मूल्यांकन
प्रेम समाज की शर्तों पर नहीं संवेदना की शर्तों पर होता है
(‘इस ज़िंदगी के उस पार’ संग्रह के सन्दर्भ में)
– संदीप ‘सरस’
‘इस ज़िन्दगी के उस पार’ कहानी संग्रह का मुख्य पृष्ठ ट्रांसजेंडर की विडंबना से सीधा साक्षात्कार करता है। ऐसा एहसास होता है कि समाज के बंद द्वार के सामने वंचित, शोषित, उपेक्षित, अभिशापित ट्रांसजेंडर वर्ग का कोई प्रतिनिधि खड़ा हुआ; समाज से दरवाज़ा खोलने और स्वयं को स्वीकारने की अपील कर रहा है और भीतर से समाज ने अपनी दूषित मान्यताओं और पूर्वाग्रहों से उनके प्रवेश पर प्रतिबंध लगाते हुए द्वार बंद कर रखे हैं।
साहित्य जब समाज की विद्रूपताओं का पोस्टमार्टम करने लगे, समाज के रिश्तो की विसंगतियों से मुठभेड़ करने लगे, समाज के वंचित तबके की संवेदना से सीधा संवाद करने लगे तो आप निश्चित माने कि कलमकार अपने अभीष्ट में पूरी तरह से सफल रहा। लेखक ने इस कहानी संग्रह में कुल ग्यारह कहानियों में किन्नर व समलैंगिक समुदाय की व्यथा को टटोलने का प्रयास किया है।
कहानी संग्रह से जुड़कर एक बात तो पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है कि राकेश शंकर भारती के किस्सागोई का कोई जवाब नहीं। उन्होंने ऐसे समाज पर कलम उठाने का साहस किया, जिनके साथ सभ्य समाज के कथित लोग बैठना तो दूर उनकी चर्चा तक करना गुनाह समझते हैं।
पहली ही कहानी ‘मेरे बलम चले गए’ से आप संवेदना से सीधे संवाद जोड़ लेते हैं। प्रकृति के द्वारा दी गई किसी शारीरिक विकलांगता हेतु सामाजिक उपेक्षा और उपहास का दंश भीतर तक कितना आहत करता है, यह तो सुशीला जैसा कोई किन्नर ही समझ सकता है। विकलांगता शरीर से भले ही हो लेकिन मन और सपने तो वैसे ही भरपूर होते हैं जैसे बाकी अन्य लोगों के। और इन सपनों के टूटने पर दर्द भी उतना ही होता है, जितना और लोगों को। सुशीला किन्नर के बेहद जायज़ दर्द को लेखक ने बहुत सलीके से शब्दों से उभारने का काम किया।
दूसरी कहानी ‘मेरी बेटी’ का सबसे तकलीफदेह पहलू वह है, जिसमें अपनी कोख से जन्म देने वाली माँ और उसका पिता ही उसे उपेक्षा और तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं और उसके जन्म के लिए भगवान को दिन रात कोसते हैं। यकीनन यह एक बड़ा सवाल है कि ट्रांसजेंडर यानी हिजड़ा समुदाय के लिए परिवार या दांपत्य जीवन में भले ही अवसर न हो लेकिन समाज में उन्हें एक सम्मानित स्थान का हक तो ईश्वर ने दिया है, जिसका हम निरादर नहीं कर सकते। लेकिन विडंबना यह है कि ऐसे बच्चों को 9 महीने पेट में रखने वाली माँ के दिल में ही जब उनके लिए प्रेम नहीं रह जाता तो बाकी समाज में उनके सम्मानजनक स्थान की अपेक्षा ही बेमानी है। इस कहानी की पात्र राधिका शुरुआती झंझावातों से उबरकर एक परिवार के संरक्षण में पढ़-लिखकर डॉक्टर बन जाती है। लेकिन उसके अतीत का दर्द उसे सहज नहीं रहने देता और इस पीड़ा की साक्षी उसकी माँ अंततः उसके भी हाथों में दम तोड़ देती है।
तीसरी कहानी दयाबाई की पात्र अपने अंदर गुरु के साथ अपने अधूरेपन से कोसती हुई एक आखिरी ख्वाहिश थी, जिस परिवार में उसने जन्म लिया है उसे एक बार ज़रूर मिलें। उसका गुरु उसको परिवार से मिलाता है। मिलकर दयाबाई बेहद खुश होती है और परिवार के कहने पर अपने बड़े भाई की बेटी की शादी में आर्थिक मदद करती है और झूमकर नाचती-गाती है उसकी शादी में। लेकिन तब उसका दिल टूटकर बिखर जाता है, जब वह सुनती है कि उसका भाई किसी को बताता है कि इसे ग़ाज़ियाबाद से अच्छा पैसा देकर के नाचने के लिए बुलाया है।
चौथी कहानी रक्तदान की पात्र किन्नर विमला की व्यथा तो और ज्यादा मार्मिक है। बचपन के यौन शोषण और प्रताड़ना से तंग आकर उसे अपना घर छोड़ना पड़ा उसके लिए हैरत के बाद के समाज के जो लोग सार्वजनिक रूप से उसके साथ बैठने से कतराते वहीं बंद कमरों में उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने के लिए लालायित रहते थे।
अन्य कहानी रामवृक्ष दादा की याद में, एक समलैंगिक व्यक्ति की व्यथा कथा को बेहद खूबसूरती से पिरोया गया है। ताउम्र एक अपराध बोध से ग्रस्त कहानी का नायक जब कानूनी मान्यता का अधिकार पाता है तब अपने अपराध बोध से मुक्त होता है।
एक और कहानी सौतन बेहद प्रभावी है। अपने पति और किराएदार पुरुष के आपसी समलैंगिक संबंधों से परेशान एक महिला की जद्दोजहद को करीने से उकेरा है कथाकार ने।
फ्रेंड रिक्वेस्ट कहानी में भी ट्रांसजेंडर के अंतर्द्वंद को बखूबी उभारा गया और हारमोंस की गड़बड़ियों के शिकार दंपति के अतृप्त कामनाओं का सम्यक विश्लेषण किया गया है।
एक अन्य कहानी ट्रांसजेंडर में शालिनी भी इसी विसंगति की मृग- मरीचिका में जल बिन मछली की तरह तड़पती है। जबरन किन्नर बनाया जाने की घटनाओं को इस कहानी में बड़ी शिद्दत से उतारा गया है।
बधिया कहानी भी एक ऐसे ही जबरन ट्रांसजेंडर बनाए गए व्यक्ति की व्यथा कथा की दास्तान है।
तीन रंडियाँ कहानी भी एक ट्रांसजेंडर की संवेदना का खूबसूरत गुलदस्ता है।जो कि अपनी महिला वेश्या मित्र की नाजायज औलाद को माँ की तरह पालपोसकर उसका विवाह करती है।
‘इस जिंदगी के उस पर’ एक लंबी कहानी है। देहव्यापार को रेखांकित करती यह कहानी किन्नरों की आत्मीय संवेदनशीलता और आपसी रिश्तों की मार्मिक पड़ताल का मुकम्मल दस्तावेज है।
सभी कहानियाँ पढ़ने के बाद निष्कर्षतः यह अकाट्य सत्य उद्घाटित होता है कि प्रेम समाज की शर्तों पर नहीं संवेदना की शर्तों पर होता है। दरअसल कानूनी अधिकार मिलना और बात होती है और सामाजिक मान्यता मिलना है दूसरी बात होती है। जब तक समाज की सोच, समाज का व्यवहार और समाज की नैतिक मान्यताएं रूढ़िवाद से पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर सहज नहीं होती तबतक कोई कानून इस समस्या के समक्ष समाधान के लिए कारगर नहीं साबित हो सकता।
कुल मिलाकर अंततः यह कहा जा सकता है कि राकेश शंकर भारती ने समलैंगिकों और ट्रांसजेंडर की जिंदगी की जद्दोजहद को बड़ी गहराई से महसूस किया और विमर्श के पटल पर एक साहसी कदम आगे बढ़ाया है। इस विषय पर पहले भी लिखा जाता रहा है आगे भी लिखा जाता रहेगा और निश्चित रूप से वंचित वर्ग के अधिकारों और सामाजिक स्वीकार्यता की कवायद एक ना एक दिन अवश्य रंग लाएगी।
मुझे पूरा विश्वास है कि भारती जी का यह कहानी संग्रह पाठकों/समीक्षकों के बीच बेहद लोकप्रिय होगा। लेखक बधाई के पात्र हैं। उनका कहानी संग्रह व्यापक स्तर पर पढ़ा स्वीकारा जाएगा, ऐसी शुभकामनाएँ उन्हें सौंपता हूँ।
समीक्ष्य पुस्तक- इस ज़िंदगी के उस पार (ट्रांसजेंडर पर केंद्रित कहानी संग्रह)
लेखक- राकेश शंकर भारती (यूक्रेन)
प्रकाशक- अमन प्रकाशन, कानपुर
संस्करण- प्रथम, 2019
मूल्य- 225 रूपये
पृष्ठ -184
– संदीप सरस