भाषी सम्मिलित हो जाते हैं जो उसे पढ़ते और सुनते हैं। उसके संप्रेषणों की व्यापकता कई बार इतनी हो जाया करती है कि उन्हें उसकी भाषा से इतर लोगों के लिए भी उपलब्ध कराना पड़ता है। इस तथ्य पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। उन सभी पाठकों और श्रोताओं के प्रति उसका दायित्व क्या नहीं बनता कि वह उनके लिए अधिक से अधिक समय निकाले? इस बिन्दु को संयुक्त परिवार के सदस्यों की निगाह से सोचने और समझने की आवश्यकता है, जहाँ किसी एक या कुछ के व्यक्तिगत आग्रह और अपेक्षाओं पर सोचने की अपेक्षा सभी की संतुष्टि और भलाई अधिक महत्वपूर्ण हुआ करती है।
व्यापक दृष्टि से देखा जाय तो साहित्यकर्म स्वत: स्फूर्त वैचारिक बिन्दुओं का शाब्दिक होना ही है, लेकिन इसके पूर्व जिस दीर्घकालिक और अनवरत गहन अभ्यास की आवश्यकता होती है, वह अभ्यास किसी सचेत साहित्यकार से उपयुक्त समय की चाहना रखता है। अन्यथा, शौकिया रचनाकर्म एक बात है और गंभीर और दायित्वपूर्ण साहित्यकर्म नितांत दूसरी बात। साहित्यकर्म ऐसी एकनिष्ठ तपस्या है जिसमें सबका भला सन्निहित हुआ करता है। लोग अपने परिवार के चार-पाँच लोगों के योगक्षेम और उनकी कुशलता की फ़िक्र में तो सारी उम्र भिड़ते रहते हैं और लस्त-पस्त होते रहते हैं। एक साहित्यकार के लिए तो सारा समाज ही अपना परिवार हुआ करता है, जिसके भले की सोचने के पहले उसे स्वयं को उपयुक्त बनाने की तैयारी तो करनी ही पड़ेगी! क्या यह तैयारी उससे उचित समय नहीं माँगेगी? अब अपने पर आऊँ, तो यह सही है कि मेरे घर में यदि उदार और संवेदनशील माता-पिता न होते, इतना समर्पित मेरा अनुज न होता, दायित्वबोध से भरी संवेदनशील पत्नी न होती और आशानुरूप समझदार बच्चे न होते, तो संभवतः मैं न नौकरी कर पाता, न ही साहित्यिक मनन-मंथन और आवश्यक अध्ययन हेतु इस तरह से इकट्ठा समय निकाल पाता। इन सभी के प्रति मन में यथोचित आभार और अपार स्नेह है। सभी के प्रति मैं कर्ज़दार हूँ, जिससे मेरी कभी निवृति नहीं हो सकती। हाँ, आगे भी सभी मेरे साथ ऐसे ही सहयोगी भाव में बने रहेंगे, इस अपेक्षा के प्रति पूर्ण आश्वस्ति है। विश्वास है, इस बिन्दु के बरअक्स मैं अधिक नहीं बोल गया!
अनमोल- आप जो बोल गये हैं वो वाकई क़ाबिले गौर है। कमाल है!! मेरा यह प्रश्न अपनी मंज़िल तक जा पहुँचा।
छंद विधान पर आपकी एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘छन्द-मञ्जरी’ प्रकाशित हुई है, जो ख़ासी चर्चित भी रही। इस पुस्तक के बारे में कुछ बताइए।
सौरभ जी- ‘छन्द-मञ्जरी’ मेरी साहित्यिक समझ, इस हेतु मेरे प्रयासों और इस क्रम में तमाम प्रश्नों को लेकर मेरे जूझने और प्रतिप्राप्ति का एक संयत दस्तावेज़ है। ‘छन्द-मञ्जरी’ केवल छान्दसिक रचनाओं पर अभ्यास करने वाले रचनाकारों के लिए ‘एक और’ पुस्तक नहीं है, बल्कि यह एक ‘कार्यशाला-पुस्तक’ है। चुने हुए विभिन्न छन्दों के माध्यम से गेय रचनाओं, जैसे कि गीत, नवगीत, छान्दसिक कविताओं, मुक्त छन्द की रचनाओं, मात्रिक ग़ज़ल आदि पर प्रयास करने वालों के लिए इस पुस्तक में काव्य-शिल्प पर मूलभूत समझ को लेकर बात की गयी है। रचना-पंक्तियों में गेयता शब्दों की मात्रा और विन्यास को समझने से ही सध सकती है, जिसके लिए छन्दों की मूलभूत जानकारी अत्यंत आवश्यक है।
‘छन्द-मञ्जरी’ जैसी ‘कार्यशाला-पुस्तक’ इस प्रयास में किसी सहूलियत की तरह उपलब्ध है। पुस्तक संवाद शैली में है, अतः इसकी भाषा सरल, सहज है। शब्द-व्यवहार सुरूचिपूर्ण है। वस्तुतः सार्थक रचनाकर्म शाब्दिक अभिव्यक्ति मात्र नहीं होता, बल्कि यह एक सुगढ़ काव्य-अनुशासित संप्रेषण है। रचनाकर्म काव्य-अनुशासन से जितना दूर जाता है उतना ही दुरूह और क्षणभंगुर होता जाता है। क़ायदे से देखा जाय तो छान्दसिकता, गीतात्मकता या शब्द-प्रवाह कविकर्म के अहम हिस्सा हैं। होने ही चाहिए। मुक्तछन्द की भी बात वही कर सकता है जिसे छन्दों की मूलभूत समझ हो। वस्तुतः छन्दों से रचनाओं की मुक्तता का अर्थ ही सही ढंग से नहीं समझा गया है। जोकि छन्द के विरुद्ध व्याप गये हर तरह के भ्रम का मुख्य कारण है।
स्पष्ट कहूँ, तो ‘छन्द मञ्जरी’ इस भ्रम के निवारण के लिए उठा आग्रहपूर्ण, सार्थक किन्तु एक नम्र कदम है। आपसे साझा करूँ, कि इस वर्ष जनवरी में दिल्ली के ‘विश्व पुस्तक मेले’ में ‘छन्द-मञ्जरी’ को सिहोर, भोपाल की प्रतिष्ठ साहित्यिक संस्था ‘शिवना प्रकाशन’ की ओर से वर्ष 2015 के ‘स्व. रमेश हठीला स्मृति शिवना सम्मान’ से सम्मानित किया गया। इसे मैं आज के साहित्य में छन्दों की पुनर्स्वीकृति के तौर पर देखता हूँ। ‘छन्द-मञ्जरी’ से सम्बन्धित एक बात मैं विशेष तौर पर कहना चाहूँगा, कि यह पुस्तक मैंने लिखी नहीं है, बल्कि यह मुझसे लिखवायी गयी है। इसका सारा श्रेय जाता है, अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद के वीनस केसरी को। उन्होंने मुझसे लिखवा लिया है। मेरे जिम्मे यदि सारा कुछ रहा होता तो शायद यह पुस्तक आज तक सामने नहीं आती।
अनमोल- आपके लेखन की मुख्य विधाएँ नवगीत, ग़ज़ल, कविता, दोहा आदि हैं। किस विधा से अधिक जुड़ाव महसूस करते हैं और क्यूँ?
सौरभ जी- प्रवृति और संस्कार से तो मैं एक गीतकार ही हूँ। भोजपुरी भाषी होने के कारण शाब्दिक-सरसता और गीतों की लयात्मकता के प्रति मेरा झुकाव जन्मजात है। मानवीय दशाओं के सापेक्ष गीतों का चमत्कारी वैभिन्न्य मुझे सदा से लुभाता रहा है। लेकिन, यह भी सही है, कि मैंने स्वयं को अभी तक किसी विधा विशेष से बाँध कर नहीं रखा है। आपने सही कहा, कि मेरी अनुभूतियाँ कई एक विधा के माध्यम से अभिव्यक्त होती रही हैं। और एक बात, मुझे शब्द-चित्र या क्षणिकाओं का माध्यम भी अत्यंत प्रिय है। ये अतुकान्त शैली की छोटी-छोटी प्रस्तुतियाँ हुआ करती हैं। कम शब्दों में वस्तुस्थिति या गहन अनुभूतियों को सापेक्ष करना किसी चुनौती से कम नहीं होता। इन्हें प्रस्तुत करने के क्रम में शब्दों की सान्द्रता मुझे हमेशा से रोमांचित करती रही है।
अनमोल- नवगीत भाषा और शिल्प, दोनों ही नजरिए से बहुत ही मजबूत स्थिति में आ पहुंचा है इन दिनों। चांद-तारों और फूल पत्तियों को परे रख नवगीत आज पूरी तरह धरातल पर उतर आम जन की पीर गा रहे हैं। पिछले डेढ़ दशक में और क्या क्या बदलाव देखते हैं इस विधा में?
सौरभ जी- चाँद-तारों और फूल-पत्तियों की बात करते हुए भी गीत केवल चाँद-तारों और फूल-पत्तियों की ही बात नहीं करते। यह एक बड़ा भारी भ्रम है। इस भ्रम से हम जितनी जल्दी निकल सकें, उतना ही अच्छा। संभवतः आप छायावादी कविताओं या इसके उत्तर-काल की बहुसंख्य कविताओं को गीत के समकक्ष रख रहे हैं। उन कविताओं में अवश्य ही प्रकृति और इसके अवयवों की विपुल मौजूदगी हुआ करती थी। मगर वे गीत नहीं थे। गीत की अवधारणा को समझने के क्रम में हमें सामाजिक श्रम-संस्कार और सामुहिकता को लेकर बने मनुष्य के भावबोध को कायदे से समझने की आवश्यकता होगी।
गीत का मुख्य कार्य श्रोता-पाठक की भावदशा को अपनी भाव-आवृति और लयात्मकता से संवेदित करना है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जिस शब्द-व्यवहार से मानवीय संवेदनाएँ प्रभावित तथा संवेदित हो सकें, वही गीत है। मनुष्य एकांतजीवी इकाई नहीं है। वह अपनी भावनाएँ अभिव्यक्त करता है। अभिव्यक्ति मनुष्य को उसके समाज से बाँधे रखने में महत्वपूर्ण और आवश्यक भूमिका निभाती है। तभी तो आमजन अपने सुख-दुख, जय-पराजय, उत्साह-उमंग, हर्ष-विषाद ही नहीं, अपने संघर्ष की चेतना की भावना की अभिव्यक्ति भी गीत के माध्यम से ही करते रहे हैं।
जीवन यापन और जीवन व्यवहार के सभी अवसरों, ऋतुओं, उत्सवों, त्यौहारों एवं भौतिक, वैचारिक, सामाजिक और आध्यात्मिक व्यवहारों के लिए भिन्न-भिन्न गीत उद्भूत हुए हैं। यानी, गीतों का फैलाव बहुत ही अधिक हुआ करता है। सामुहिकता को स्वर देते हुए आमजन अपनी व्यक्तिगत भावनाओं को अभिव्यक्त होता हुआ पाते हैं। ये गीत ही हैं जिनके माध्यम से समाज के सभी वर्गों के लोगों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक आयामों को अत्यंत ही संवेदनशील और सार्थक अभिव्यक्ति मिलती है। गेय होना गीत के लिए अनिवार्य शर्त है। इस शर्त को पूरा करने के लिए गीतों को छन्दानुशासन, शब्दानुसान और सांगीतिक लयात्मकता की कसौटी पर खरा उतरना ही होता है। हम यह भी कह सकते हैं कि गीत की रचना असंयत व्यक्तिगत सम्बन्धों, बदलते हुए सामाजिक सम्बन्धों आदि के उपजे तनाव से होती है। वस्तुत: यही वे बिन्दु हैं, जो नवगीत के लिए स्पेस मुहैया कराते हैं।
हमें नवगीतों पर बात करते हुए उन कारणों को समझना ही होगा, कि अतुकान्त शैली की नयी कविता की धमक के बावजूद गीतों की, भले ही नये नाम के साथ, क्यों वापसी हो रही थी? वस्तुत: जिस भूमि पर गीत प्रत्येक स्तर पर प्रभावी हों, उस भारतीय उपमहाद्वीप में पद्य के नाम पर गद्यात्मक रसहीनता बहुत दूर तक या बहुत देर तक अभिव्यक्ति के तौर पर झेला नहीं जा सकता था। भले ही एक दौर ऐसा आया था जब गीत और छान्दसिक रचनाएँ जनता से दूर चली गयी थीं। इसके कई कारण थे और वे प्रभावी कारण भी थे। लेकिन भारतीय जन-मानस की रगों में लयात्मकता बहती है। यही कारण है कि, गीति-काव्य की इस नयी विधा से गीतकार बहुत प्रभावित हुए।
इस संदर्भ में ब्रजभूषण मिश्र का नाम लेना अप्रासंगिक नहीं होगा, जिन्होंने नवगीत विधा के सात मौलिक तत्व गिनाये हैं- ऐतिहासिकता, सामाजिकता, व्यक्तित्व, समाहार, समग्रता, शोभा और विराम। और, इसी के आगे उन्होंने इसके पूरक के रूप में ‘नवगीत’ के पाँच विकासशील तत्व बताये हैं- जीवन-दर्शन, आत्मनिष्ठा, व्यक्तित्वबोध, प्रीति-तत्व और परिचय। नवगीत चिंतन के स्तर पर सर्वाधिक यथार्थपरक, अपनी ज़मीन से जुड़े और भारतीयता से भरे होते हैं। प्रस्तुतीकरण और विन्यास के आधार पर नवगीत एक तरह से आंचलिकता और क्षेत्रीयता से स्वर पाते हैं। नवगीत समाज के वंचितों और पीड़ितों का साथ देते हैं। यही कारण है कि नवगीत समाज के निचले तबके के लोगों और वंचितों की सशक्त आवाज़ बन कर सामने आये। नवगीत को पढ़ते हुए शाब्दिक और शैल्पिक टटकापन, संक्षिप्तता, सांकेतिकता, लाक्षणिकता, व्यंजनात्मकता और नयी काव्य-भंगिमाओं की अनुभूति होती है। वस्तुत: हर नवगीत गीत है, लेकिन हर गीत नवगीत नहीं होता है। माहेश्वर तिवारी जी का यह कथ्य कई मायनों में महत्वपूर्ण है। आंचलिकता का भाव प्रभावी होता है, इसी कारण, लोकप्रचलित शब्द, लोक समर्थित-आश्रित बिम्ब और प्रतीकों का उपयोग बहुतायत में होता है। नवगीतों के नाम पर हो रही आज की कुछ अभिव्यक्तियाँ विभिन्न अवधारणाओं के तहत अपनी ही बनायी हुई कुछ रूढ़ियों को जीने लगी हैं। जबकि गीतों में जड़ जमा चुकी ऐसी रूढियों को नकारते हुए ही नवगीत सामने आये थे। आज फ़ैशन हो चले विधा-नामकरणों से खुद को बचाते हुए नवगीत को बचना ही होगा। यह स्वीकारने में किसी को कदापि उज़्र न हो, कि नवगीत भी प्रमुखत: वैयक्तिक अनुभूतियों को ही स्वर देते हैं जिसकी सीमा व्यापक होती हुई आमजन की सामुहिक अभिव्यक्ति बन जाती है। बदलाव को लेकर विशेष कुछ कहने से क्या कुछ सार्थक प्राप्त हो सकता है? शास्त्रीय शैल्पिकता के तमाम बन्धनों को नकारते हुए भी नवगीतों ने इसी बिन्दु पर अपनी मौजूदगी जतायी थी। लेकिन मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं हूँ कि शिल्पगत नियमावलियों का पालन करना किसी बन्धन को मानना है। ऐसा हुआ तो मात्रिकता और शब्द-संयोजन के साथ ही खिलवाड़ होने लगेगा, जो लय और गेयता के लिए आधारभूत तत्व हैं। ऐसे में तो गेयता और प्रवाह ही नहीं बच पायेंगे! और ऐसा हुआ, तो फिर कैसा कोई गीत? या फिर कैसा कोई नवगीत? लेकिन दुखद ये है कि कुछ नवगीतकार हैं, जो छन्दों पर, लय और संगीतात्मकता पर आवश्यक और अनिवार्य मेहनत तो नहीं करना चाहते लेकिन नवगीतकार कहलाना चाहते हैं। सारी परेशानी यहाँ है। यह इधर के वर्षों में तनिक अधिक हुआ है। ऐसे लोगों से नवगीत को अधिक समस्या है, बनिस्पत उनके जो गीत-नवगीत की अवधारणा पर ही उँगली उठाते रहे हैं। या ऐसी विधाओं से ही स्वयं को विलग मानते रहे हैं।
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– सौरभ पाण्डेय