ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
जो होना था हुआ, सर को दुखाने से भी क्या होगा
न जो दुख-दर्द में आया, बुलाने से भी क्या होगा
उजाले ही अँधेरों को जहाँ सैल्यूट करते हों
वहाँ उम्मीद के दीये जलाने से भी क्या होगा
जहाँ हमदर्द ही ज़ख़्मों को रह-रहकर खुरचते हों
वहाँ मलहम के अफ़साने सुनाने से भी क्या होगा
बता दे मुझको तू इतना ख़मोशी सौ ज़ुबां-सी जब
वहाँ पर चीख चिल्लाकर बताने से भी क्या होगा
ज़रा-सा हँसता हूँ मैं तो भी वो आँसू बहाता है
भला कम्बख़्त को रोकर रुलाने से भी क्या होगा
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ग़ज़ल-
ये जो काले मेघ मंडराने लगे हैं
सर ज़मीन-ए-हिंद पर छाने लगे हैं
सर के बल हमको खड़ा करके सियासी
लो नया आकाश दिखलाने लगे हैं
बाजुओं को आप भी झकझोर लेना
आस्तीं के सांप मंडराने लगे हैं
वो यक़ीनन मुल्क के ग़द्दार हैं जो
ग़ैर के परचम को लहराने लगे हैं
हो रही उन घर-दुकानों में ही चोरी
जिन दरो-दीवार से थाने लगे हैं
दिन की पाकर सरपरस्ती अब अँधेरे
रात के साये से कतराने लगे हैं
अब नयी तालीम को पाकर सयाने
ईलू-ईलू कर के चिल्लाने लगे हैं
– रवि खण्डेलवाल