दोहे
कविता से कविता बनी, बसा एक संसार।
मन ने मन से बात की,जुड़े रूह से तार।।
छंद दुखों का बन गया, जब ये जीवन गीत।
तब कविता बन के रही, मेरी सच्ची मीत।।
कविता कंगन बोल है, पायल की झंकार।
सच में दुल्हन-सी लगे,किये छंद श्रुंगार।।
मैं प्यासा राही रहा, तुम हो बहती धार।
अंजुली भर बस बाँट दो, मुझको कविते प्यार।।
मेरी आदत में रमे, दो ही तो बस काम।
एक हाथ में लेखनी, दूजा कविता नाम।।
हर कविता में है छुपी, कवि हृदय की पीर।
दुःख मीरा का है कहीं, रोता कहीं कबीर।।
दोहे, कविता, गीत सब, मन से निकले छंद।
भरा सभी में एक-सा, भावों का मकरंद।।
भाव शून्य कविता हुई, गीत हुए अनबोल।
शब्द बिके बाजार में, अब कौड़ी के मोल।।
जब-जब दर्दों से हुआ, है शब्दों का मेल।
कविता-ग़ज़लों-गीत ने, खेला अद्भुत खेल।।
– सत्यवान वर्मा ‘सौरभ’