आलेख
कश्मीरी संत लल्लद्यद के वाखों में एकता की भावना
– सलमा असलम
प्राचीन काल से ही कश्मीर ने बहुत सारे संत, कवियों, ऋषियों और सूफियों को जन्म दिया है। कश्मीर में सामाजिक तथा सांस्कृतिक कल्याण के क्षेत्र में संतों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। संतों ने अपनी वाणी और उपदेशों से समाज में एकता, सद्धभावना और प्रेम फैलाने का कार्य किया है। चौदहवीं शताब्दी अपने गर्भ में कश्मीर के लिए पीड़ा और दौर्मनस्य लेकर आई थी। आरम्भ में बौद्ध धर्म और हिन्दुओं के त्रिकदर्शन से जीवन-पद्धति निर्मित हुई थी। उसका इस्लामी विचारधारा के साथ तीव्र संघर्ष हुआ। एक ओर शताब्दियों पुराने विश्वास और परम्पराएँ थीं, दूसरी ओर इस्लाम की नयी रोशनी थी। इस दो-राहे पर बड़े-बड़ों का साहस क्षीण हुआ। समय की गुहार थी कि इस संवेदनशील अवसर पर कोई पथ-प्रदर्शक सामने आए। इस अत्यंत अस्थिरता के युग में जब कश्मीर में शताब्दियों से प्रतिस्थापित एक व्यवस्थित शासन तन्त्र हिचकिया लेकर दम तोड़ रहा था और एक प्राचीन धार्मिक चिन्तन अपेक्षाकृत नये धार्मिक विश्वासों के संग नवसृजन कर रहा था, ललद्यद कश्मीर के क्षितिज पर उदित हुए। प्रेम तथा सत्कार से लोग उन्हें लल्ला नाम से भी पुकारते हैं।
ललद्यद के जीवन के बारे में पूर्ण रूप से तो नहीं अपितु इतना विश्वास से कहा जा सकता है कि वह चौदहवीं सदी की भक्त कवयित्री थी, जो कश्मीर की शैव भक्त परम्परा और कश्मीरी भाषा की एक अनमोल कड़ी रही है। ललद्यद वर्तमान श्रीनगर से कोई चार मील दूर पंद्रिठन में पैदा हुईं, जिसका सम्राट अशोक ने राजधानी के रूप में निर्माण किया था। कई इतिहासकारों का विचार है कि वह पाम्पोर के गाँव सेमपुर में एक ब्रह्मण परिवार में जन्मी थीं। उनके पिता का नाम चन्द्रभट था, जो एक सम्पन्न कश्मीरी पंडित ज़मींदार थे। उनका जन्मकाल विवादों के अंधकार में पड़ा हुआ है। कुछ उनका जन्म 1335 में, कुछ 1320 में और कुछ 1330 में मानते हैं परन्तु अधिकतर लोगों का मानना है कि उनका जन्म 1330 में हुआ। बच्चपन से ही वह धार्मिक स्वभाव की थीं तथा उन्हें एकांत में समय व्यतीत करना अच्छा लगता था।
कुछ लोगों का मानना है कि ललद्यद अनपढ़ थीं। परन्तु यह सत्य नहीं है क्योंकि उस समय जो शिक्षा दी जाती थी, वह उन्हें अपने कुलगुरु सिद्ध श्री कंठ उपनाम ‘सिद्ध मोल’ से मिली थी। अपने गुरु की शिक्षा को लल ने विशलेषणतापूर्वक न केवल समझ लिया अपितु अत्यंत गंभीरता और मनोयोग से आत्मसात भी कर लिया। उनके वाखों और उनकी वाणी को सुनकर यह कहना मूर्खता होगी कि ललद्यद अनपढ़ थीं।
अब अगर बात कश्मीर की प्रसिद्ध संत कवयित्री ललद्यद के वैवाहिक जीवन की करें तो यह कहा जा सकता है कि उनका विवाह अल्पायु में हुआ था। बारह वर्ष की आयु में उनका विवाह पदमानपुर (वर्तमान पाम्पोर) के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पति का नाम निक भट्ट था। ससुराल वालों ने उन्हें पदमावती नाम दिया। ससुराल ऐसा मिला, जहाँ दूर-दूर तक सुख-शान्ति का निर्वाह भी न था। अपरिचित परिवेश, कर्कषा और निष्ठुर सास की क्रूरता, निर्दय और कठोर पति की अवहेलना और सब से बढकर रूढ़ियों के बन्धन, बात-बात पर तानों का कसैला, यहाँ तक कि चरित्र पर शंकालु टिप्पणियाँ की जाती थीं परन्तु सहनशीलता, संयम और सत्कार के सहारे वह उनका सामना करती रही। कभी भी उनके विरुद्ध कुछ भी नहीं बोलती थी। उनकी सासु माँ के बारे में यह बात बहुत प्रचलित है कि वह लल्ला के खाने के बरतन में एक नीला पत्थर रखती थी, जिसे कश्मीरी में ‘निलवठ’ कहते हैं। ‘निल’ का अर्थ होता है- ‘नीला’ और ‘वठ’ का अर्थ होता है- ‘पत्थर’ अर्थात निलवठ। और उसी नीलवठ के ऊपर वह उसे थोड़ा-सा खाना बिखरा कर डाल देती थीं ताकि जब घर के अन्य सदस्य देखे तो उन्हें यह आभास होगा कि ललद्यद सबसे अधिक खाना खाती है परन्तु सत्य तो था कि वह कभी भी पेट भरकर खाना नहीं खाती थी। उसमें इतनी सहनशीलता थी कि वह यह सब अत्याचार किसी से कहे बिना सहती थी। यहाँ तक कि वह उस नीलवठ को अंत में धोकर उसी बरतन में रख देती थी। जब कभी वह अपनी व्यथा का बयान करती थी तो केवल काव्य के माध्यम से ही करती थी। जैसे- जब उसके ससुराल में अनेक तरह का खाना बनता था तो ललद्यद की सखियाँ उसे पूछती थीं कि आज क्या-क्या खाया तो वह काव्य के रूप में उन्हें उत्तर देती थी, जो उसकी सखियों की समझ से परे था-
होंड मार्यतन किन मार्यतन कठ
ललि नीलवठ चील न ज़ंह1
भेड़ कटे या कटे मेमना, लल से विदा न होगा पत्थर अर्थात् कितने भी पकवान क्यों न बने, लल्लद्यद के भाग्य में नीला पत्थर ही होता है।
लल्लद्यद को अपने पति से कभी भी प्रेम तथा स्नेह नहीं मिला। कहाँ जाता है कि उनके पति मानसिक रूप से संतुलित नहीं थे। एक बार ललद्यद पनघट से पानी ला रही थी तो उसके पति ने उसकी मटकी पर कंकर मारे, उसकी मटकी टूट गई और उसमें से पानी पदमावती के कन्धे पर गिरा और उसी पर जमा हुआ , जो कुछ बूँदें धरती पर गिरीं उससे एक तड़ाग बना, जो आज तक लल–त्राग के नाम से प्रसिद्ध है। इस घटना से न केवल लल का पति चकित रह गया अपितु उनके रहस्यमयी व्यकितत्व का जादू लोगों पर भी अंकित हो गया। इसके बाद ही लल्लद्यद ने अपना ससुराल त्याग दिया। अतः बारह साल तक ससुराल वालों के अत्याचार सहने के बाद अंत: उसने वहाँ से पलायन किया और वह अपना जीवन जंगलों में व्यतीत करने लगी। ईश्वर में तो वह पहले से लीन हो गई थी परन्तु ससुराल से निकलने के बाद वह पूर्ण रूप से ईश्वर में लिप्त हो गई। उसने आवरण भेद कर ब्रह्म और सत्य के स्त्रोत का अनवेषण अपना लक्ष्य बना लिया और यहीं से उसके जीवन की वास्तविक यात्रा आरंभ हुई।
लल्लद्यद एक ऐसी संत थीं, जिसके बारे में जितना भी सुना और कहा जाए वह हमें आश्चर्य में डाल देता है। जैसे- उन के संबंध में यह घटना भी बहुत प्रचलित है कि ससुराल से पलायन करने के बाद लल्लद्यद एक बार कहीं से जा रही थीं कि उनकी नज़र दूर से आ रहे हज़रत अमीर कबीर मीर सयिद अली हमदानी पर पड़ी और उन्हें देखकर लल्ला यहाँ-वहाँ खुद को छुपाने के लिए जगह तलाश कर रही थी। कहीं जगह नहीं मिली तो उसने अंगारों से भरी भट्टी में छलांग मार दी। आश्चर्य की बात यह थी कि वह वहाँ से जल-भुनकर नहीं अपितु एक सुन्दर वस्त्र पहनकर निकली। भट्टी में कूदने का कारण पूछने पर उसका कहना था कि मैंने अपने जीवन में पहली बार किसी सिद्ध पुरूष को देखा और उनके सामने में ऐसी अवस्था में कैसे जाती।
हज़रत शेख नूरुद्दीन वली, जिसे (नूरुद्दीन ऋषि या नून्द ऋषि भी कहते हैं) ललद्यद के विचारों, उनके वाखों से बहुत प्रभावित थे। उनके सम्बन्ध में एक लोक कथा यह भी बहुत प्रचलित है कि बच्चपन में नून्द ऋषि ने अपनी माँ का दूध पीने से मना किया तो लल्लद्यद के यह कहने पर कि ‘जब जन्म लेने से नहीं लज्जा आई तो दूध पीने में कैसी लज्जा’2 सुनकर ही उसने दूध पिया। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि लल्लद्यद ने उन्हें दूध पिलाया। उनका स्वयं लल्लद्यद के बारे में कहना था कि:
The lalla of padmanpur
she drank her fill of divine nectar
she was indeed an avtar of ours
oh God, grant me the self same boon”3
लल्ल द्यद को कई नामों से पुकारा जाता है। कोई उन्हें लल्लद्यद ,कोई लल्ला, कोई लल्ल आरिफ, कोई ल्ल्लेश्वरी, कोई लल्ल मोज के नाम से पुकारत है। पूर्ण रूप से अपना जीवन ईश्वर को समर्पित करने के बाद कश्मीर के विजबिहार में इनका निधन हुआ। इनके शरीर को फिर जलाया गया या दफनाया गया, इस बात पर मत भेद हैं। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि इनका शरीर ग़ायब हो गया और वह किसी को नहीं मिला।
कश्मीर में अभी भी जब किसी स्त्री की प्रशंसा करते है तो उसकी तुलना अधिकतर ललद्यद से करते हैं और वह स्त्री भी खुद को भाग्यशाली समझती है, जब उसका नाम ललद्यद के साथ जोड़ा जाता हैं। अत: कहा जा सकता है कि कश्मीरी संस्कृति तथा कश्मीर के लोगों के धार्मिक और सामाजिक विश्वासों के निर्माण में ल्लेश्वरी का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।
ललद्यद एक प्रसिद्ध भक्त कवियत्री थीं, जो कश्मीर कि शैव भक्ति परम्परा और कश्मीरी भाषा की पहली तथा अनमोल कड़ी रही हैं। इनकी काव्य शैली को वाख (vakh) या वतसुन (vatsun) कहा जाता है। लल ने बार-बार अपने वाखों में अपनी मान्यताओं की व्याख्या की है। उन्हें न मूर्ति-पूजा पर विश्वास था और न वह अन्धविश्वास पर श्रद्धा रखती थीं। वह पर्व और निरर्थक रीति-रिवाजों के विरुद्ध थीं। उसका सब से बड़ा शिव अर्थात ईश्वर की खोज थी और उसके बाद उसी में लय होने की उत्कंठा। वह साधना की उस अवस्था पर पहुंच चुकी थीं, जहाँ हिन्दू और मुस्लिम दोनों एक थे। उन्होंने विभिन्न जातियों को एक सूत्र में बांधने का भी प्रयास अपने वाखों के माध्यम से किया है।
1914 में माकंद राम शास्त्री ने पहली बार ललद्यद के वाखों को ऋषि धर्मदास से सुना और उन्हें इकट्ठा करके उसने उन वाखों को जॉर्ज ग्रियसन (George grierson) को दिया, जिसे उसने वाख्यानी नाम से प्रकाशित किया। इसके बाद रिचर्ड Temple, Anand kaul,Bamzali,Coleman barks,Ranjit, jaylal kaul तथा B.N porime ने भी ललद्यद के वाखों को प्रकाशित किया।
ललद्यद के वाख कश्मीरी भाषा में ही अधिक मिलते हैं परन्तु उनका अनुवाद अन्य कई भाषाओं में भी किया गया है। जैसे-
yiyikaru’msuyartsun
yiRasinivichoarumthimantar
yi hay lagamodhahasPartsun
suyParasivumtanthar 4
Whatever work I did, became worship of the lord, whatever word I uttered became aprayer,whatever this body of mine experienced became the sadhana of saivaTantra illumining my path to parmasiva.
ललद्यद ने अपने वाखों के माध्यम से ईश्वर को अपने भीतर टटोलने पर बल दिया है। उनका कहना था कि ईश्वर केवल हमें अपने भीतर अपनी आत्मा में ही प्राप्त हो सकता है। उनका कहना है–
शिव छुय थलि थलि रोज़ान
मंव जान हिन्दू त मुसलमान
त्रुक्य छुख त पनुन पान परजान
सुय छय सहिब्स ज़ानी ज़ान 5
अर्थात ईश्वर तो कण-कण में है। तेरे भीतर है, अगर उसे पाना ही है तो अपने भीतर से पा, बाहर अपना समय व्यर्थ मत कर।
क्यो छुख दिवान अनिने बछ
त्रुकय छुख त अंदरय अच
शिव छुय अत तय कुन मो गस
सहस कथि म्यानी करथो पछ 6
वह तेरे भीतर है उसे पहचान और उसमें ख़ुद को लिप्त कर।
असे प्वन्दे जवसे जामे
न्यथ स्नान करी तीर्थन
व्हर्य वरियस नोनुय आसे
निशि छुय त प्रजनातन 7
ललद्यद ने अपने वाखों के माध्यम से हिन्दू-मुस्लिम एकता, आपसी भाईचारे पर भी बल दिया है। उसका कहना था कि जब सूरज सब को रोशनी देता है, सब को मिलता है, इन सब में कोई भेदभाव नहीं तो तुम धर्म तथा जाति, ऊँच तथा नीच का भेद भाव क्यों करते हो। ईश्वर सब का एक ही है, जब ईश्वर ने किसी को नहीं बाँटा तो तुम मनुष्य कोन होते हो बाँटने वाले!
रव मत थलि थलि ता पीतन
ताप्य्तन व्वतम दीश
वरून मत लूक गर अच्यतन
शिव छुय कुठ तय चेन व्वपदीष 8
अर्थात-
थल-थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिन्दू-मुसलमान
ज्ञानी है तो स्वयं को जान
यही है साहिब से पहचान 9
केवल आपके अच्छे कार्य ही आपको इस संसार रूपी सागर से पार लगा सकते है। ईश्वर धर्म-जाति, अमीर-गरीब नहीं देखता, वह मनुष्य के कर्म ही देखते हैं–
कवल तय मवल कथ क्युथ छुय
तोत क्युथ छुय शांत स्वभाव
कयी हुंद आगुर वति क्युत छुय
अन्तिः क्युथ छुय ग्वर सुन्दर नाव 10
मायी हुंद प्रकाश न कुने
लायी हुंद तीर्थ न कांह
दयस हुंद बांधव न कुने
भयस हुंद स्वख न कांह 11
ललद्यद काल त्रिक दर्शन कि ज्ञाता थीं। उनके समीप अल्लाह और ईश्वर एक हैं। इसलिए वह कट्टर मुल्लाओं के भ्रमजाल के ताने-बाने काट कर मनोजगत में जीवन रहस्य का निर्देश देती हैं। पूजा, पाठ, मंदिर-मस्जिद, तीर्थ, खानकाह आदि धर्म के दिखावे मात्र हैं, इनसे ज्ञान और बोध के गन्तव्य शायद ही मिल सकें। ललद्यद का स्वयं यह कहना है कि मैंने भी ईश्वर को पाने के लिए व्यर्थ में कई प्रयत्न किए-
लल बो द्रायेस लोलरे
छानडान लुसुम दिन क्योह राथ
वुछुम पंडित पनानी गहरे
सुय मय रोट्मस न्यचतुर त साथ 12
रस्सी कच्चे धागे की,खींच रही में नाव
जाने कब सुन मेरी पुकार,करें देव भवसागर पार
पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे
जी में उठती रह – रह हूक,घर जाने की चाह है घेरे 13
परन्तु जब मेरे गुरु ने मुझे उपदेश दिया, कहा बाहर की दुनिया से मन की दुनिया में चली आओ, इसी उपदेश ने मेरी काया पलट दी और मैं उर्यान (निर्वस्त्र) होकर नाचने लगी। जब मैंने मोह-माया को पूर्ण रूप से त्याग दिया, तभी मुझे ईश्वर की प्राप्ति हुई।
म्थ्या कपट अस्य त्रिवुम
मनस कोरुम सुय व्वप्दीश
जनस अंदर कीवल ज़ोंम
अनस ख्य्नस कुस छुम द्विश 15
ईश्वर को अंत में मैंने अपने भीतर ही पाया और मोह-माया, ऊँच-नीच को त्यागकर में उनमें मिल गई। हठयोग के माध्यम से उस ईश्वर को पा लिया और मेरा जीवन सफ़ल हो गया।
शिव त शक्ति कत्यो डीठम
तिमव रटम कायस जाय
डायस दरी-स्य स्नुन मयुठुस
तीलिय रुज्स त्राकिविथ लर 16
आश्चर्य की बात है कि इनकी अन्तिम विश्रामस्थली पर न कोई समाधि निर्मित हुई और न कोई मकबरा। लल एक जीवन्त और अमर सत्य है और कश्मीर को इन के मंगलदायक व्यकितत्व का सदा गर्व रहेगा। अत: “ललद्यद अपने पीछे कोई चिह्न छोड़े बिना स्वर्ग वासी हो गई।”17
संदर्भ-
1. प्रो. जय लाल कोल, लल्ल द्यद , पृ. -331
2. Hindi wikipedia .org, ल्ल्लेश्वरी , 7 feb 2017
3. Wikipedia.org
4. ल्ल्लेश्वरी, मुत ज्ञान कोश विकिपीडिया,15 july 2017
5. जवाहार लाल बट्ट, लल्लद्यद पृ.159
6. जवाहार लाल बट्ट,लल्लद्यद पृ.116
7. वही पृ. 205
8. वही पृ.219
9. Hindi Wikipedia.org, लल्लेश्वरी, 7 feb 2017
10. वही पृ.261
11. वही पृ.291
12. वही पृ. 208
13. Hindi विकिपीडिया.org, लल्लेश्वर, 7 feb 2017
14. वही पृ- 253
15. वही पृ- 59
16. वही पृ.- 275
17. कश्मीर कुछ सांस्कृतिक पहलू, डॉ .ब्रिज प्रेमी पृ.- 63
– सलमा असलम