आलेख
ब्रज भाषा साहित्य, उद्गम और विकास: प्रियंका
भारतवर्ष एक देश-विशेष होकर भी अनेक साधकों और विचारकों की दृष्टि में समग्र मानवता की मातृभूमि है। जिस ममता के अद्वैत ने उसे सार्वदेशिक बनने की शक्ति प्रदान की है उसने उसके अन्तर्गत भौगोलिक खण्डांे को साहित्य, भाषा अथवा साधना के क्षेत्र में अविनाभाव से सम्बद्ध कर रखा है। ब्रज क्षेत्र की भाषा को ही ब्रजभाषा कहा जाए। क्षेत्र और भाषा समव्यापी नहीं होते। भाषा का क्षेत्र बहुत व्यापक हो सकता है तो कभी बहुत संकुचित भी। ब्रजभाषा का क्षेत्र भी ‘ब्रजभूमि’ की सीमा से बहुत अधिक है। ब्रजभाषा के कई नाम मिलते हैं, भाषा या भाखा, पिंगल, मध्यदेसी, ग्वालियरी, अन्तर्वेदी। इस भाषा को ब्रजभाषा 1644 में ‘गोपाल’ नामक कवि ने ‘रस-विलास’ नामक ग्रंथ में कहा था। अभी तक ब्रजभाषा शब्द का सबसे प्राचीन प्रयोग यहीं मिलता है। भाषा या भाखा ही इसका सामान्य नाम था और 14वीं-16वीं शती में प्रायः सभी क्षेत्रीय भाषाएँ ‘भाषा’ या ‘भाखा’ ही कही जाती थीं। इसके पिंगल नाम राजस्थान में, ग्वालियरी ग्वालियर के ऐश्वर्य काल में प्रचलित हुआ। ग्वालियर के तोमर शासक काव्य संगीत कला के प्रतिपालक थे। अतः ब्रजभाषा कोमल भावों की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम आरंभ से बनी रही। संगीत के क्षेत्र में ब्रज का अपना अमूल्य सहयोग रहा जो कि भक्तिकाल में विशेष रुप से देखने को मिलता है। ‘काव्यभाषा पिंगल अथवा पुरानी ब्रजभाषा का साहित्य अत्यन्त परिष्कृत और शुद्ध भाषा में है क्योंकि इनके पीछे एक लम्बी परम्परा थी यह भाषा काफी सशक्त रूप ग्रहण कर चुकी थी।’1
यह ब्रजभाषा समस्त मध्यप्रदेश की साहित्यिक भाषा 16वीं शताब्दी तक बन चुकी थी। यह शौरसेनी अपभ्रंश की स्थानापन्न भाषा है। ब्रजभाषा का आरंभ अन्य देशी भाषाओं के साथ, सातवीं से दसवीं शती के बीच हुआ था। जिसका प्रारंभ सिद्धों से माना जा सकता है। प्रथम सिद्ध सरहपा की भाषा में इसकी झलक मिलती है।
जीवन्तह जौ नउ जरइ
सो अजरामर होइ।
गुरु उवएसे विमल मइ
सौ पर धण्णा कोई।2
यह परम्परा यहाँ से चलती हुई 11वीं-12वीं शती में जब पहुँची तो अपना रुप और भी स्पष्ट कर लेती है। देवसेन और हेमचन्द आदि कवियों ने इसे आगे बढ़ाया। विद्यापति की ‘कीर्तिलता’ की भाषा की प्रवृत्ति भी ब्रजभाषा की प्रवृत्ति के अनुकूल है। बहुत से विद्वानों ने 1516 की कवि दामोदर द्वारा रचित ‘‘लखमसेन पदमावती कथा’ को ब्रजभाषा प्रथम कथा काव्य माना है। ब्रजभाषा से इस आयुग में संगीत की भी पूरी प्रतिष्ठा रही। पदरचना की परंपरा सिद्धों नाथों से होती हुई, निर्गुणिये संतों तक आयी संतों के उद्भवकाल के निकट ही विष्णुदास हुए थे। इनका रचनाकाल सं. 1492 माना गया। इन्होंने राग-रागनियों में पद लिखे जो कि इनके ‘रुक्मिणी परिणय’ में देखने को मिलते हैं। साथ ही इन्होंने विष्णुपद भी लिखे। इस 15वीं शती में ग्वालियर के तोमरों की राजसभा में संगीत का विशेष स्थान रहा। इस संगीत सभा की महत्वपूर्ण देन रही। ध्रुपद की गायकी। बख्शू और बैजू नामों में विद्वानों में मतभेद रहा यदि बख्शू और बैजू एक ही व्यक्ति है तो इस सभा के महान संगीतज्ञ बैजू ही थे।
ब्रजभाषा साहित्य के आदिकाल में ‘दोहाबंध’ को पहला स्थान दिया जाना चाहिए। इस दोहे परंपरा में ब्रज के प्राचीन रुप ढलते दिखाई पड़ते हैं। इस दृष्टि से प्रथम नाम सरहपा कवि का आता है, उनके एक ग्रंथ का ही नाम ‘दोहा कोष’ है। आदिकालीन ब्रजभाषा साहित्य में जैन कवियों की रचनाओं में ब्रजभाषा का बाहुल्य मिलता है।
भक्तिकाल में कृष्ण ‘भक्त कवियों में ब्रजभाषा के पूर्ण रुप से दर्शन होते हैं। सूरदास ने ‘सूरसागर’के पदों की रचना अधिकांश अपने ठाकुर के कीर्तन के लिए की है। उन्हें उनके गुरु आचार्य बल्लभ महाप्रभु ने गोवर्द्धन के श्रीनाथ मंदिर में कीर्तनियाँ नियुक्त किया था और सूरदास पिफर उसी में रमते चले गए। जिस युग में सूरदास हुए उस युग में राग-रागनियों का एक विशिष्ट स्वरूप खड़ा हो गया था। ये राग-रागनियाँ सिद्धियाँ थीं। परमानंद दास, कृष्णदास, नंददास आदि कृष्णभक्त कवियों ने कृष्ण की आराधना कृष्ण भूमि ब्रज में रहकर ब्रजभाषा में की। तुलसीदास ने भी गीतावली, कृष्णगीतावली, कवितावली आदि की रचना ब्रज भाषा में की। कहा जा सकता है कि भक्तिकालीन प्रत्येक संप्रदाय ब्रजभाषा से अछूता न रह सका। राधावल्लभी संप्रदाय में भी ब्रज का ही सवोत्तम स्थान था।
ब्रजभाषा की एक महान काव्यधारा ‘रीति काव्यधारा’ भी है। रीतिकाल के कवियों का ब्रज-साहित्य में एक विशेष स्थान है। केशवदास को ब्रजभाषा में रीतिकाव्य की आचार्य प्रणाली का प्रवर्तक माना जा सकता है। रसलीन ने अपनी कृति अंगदर्पण जो कि 180 दोहों में नखशिख का ग्रंथ है। इसकी रचना इन्होंने ब्रजभाषा सीखने के लिए की थी।
ब्रजबानी सीखन रची, यह रसलीन रसाल
गुन सुबरन नग अरथ लहि, हिय धरियों ज्यौंमाल।
‘‘आज भी शास्त्रीय संगीत जानने वाले कलाकार ब्रजभाषा के पदों का गायन ही उचित समझते हैं और प्राचीन चित्रकला में चित्रित विभिन्न नायक नायिकाओं की मुद्रा और भाव भंगिमाओं तथा विभिन्न राग रागनियों के स्वरुप का सजीव वर्णन ब्रजभाषा कविता के माध्यम से ही सुलभ है।’’3
ब्रजभाषा में कथा काव्य का आरंभ 13वीं शताब्दी से माना जा सकता है। कथाकाव्य की उस समय कई विधाएँ चल रही थीं। एक जैन परंपरा यह परंपरा वस्तुतः चरित काव्य की परंपरा थी। भरतेश्वर बाहुबली रास इसी परंपरा से संबंधित है। ब्रजभाषा में नेवाज कृत-शकुंलता नाटक, हृदयराम कृत-हनुमन्नाटक, लच्छीराम कृत-ज्ञानानंद, गिरधरदास कृत नहुष नाटक आदि विशेष उल्लेखनीय है। आत्मकथा के क्षेत्र में हिन्दी की प्रथम आत्मकथा कही जाने वाली अर्द्धकथानक बनारसीदास कृत, ब्रजभाषा में है। वार्ता साहित्य में चैरासी वैष्णवन की वार्ता तथा दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता दोनों ग्रंथ गोस्वामी विट्ठलनाथ जी कृत है। इनमें महाप्रभु वल्लभाचार्य तथा गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्यों का वर्णन है। यह वर्णन ब्रजभाषा में ही है। ‘‘हिन्दी साहित्य के लब्ध प्रतिष्ठ विद्वान डाॅक्टर धीरेन्द्र वर्मा जी का प्रबन्ध ‘ब्रजभाषा’ अत्यन्त प्रसिद्ध है। मूलग्रंथ फ्रेंच भाषा में लिखा गया था और पेरिस विश्वविद्यालय से उस पर डि.लिट्. की उपाधि मिली। हिन्दी में ‘ब्रजभाषा’ उसका परिवर्धित रुप है। ब्रजभाषा पर यह मौलिक ग्रंथ है। लेखक ने हिन्दी की अन्य विभाषाओं से उदाहरण देकर ब्रजभाषा का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है एवं कन्नौजी को ब्रजभाषा का पूर्वी और बुंदेली को ब्रज का दक्षिणी रुप निश्चित किया है।’’4
ब्रजभाषा का आधुनिक युग सं. 1860 से आरंभ माना जाना चाहिए। भारतेन्दु जी ने खड़ी बोली में काव्य रचना का प्रयत्न किया, पर उनका निष्कर्ष यही था कि काव्य भाषा ब्रज ही हो सकती है किन्तु आगे प्रसाद जी ने कविता पहले ब्रजभाषा में लिखी थी, वह बाद में खड़ी बोली में रूपांतरित कर दी गई। आधुनिक युग के आरंभ में प्रत्येक कवि की यही मनोदशा थी। मैथिलीशरण गुप्त ने भी कुछ काव्य रचना ब्रज-भाषा में की थी। ब्रज के अनन्य कवियों ने गुहार भी मचाई पर ब्रजभाषा की वह गुहार उस रुप में तो नहीं सुनी जा सकी, पर ब्रजभाषा जीवित भाषा है अतः उसमें काव्य रचना का कर्म कभी भी समाप्त नहीं हुआ। ब्रजभाषा में काव्य रचना की परंपरा निरंतर बनी रही। भारतेन्दु युग में ब्रजभाषा काव्य की प्रतिष्ठा के लिए समस्या पूर्तियों की प्रबलता रही। ‘‘ब्रजभाषा काव्य परंपरा इस प्रकार जीती-जागती चल रही है, यह हमारे वर्तमान कवि सम्मेलनों में देखा जा सकता है।’’5
ब्रजभाषा की उकार और ओकार बहुला प्रवृत्ति भी उसकी मधुरता बढ़ाने में सहायक रही है। उदाहरण के लिए ‘सांवला’ और ‘उदित’ की अपेक्षा ‘सांवरो’ और ‘उदितु’ निश्चय ही अधिक मधुर है। कुछ शब्दों के अन्त में कभी एक आकारान्त अक्षर जोड़ देने अथवा अन्तिम अक्षर को आकारान्त कर देने की प्रवृत्ति भी ब्रजभाषा में देखी जाती है।
अतः ब्रजभाषा अपने माधुर्य से आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक हिन्दी साहित्य जगत को और भी अधिक चमत्कृत करती चली आ रही है।
संदर्भ-
1. सूर-पूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य, डाॅ. शिवप्रसाद सिंह, हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी, द्वितीय संस्करण, 1964, पृ. 9
2. हिन्दी साहित्य का आदिकाल, डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004, पृ. 16
3. आधुनिक ब्रजभाषा काव्य, डाॅ. जगदीश वाजपेयी, अनुपम प्रकाशन, मुजफ्फरनगर, प्रथम संस्करण 1964, पृ. 15
4. हिन्दी भाषा और साहित्य को आर्यसमाज की देन, डाॅ. लक्ष्मीनारायण गुप्त, लखनऊ विश्वविद्यालय, प्रथम संस्करण 1900, पृ. 224
5. हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचन्द्र शुक्ल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2007, पृ. 216
– प्रियंका