यात्रा-वृत्तान्त
सूर्यनगरी: जोधपुर
दोस्तो! इस बार आपको मेरे साथ रंगीले राजस्थान लिये चलती हूँ तो तैयार हो जाइये फिर देर कैसी!
अपना सफ़र गुड़गाँव, हरियाणा नेशनल हाइवे- आठ से शुरू करते हैं, कार से और मुझे मानेसर, भिवाडी मानेसर, कोठपुतली होते हुए लगभग 100-110 किलोमीटर प्रति घंटा की ऐवरेज से साढे तीन घंटे लगे जयपुर पहुँचने में।
जयपुर और आसपास बाद में घुमाऊँगी…सबसे पहले सीधा सूर्यनगरी यानी जोधपुर ले चलती हूँ और वहाँ से आगे हम जैसलमेर चलेंगे। जोधपुर के लिये दिल्ली से विमान व्यवस्था भी है पर मेरा सफर घुमक्कड़ी है सो सड़कें ही दोस्त हैं। गुडगाँव से सुबह पाँच बजे निकलकर जनवरी के समय रुकते-रुकाते, खाते-पीते जयपुर से ब्यावर होते हुए बिलाड़ा वाया अजमेर बाईपास होते लगभग दस से बारह घंटे।
चेतावनी:- सबसे पहले ये बता दूँ कि यदि आप पहले से नेट के जरिये बुकिंग करते हैं तो गलती से भी राजस्थान टूरिज्म का ‘घूमर’ और ट्रेवल बुक वाली ‘हवेली’ न बुक करें। मूड खराब, सफर खराब होगा। बेहतर है कि थोड़ा उजाले में पहुँचे, दो-तीन जगहें देखें और बेस्ट वन में स्टे करें।
हम थोड़ा-सा बाहर ‘बिजोलाई पैलेस’ में रुके थे, वो स्वयं में दर्शनीय-सा है।
जोधपुर राजस्थान का दूसरा सबसे बड़ा नगर, इसे राजस्थान का दूसरा ‘महानगर’ भी कहते हैं। जोधपुर थार के रेगिस्तान के बीच अपने ढेरों शानदार महलों, दुर्गों और मन्दिरों वाला प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है, कहते हैं समुद्र तल से काफी ऊँचाई पर होने के कारण यहाँ सूर्य सबसे पहले किरणें बिखेरता है तभी इसे ‘सूर्यनगरी’ भी कहते हैं।
यहाँ का मेहरानगढ़ दुर्ग ज्वालामुखी के ठंडे लावे की चट्टानों पर बनाया गया है और यहाँ हजारों नीले मकानों के कारण इसे ‘नीली नगरी’ के नाम से भी जाना जाता है। एक विशेष बात जो आपको सिर्फ़ मेरे जरिये मिलेगी- नीले पुते मकानों का सत्य।
यहाँ शहर में राजा के शासन काल में नीले मकान पोतने की अनुमति सिर्फ़ ब्राह्मणों को थी यानि दुर्ग से देखने पर राजा जान जाते कि उनके मंडल के ब्राह्मणों के घर कितने हैं। शनैः शनैः जातिवादी प्रथा बंद हो गयी और अब हर जाति के घर नीले रंग के।
वर्ष 2014 के विश्व के अतिविशेष आवास स्थानों (मोस्ट एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी प्लेसेज़ ऑफ़ द वर्ल्ड) की सूची में प्रथम स्थान मिला है जोधपुर को।
यहाँ देखने को बहुत कुछ है दोस्तो! यहाँ की शान मेहरानगढ़ किला, मंड़ोल गार्डन, जसवंत थड़ा, उम्मेद भवन पैलेस आदि।
पन्द्रहवीं शताब्दी का बना विशालकाय मेहरानगढ़ दुर्ग देखते ही बनता है। यह राजस्थान के सबसे खूबसूरत किलों में से एक है। घुमावदार सड़कों से जुड़े इसके चार द्वार हैं। पथरीली चट्टान पहाड़ी पर मैदान से 125 मीटर ऊंचाई पर विद्यमान है। किले के अंदर कई भव्य महल, अद्भुत नक्काशीदार किवाड़, जालीदार खिड़कियाँ और रंगबिरंगे काँचों के झरोखे हैं। मोती महल, फूल महल, शीश महल, सिलेह खाना, दौलत खाना, सुख महल आदि। इन महलों में भारतीय राजवंशों के साज-सामान का विस्मयकारी संग्रह निहित है।
इस किले के सौंदर्य को श्रृंखलाबद्ध रूप से बने द्वार और भी बढ़ाते हैं। इन्हीं द्वारों में से एक है- जयपोल। इसका निर्माण राजा मानसिंह ने 1806 ईसवीं में करवाया था। दूसरे का नाम है- विजयद्वार। इसका निर्माण राजा अजीत सिंह ने मुगलों पर विजय के उपलक्ष्य में किया था। किले के अंदर में भी पर्यटकों के लिये आलीशान दुर्ग का नक्शा एक शिला पर भी बना है और पत्थर के ही पीढे़ लगे यहाँ बैठने को। हम वहाँ बैठकर आपस में किले में अपना अपना हिस्सा बाँटने लगे और तभी नजर गयी दो फिरंगी हम लोगों की शरारतों को कैमरे में हँसते हुये कैद कर रहे थे । भीतर प्रवेश करते जाते तो भव्यता आँखें चौंधा रही थी।
वजनी नगाडे़, पीतल के बड़े ढेगचे और चलते हुए भान हुआ कि इसी पर हम साथ-साथ हैं फिल्म के गाने…”म्हारे हिवडा़ में नाचे मोर “को फिल्माया गया है। यहाँ एक शानदार आर्मरी है, जिसमें अनगिनत तरह के ढा़ल, बरछी, भाले, बंदूकें, तलवार, गुप्ती और बारूद के पात्र दिखे। तोपें दुर्ग की छत पर सुसज्जित हैं। अपना पसंदीदा कार्य यहाँ भी किया। केयरटेकर रंगीन पगड़ीदार दद्दूओं संग भी फोटू खींचे। मेरे लिये उत्साह भरा रहा महावीर महाराणा प्रताप का लोहे का कवच टनों वजनी देखना और ये अंदाज़ा करना कि इसे पहनने वाले राणा जी कितने ताकतवर लंबे, चौढ़े, गठीले योद्धा होंगे। यही नहीं टीपू सुल्तान की तलवार भी यहाँ संरक्षित है। सच! वो दौर जीवंत-सा होने लगा। भिन्न प्रकोष्ठों में राजसी आन-बान-शान के सारे टीमटाम- रानियों के राजसी स्वर्ण, रतन जड़ित वस्त्र, चूड़े हाथी दाँत के, ड्रेसिंग टेबलें, पंखे, झूले, कंघे और डबल बेड, संगीत यंत्र, खेल के सामान टाइमपास को।
संगीत कक्ष, राजस्थान के हर इलाके के वाद्ययंत्र, राजसी छत्र चाँदी के, डोली, पालकी, बग्घियाँ आदि। लड़ाकाओं की पोशाकें। मनोरंजन कक्ष, भोजन कक्ष व सामान, बर्तन भांडे आदि और विशेष ज्योतिष कक्ष, ग्रह नक्षत्रों की चाल व दिशा देखने के उस समय के पाषाण व विभिन्न यंत्र।
और छत पर जाते ही तोपें सजी हुईं और किले की दीवार पर गोल-मोटे वजनी पत्थरों की लाइन मतलब मुख्य द्वार पर घुसपैठिये तो फूटे ही फूटे। यहाँ से पूरा जोधपुर दिखता है नीला और पीला पथरीला। दूर एक तरफ निगाह गयी, कुछ मंदिर इकट्ठे तो पता लगा वो सब जैन मंदिर हैं। उदार राजा ने उनको जगह दे रखी। ऊपर सुंदर रंग-बिरंगे काँचों भरा दीवान ख़ाना यानि दरबार, देखने वाली मनोहारी छटा।
नीचे के प्रांगण में मुझे मेरी पसंदीदा जगह मिल गयी थी। बहुत ही प्यारी आर्ट गैलरी। सब फोटू खिंचवाने लगे और मैं लपक ली गैलरी में। वहाँ नये चित्रकारों की कला प्रदर्शिनी थी। मेरे साथ कई फिरंगी भी थे भीतर। जी भर के पेंटिंग्स के जायज़े, टैक्स्चर, थीम देखीं….मज़ा आ गया था। बाहर निकली तो सब वहीं इंतज़ार कर रहे थे। पैदल निकल पड़े। बाहर आई तो कानों मे सुर गया- केसरिया बालम आवोSSS जी, पधारो म्हारे देश रे और ये क्या सामने वो बूढ़े बाबा इकतारा लिये जिनको गूगल सर्च में कइयों दफ़ा देखा है बस फिर उनके आजू-बाजू लगा लिये मजमा और वो बाबा भी मस्त ख़ुश हो और तगड़ा सुर लगा लिये। यहाँ उनके हँसते मगर वृद्ध थके चेहरे की तस्वीरें लेते मैं। मेरा मन ढीला हो आया कि क्यूँ कदर नहीं हमारे देश में लोक संगीत की जितनी होनी चाहिये और कलाकारों को हुनर पेट के अंटे मिटाने को क्यूँ रूलना पड़ रहा है! ख़ैर दिल नहीं था दद्दू के पास से आने को; पर अगला पड़ाव लेना था सो उन्हें टिप नहीं, उनके हमारे जैसे आम लोगों के साथ तस्वीर खिंचवाने का मेहनताना देकर हम निकल पड़े। वो चेहरा आज भी तैरता है निगाहों में और वो सुरीली तान….वल्लाह!
भूख लगी थी तो पता था कोई ‘जनता स्वीट्स’ है रेलवे स्टेशन के पास; बस लपक लिये वहाँ। मावा कचौड़ी, प्याज कचौड़ी, मिर्ची बड़ा, जलेबी और बहुत कुछ खाया दबा के, छिक गये तृप्त एकदम। वैसे यहाँ फूडी लोग के लिये ईटिंग ज्वाइंट बढ़िया हैं। बस कोशिश करियेगा लोकल खाने की। जंक फूड़ तो हर कहीं मिल जावे है। मावे की मिठाई भी यहाँ अच्छी मिलती हैं भिन्न-भिन्न।
जसवंत थड़ा जगह का निर्माण 1899 में महाराज सरदार सिंह ने अपने पिता राजा जसवंत सिंह (द्वितीय) और उनके सैनिकों की याद में सफेद संगमरमर से निर्मित यह शाही स्मारकों का समूह है। मुख्य स्मारक के अंदर जोधपुर के विभिन्न शासकों के चित्र हैं। इसकी नक्काशी मनमोहक है। उम्मेद भवन पैलेस का निर्माण महाराजा उम्मैद सिंह ने सन् 1943 में बाढ़ राहत योजना के तहत करवाया था, जिससे बाढ़ पीढ़ितों को रोज़गार मिल सके। संगमरमर और बालुआ पत्थर से बने इस महल के संग्रहालय में पुरातन युग की घड़ियाँ और चित्र भी संरक्षित हैं। यह एक ऐसा बीसवीं सदी का महल है, जो सोलह वर्षों में बनकर तैयार हुआ था। यह लक्जूरियस भवन अभी पूर्व राजसी परिवार का निवास स्थान है, जिसके एक हिस्से में होटल चलता है और दूसरे हिस्से में संग्रहालय। इसके इतर राजकीय संग्रहालय भी है, जिसमें चित्रों, मूर्तियों, स्तंभों, शिलालेख, प्राचीन हथियार, ऑस्ट्रिच का अंडा, संगमरमर की जूतियाँ, कंघे आदि का उत्कृष्ट समावेश है।
मंडोर गार्डन काफी विशाल क्षेत्र में फैला घिच-पिच भीड़ वाला क्षेत्र है। यहाँ मारवाड़ की प्राचीन राजधानी में जोधपुर के शासकों के स्मारक हैं। यहाँ कहते हैं पहाड़ से झरती गुप्त गंगा का पानी एक कुंड में एकत्र होता है। इससे इतर हमने सुना कि यहाँ लंकापति रावण की रानी मंदोदरी का मायका है और इस पूरे क्षेत्र में जितनी भी स्मारक छतरी बनी हैं वो उन्हीं के परिवार की हैं। बहरहाल सच्चाई से परे अच्छी जगह है पिकनिक स्थल जैसा आर्टीफिशियल तालाब है, जहाँ कमल लगे, मछलियाँ भी हैं पर गंदगी भी है। प्रिमायसिस में एक मंदिर-सा है छोटा। हम जब यहाँ थे तब एक शादी हो रही थी मंदिर में।
बागीचे में इकतारा बजाकर पैसे एकत्र करने वाली छोटी-सी लड़की मिली, जिसे उस समय विद्यालय में होना चाहिए था। हमने उसका इकतारा लिया और बस सब एक-एक कर ट्रायल लेने लगे। उसके साथ फोटू भी खींचवाये। एक और परिवार टकराया उस भीड में। एक टीनएज लड़की पता नहीं किस भाषा में बोली हमारे फोटू खींच दो। हम समझे नहीं तो झल्ला गयी हम पर। किसी और ने कहा- ‘फोटू खींचने बोल रही है’ तब उनका मोबाइल लेकर फोटू खींचे उनके समूह के।
रंग-बिरंगे घंटाघर के पास छोटी-छोटी दुकानें हैं खरीददारी को खाने पीने को और इस पूरे एरिया में ‘मिश्री चाय’ की एड हर दीवार पर मिल जायेगी।
दोस्तों यहाँ के नगर सेठ की हवेली देख के तो तर ही गये। उसे देखकर ये अंदाज़ा लगाना कतई मुश्किल नहीं था कि उस वक्त के इन सेठों के राजशाही ठाठ निराले ही थे। किसी ज़मींदार या राजा से कम कोणी। हवेली का इंटीरियर देखकर अंदाज़ा हो आता कि जब इनके इतने ठाठ रहे हैं तो राजाओं के तो दस गुना ज़्यादा ही होना है।
शायद इन्हीं लोगों की वजह से कहन है कि- ‘धन्ना सेठ’ मतलब धन से सम्पन्न।
नगर सेठ की हवेली भी देखने लायक जगह है। रंगीन काँच और बारीक नक्काशीदार झरोखे। पुराने बहीखाते, तौल के बाँट, इत्र की बोतलें, चौपड़, पंखे, उस ज़माने का प्रेशरकुकर, बिस्तरे- सोने चाँदी की जरीदार, पालने और एक से एक गदर डिजाइन के ताले। सोने से मँढ़ा पूजाघर, भिन्न क्षेत्रों की पगड़ियाँ, हुक्के, बर्तन, सरौते, पानदान, मौहरें और न जाने क्या-क्या!
सब घूमकर राजस्थानी महक में सराबोर हो गयी। शाम का वक़्त घंटाघर के आसपास के बाज़ार के नाम कर दिया। अच्छा लग रहा था वहाँ। ऐसे चुटुर-पुटुर से लेकर बड़ी से बड़ी चीज़ के बाज़ार में वैसे ही मन लग जाता हमारा तो। घंटाघर के रंग-बिरंगे काँच लाइटों में चमकने लगे थे। साँझ की उबासियों का वक्त था और रात अपनी ड्यूटी पर तैनात होने को काली वर्दी कस चुकी थी। जोधपुर बिलकुल वैसा ही अपनेपन से भरा है जैसा दिवास्वप्नों में सोचा था। रात्रि का भोजन अपने रिसॉर्ट पर ही था। थकान और रोमांच से भरपूर ये जोधपुर यात्रा यहीं थमी। अगली सुबह जैसलमेर की तरफ कूच करना था। अपने प्रिय ‘सोनार’ से मिलन की यात्रा जो तय करनी थी। नींद ने अपनी बाहों में जाने कब थपकी देकर सुला लिया!
– प्रीति राघव प्रीत