हाइकु
हाइकु
सिमट गया
मोबइल में प्यार
पिता-पुत्र का।
मेट्रो शहर
सरपट दौड़ता
खोया इंसान।
पाषाण खंड
ऊँचे ही ऊँचे उठे
छिपा आकाश।
फूल से रिश्ते
विद्वेष के काँटों से
छलनी हुए।
याद सताए
बेटे का नाम पिता
लिखे-निहारे।
बैठा था श्वान
मालिक की याद में
रोटी को छोड़।
छलनी हाथ
पाँव फटी बिवाई
नन्ही-सी जान।
झाड़ू लगाती
नन्ही-सी गुलबिया
मुरझा रही।
पिता का पत्र
आशीषों की वर्षा से
भीगा था सारा।
काँपते हाथ
ढूँढ हारे सहारा
खोई बैसाखी।
– पुष्पा मेहरा
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