ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
हमें ये ख़ाली-ख़ाली ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती
हमेशा ही सवाली ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती
हमारा हक़ हमें दे दो या सबकुछ छीन लो हमसे
हमें ये बीच वाली ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती
कभी इस द्वार बैठी तो कभी उस द्वार जा बैठी
हमें हरगिज़ हलाली ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती
नसीहत आप ही रक्खें, हमें संघर्ष करने दें
हमेशा पाठशाली ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती
कोई ठोकर लगे तो चोट का एह्सास हो जाये
दुआओं से सँभाली ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती
उजाला माँग कर ख़ैरात में धोएँ अँधेरों को
हमें ऐसी उजाली ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती
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ग़ज़ल-
ज़माना जीत लेता है मगर घर हार जाता है
स्वयं से जंग लड़ता है, वो अक्सर हार जाता है
इरादे ज़ुल्म सहकर और भी मजबूत होते हैं
मेरे सर से तेरे हाथों का पत्थर हार जाता है
कफ़न को खोलकर देखा तो दोनों हाथ ख़ाली थे
समय के सामने बेबस सिकन्दर हार जाता है
शराफ़त छोड़कर लहरें बग़ावत पर उतर आएँ
तो फिर अपने ही पानी से समन्दर हार जाता है
मैं गहरी नींद में सोता हूँ रखकर बाँह की तकिया
मेरे फुटपाथ से महलों का बिस्तर हार जाता है
तेरा ऐश्वर्य तेरा है, मेरा अभिमान मेरा है
मेरी ग़ैरत के आगे तेरा तेवर हार जाता है
– संदीप सरस