उभरते-स्वर
इस बार उभरते स्वर स्तम्भ में प्रस्तुत है कर्णाटक की युवा रचनाकार सरिता सैल जी की एक कविता
भोर
आज भोर ने
मन में कुछ गुनगुनाया
फिर ओढ़ ली उसने
आलस की चादर
फूल की पंखुड़ियों पर गिरी
ओस की नरम बूंद
धीरे-धीरे लुप्त हो गई
जैसे-जैसे चढ़ा सूरज
कदमों ने ली तेज गति
हर जिम्मेदारी को
मन कब गुनगुनाया था
उसका कोई छोर नहीं
दिन कब रूका है
जिसके पैरो में लगे है
पहिये जिम्मेदारी के
फिर से वही रात
फिर से वही भोर
नित्य नयी पंक्ति
भोर गुनगुनाती है
जिम्मेदारी की चादर
फिर से ओढ़ लेती है।
– सरिता सैल