कविता से संवाद
इस अंक से ‘कविता से संवाद’ स्तम्भ प्रारम्भ किया जा रहा है। जिसमें सुप्रसिद्ध कवि एवं आलोचक रवींद्र के दास जी, कविता के विविध आयामों पर चर्चा करेंगे। मित्रों से विनम्र अनुरोध है कि वे कविता से जुड़ी जिज्ञासाओं को प्रतिक्रिया पेटी में लिख दें या पत्रिका के आई.डी.पर प्रेषित करें। -संपादक
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लिखने का कारण: रवीन्द्र के दास
बहुत मौजू और ज़रूरी सवाल है जिसका जवाब हर उस रचनाकार के पास अवश्य होना चाहिए जो सचेतन लेखन करता है। मैं तो बार-बार आगाह करता रहता हूँ कि इस सवाल का जवाब, भले ही पब्लिक न करें पर हर रचनाकार अपने को समझने के लिए ख़ुद को ही दे ज़रूर। लिखना, शब्द व्यापार है और शब्द श्रवण से जुड़ा है। हम जो लिखते या बोलते हैं या ख़ुद पढ़ते/सुनते भी हैं, हम स्वयं ही अपने पाठक/श्रोता भी हैं। इसी पाठ अथवा श्रवण से यह प्रश्न आपके सामने ख़ुद-ब-ख़ुद कौंधता है कि मैं लिखता/लिखती क्यों हूँ? बहुधा लोग इससे बचते हैं। इस बचाव का कारण मुख्यतः यह होता है कि वे लेखन के मद्देनज़र ‘परमुखापेक्षी’ होते हैं। वे सोचते हैं कि यदि [सुधी] पाठकों ने सराह दिया तो मेरे लिखने का प्रयोजन पूरा हुआ और इस प्रयोजन को सिद्ध करना ही उनके मन में लिखने का कारण बनकर ठहर जाता है। किन्तु ये एक झूठ है। झूठ इस अर्थ में कि वे स्वयं इस उत्तर में शामिल नहीं होते। यह आत्म-भीति का प्रसंग है।
पहले यहाँ मैं यह बता देना चाहता हूँ कि मैं किसी के भी लिखने का क्या कारण मानता हूँ: सर्जनात्मक प्रतिक्रिया को कला कहते हैं। सत्य आदर्श है, जिसे हम चाहते हैं… जिसका मूर्त रूप हम देखना चाहते हैं, पर वह हमें कभी दिखता नहीं। हमें जब दिखता है यानि हमारा साक्षात्कार हमेशा तथ्य से होता है। तथ्य क्या है? तथ्य और कुछ नहीं, बल्कि वास्तविकता है। सत्य हमें प्रिय है और तथ्य हमारी विवशता है। सत्य को नहीं छोड़ते, प्रेम के कारण और तथ्य हमें नहीं छोड़ता। इन दोनों में अनवरत एक संघर्ष चलता रहता है, एक द्वंद्व मचा रहता है। इस द्वंद्व का, इस संघर्ष का अधिष्ठान कहाँ होता है, जहाँ ये युद्ध होते हैं? वह स्थान है, हमारा मन, अंतःकरण। व्यक्ति मन जब अपने आसपास की वास्तविकता से, अपनी यथार्थ परिस्थितियों से असहमत होता है, इसलिए असंतुष्ट होता है तो वह प्रतिक्रिया करता है, प्रतिक्रिया में वह विद्रोह कर बैठता है। इन प्रतिक्रियाओं में, लेकिन एक सिसृक्षा भी अंतर्व्याप्त रहती है। इस कोटि की प्रतिक्रिया सहज प्रतिक्रिया नहीं होती, जैसा कि मच्छर काटने पर व्यक्ति करता है, बल्कि यह एक विशेष प्रकार की सृजनात्मक प्रतिक्रिया होती है। इसी सृजनात्मक प्रतिक्रिया को कला कहते हैं। कला प्रतिक्रिया है, इससे असहमत नहीं हुआ जा सकता। लेकिन प्रतिक्रियाओं की कतिपय सरणियाँ हैं- सहज और सुनियोजित। सुनियोजित प्रतिक्रिया की भी दो कोटियाँ हैं- सृजनात्मक और विध्वंसात्मक। विध्वंसात्मक सुनियोजित प्रतिक्रिया ही षड़यंत्र कहलाती है और सृजनात्मक कला। इन्हें सृजनात्मक और विध्वंसात्मक होना इस बात पर निर्भर करता है कि इनका उद्देश्य क्या है? किन्तु सुनियोजित प्रतिक्रियाएँ हमारे आसपास की वास्तविकता और हमारे अन्दर के मूल्य बोध के परस्पर द्वंद्व से उत्पन्न होती हैं और ये प्रतिक्रियाएं अनिवार्य हैं, इन्हें रोका भी नहीं जा सकता।
मैं लेखन में मुख्यतः कविता और कविता-आलोचना से जुड़ा हूँ इसलिए मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि “कविता को लेकर यह धारणा की जाती रही है कि कविता मनुष्यता का स्वाभाविक लक्षण है। किन्तु जब हम कविता पर विचार करने लगते हैं तो कविता इस ‘स्वाभाविक कविता’ से किंचित भिन्न नज़र आती है। इसमें भाषा-प्रयोग, अभिव्यक्ति-शैली, सम्प्रेषण-योग्यता, विचार तत्त्व आदि अनेक पक्ष महत्त्वपूर्ण हो उठते हैं। अब, देखना यह है कि कविता करने वालों के लिए जो ‘स्थिति’ कविता है, क्या वही ‘स्थिति’ कविता के पाठक-श्रोता के लिए भी कविता है? या दोनों के लिए कविता भिन्न भिन्न ‘स्थितियां’ है? इसके अतिरिक्त, कवि ‘अ’ के लिए जो स्थिति कविता है, क्या कवि ‘ब’ या कवि ‘स’ अथवा अन्य कवियों के लिए वही स्थिति कविता है या इनमें भिन्नता है? प्रारम्भिक रूप से उत्तर दिया जा सकता है कि भिन्नता है और उन भिन्नताओं को नोट भी किया जा सकता है। तो फिर इन भिन्न स्थितियों में वह ‘सामान्य तत्त्व’ क्या है, जो इन्हें एक संज्ञा ‘कविता’ के अंतर्गत ले आता है?”
किन्तु मेरे लिखने का जो कारण है वो कुछ ऐसा है,
क्षण और क्षण के बीच भी अंतराल होता है। उस अंतराल को भी क्षण ही कहना होगा और इस तरह अंतराल को खोजते-खोजते हम एक तार्किक अनवस्था को प्राप्त होते हैं और निरुत्तर और अप्रतिभ हो उठते हैं। इस तार्किक नैराश्य और विवशता के विषण्ण क्षणों में काव्य का उदय होता है और संवेग का लास्य इस अंतराल को ढक देता है। हम दार्शनिकता का तिरस्कार कर कवि होने लगते हैं। कवि होना सहज नहीं, प्रत्युत एक विवशता है। दर्शन सभ्यता और संस्कृति को ढांचा और आकार देता है, और कविता तन्यता और चिकनापन देती है। दर्शन ज्ञान की परम्परा है और कविता ज्ञान का संवेगात्मक विराम। धर्मवेत्ता लोग ज्ञानमूलक दर्शन से सत्य के स्वरूप को आच्छादित करते हैं, कवि लोग कविता के माध्यम से सत्य को अनावृत्त करते हैं। दर्शन और दार्शनिकता साधारण जन को भयभीत कर अपना स्थान बनाती है। कविता और साहित्य साधारण जन के रोजमर्रा में अपना स्थान बनाते हैं। असंबद्ध को संबद्ध करने की क्षमता सिर्फ और सिर्फ प्रेम में है जो कविता का सनातन अवलंब है। मैं दार्शनिक हूँ। मैं कवि होने का अभिलाषी हूँ। मैं क्षण और क्षण के बीच के अंतराल को समझना चाहता हूँ। कविता बनकर समझाना भी चाहता हूँ।
यहाँ मैं यह भी निवेदन करना चाहता हूँ, साहित्यिक कृतियों को जैसे ही पण्य वस्तु बनाकर उसका मूल्यांकन होगा, उसमें से उसकी ‘आत्मा’ गायब होगी। कहीं से भी आत्मा गायब होगी, हमारी पहचान शरीर है आत्मा नहीं। फिर उसका प्रोडक्शन होगा…कम्पीटीशन होगा। मेरी एक कविता…छोटी सी कविता.. मैंने पोस्ट किया.. दस बारह लोगों ने पसन्द किया.. उसी कविता को किसी स्त्री ने पोस्ट किया..यहीं फेसबुक पर लगभग सौ लोगों ने पसन्द किया… चीज वहीं पर बेचने वाले के बदलने से ग्राहकी बढ गई…कविता कहीं रह गई। ऐसे में सिर्फ़ उन्हीं बातों का ख्याल रखा जाएगा..साहित्य में भी..जो बिके। तभी तो बुकर प्राइज़ पाने वाले प्रतिष्ठित कहे जाते हैं, क्योंकि उनकी किताब ‘बिकी’ बहुत है। गुणवत्ता बिकने के आधार पर तय होती है।
अंत में, मैं यह भी कहना चाहता हूँ साहित्य लेखन के पीछे जो मेरी मनःस्थिति रहती है वो एक आशावादिता है। मैं अपनी बातें ‘स्थाई’ रूप से संप्रेषित कर रहा हूँ। मेरी कोई बात जो मैं ज़माने से कहना चाह रहा हूँ और ज़माना उसे अभी नहीं सुन रहा है वो बाद में, एक समय के गुजर जाने के बाद भी सुन सकेगा और ज़रूरत भर समझ भी लेगा। भवभूति के शब्द में कहें तो, “कालो अयं निरवधिः विपुला च पृथिवी।”
– रवीन्द्र के दास