लेखिका भावना शेखर से प्रीति अज्ञात की ख़ास मुलाक़ात
सच्चा पाठक आज भी सिरहाने पुस्तक रखकर ज़्यादा संतुष्ट होता है- भावना शेखर
बहुमुखी प्रतिभा की धनी, सुंदर, सरल व्यक्तित्व की स्वामिनी डॉ. भावना शेखर की रचनात्मकता और सृजनशीलता से हम सभी परिचित हैं। मूलत: हिमाचल की वादियों की रहने वाली, डॉ.भावना का जन्म महानगरी दिल्ली में हुआ और ये गत बाईस वर्षों से पटना में अध्यापन कार्य में संलग्न हैं। इसके साथ ही पटना दूरदर्शन एवं आकाशवाणी में विशेषज्ञ एवं संचालक की भूमिका भी ये बखूबी निभा रही हैं। इन्होंने कई शैक्षिक व साहित्यिक कार्यशालाओं का सफल सञ्चालन किया है और काव्य-गोष्ठियों में भी इनकी सक्रिय एवं महत्वपूर्ण भागेदारी रहती है। प्रीति ‘अज्ञात’ से हुई बातचीत में भावना जी के कृतित्व और व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ जानने को मिला, आइये साक्षात्कार के माध्यम से उनसे रूबरू होते हैं –
प्रीति ‘अज्ञात’- आपका बचपन आम बच्चों की तरह अत्यंत सरल, सहज रहा है, लेकिन क्या कोई ऐसी घटना है जिसने आपको उद्वेलित कर आपके भीतर के रचनाकार को जीवंत रखा? अपने परिवार के बारे में भी साझा कीजिये।
भावना शेखर- हाँ, प्रीति। मैं अवश्य बताना चाहूँगी। मेरे परिवार में दो बच्चे मीमांसा और सात्त्विक हैं। बेटी India Times में एक सफल पत्रकार है और बेटा प्रतिष्ठित लॉ कम्पनी अमरचंद में Legal Associate है। मेरे पति श्री चंद्रशेखर कुमार, बिहार सरकार के शिक्षा विभाग में उपनिदेशक के पद पर कार्यरत हैं। जिनसे प्रेम करके लम्बे संघर्ष के बाद माता-पिता की सहमति से विवाह हो पाया। मेरे पिता अंतर्जातीय विवाह के सख्त खिलाफ थे। वे ब्राह्मणवाद के कट्टर समर्थक थे। घर में राज मिस्त्री भी धर्म पूछकर लाया जाता था। तथाकथित निम्न जातियों का घर में प्रवेश वर्जित था। बचपन में मसाला कूटने वाली एक सेविका की घर में घुसने पर पाबंदी देखकर मैं आहत हो उठती थी। बरसों बाद उस स्त्री के प्रति मेरी विह्वल करुणा ने मुझे ‘जुगनी’ कहानी लिखने को प्रेरित किया। यह मेरा अपने पिता से कालान्तर में किया गया रचनात्मक प्रतिरोध था।
प्रीति ‘अज्ञात’- रचनात्मक प्रतिरोध! वाह, भावना जी! इस प्रतिरोध की मैं भी क़ायल हूँ क्योंकि यह हमें एक सकारात्मक सृजन की ओर अग्रसर करता है। पिता की शख़्सियत ही कुछ ऐसी होती है कि उनकी नाराजगी भी प्रेरणा बन जाती है। आपके जीवन पर, पिता के व्यक्तित्व का कैसा प्रभाव पड़ा?
भावना शेखर- बचपन में पिता मेरे प्रेरणास्रोत थे, जो धामपुर के राजा के राजज्योतिषी थे। कश्मीर के राजा हरीसिंह के पुत्र डॉ कर्णसिंह के महल में भी उनका बहुत आना-जाना था। अपनी विद्वत्ता के कारण उनके ( डॉ कर्णसिंह) ससुराल, नेपाल के राजा के यहां भी वे निमंत्रित हुए। पिताजी भागवतमहापुराण, गीता, वेद उपनिषदों के निष्णात ज्ञाता थे। संस्कृत में धाराप्रवाह वार्तालाप करते थे। प्रखर वक्ता थे, राजाओं जैसा तेजस्वी रंग रूप था। मैं अपने पिता के व्यक्तित्व पर मोहित थी, विशेषतः उनकी वक्तृता से। वे ज़बरदस्त वक्ता थे। दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता, रायपुर और जाने कहाँ-कहाँ शहर के बड़े-बड़े सार्वजनिक पार्कों में उनके व्याख्यान होते थे और मैंने खुद देखा है सैकड़ों की तादाद में लोगों की भीड़ वहां उन्हें सुनने आती थी। छुटपन से उनके आभामंडल से मैं सम्मोहित थी। हमेशा उनकी जूठी थाली में, मैं खाना खाती थी, इसमें मुझे असीम तृप्ति मिलती थी।
बड़े होने पर विवेकानंद मेरे प्रेरणास्रोत बने, उन्हें मैं अपने पहला crush भी मानती हूँ।
प्रीति ‘अज्ञात’- जैसा कि आपने अभी ‘जुगनी’ के बारे में बताया, लेकिन मेरा मानना है कि यह प्रतिभा तो ईश्वरीय है और हर उम्र में हमारे साथ चलती है। तो स्कूली दिनों में भी आप लिखती तो अवश्य होंगी?
भावना शेखर- जी, इससे संबंधित कई प्रसंग हैं। एक बार, छठी कक्षा में स्कूल के लिए एक भाषण लिखना था। पिताजी से मदद माँगी तो उन्होंने समझा दिया, पर बोले बेटा खुद लिखो। मैंने लिखा, बोला और प्रतियोगिता जीती।उसके बाद पूरे स्कूली और कॉलेज जीवन में सदा खुद ही लिखा। पिताजी मेरा लेख अच्छा होने से खूब सारे पत्र मुझसे लिखवाते थे। कई बार झींक होती थी, भार और बोरियत लगती थी। आज सोचती हूँ शायद भाषा और भावों की परिपक्वता में वह भी एक कारण रहा होगा।
चौदह बरस में स्कूल के सीनियर्स के विदाई समारोह में पहली कविता लिखी। जिसकी सराहना हुई। उसी साल नवभारत टाइम्स में एक श्रृंखला के लिए सौ- सवा सौ शब्दों का लेख लिखा। विषय था – क्या आप अगले जन्म में नारी बनना चाहती हैं? मैंने लिखा था – हाँ, पर शर्त है भारतीय नारी ही बनूँगी। अभी भी मैंने अखबार का वो पन्ना सहेज कर रखा है। मैं उसे अपनी रचनात्मकता का पहला अंकुर मानती हूँ।
युवावस्था में शेखर के प्रेम में आबद्ध होने पर इश्क़ में पगी ढेर सारी शायरी, नज़्में और कविताएँ लिखीं।
संजीदा लेखन के पीछे एक कारुणिक प्रसंग है। हुआ यूँ कि मेरी एक सहकर्मी ने कचरे के ढेर पर हिलता डुलता एक पॉलीथिन देखा, उसे उठाया, खोला। उसमे एक नवजात बच्ची थी। वे उसे मेरी अन्य सहकर्मी के साथ हॉस्पिटल ले गयीं. उसका इलाज कराया और माँ की जगह अपना नाम लिखवाया। इस प्रेरक प्रसंग ने मुझे द्रवित कर दिया। मैंने इसे कलम बद्ध करके अगले दिन नोटिस बोर्ड पर लगा दिया ताकि छात्राएं अपनी शिक्षिकाओं के इस नेक कार्य से प्रेरित हों। मेरे उस write up को बहुत तारीफ़ मिली। इससे उत्साहित होकर मैंने कहानियां लिखना शुरू किया।
प्रीति ‘अज्ञात’- सचमुच आपकी सहकर्मी ने अत्यंत प्रशंसनीय कार्य किया। लेखिका के तौर पर आपकी संवेदनशीलता ने इसे अन्य छात्रों तक पहुँचाकर प्रेरणा दी। यही पल हैं, जो हमें संतुष्टि देते हैं। क्या फिर वह रचना प्रकाशित भी हुई? आपकी लेखनी की चमक बरक़रार रहने का श्रेय आप किसे देती हैं?
भावना शेखर- यही करुण घटना (write up) मेरी पहली कहानी ‘अपरिचित’ में रूपांतरित हुई। उसके बाद मैंने लगातार बत्तीस कहानियाँ लिखीं, जिन्हें राजकमल प्रकाशन ने ‘जुगनी’ और ‘खुली छतरी’ के नाम से दो पुस्तकों में छापा।
परिवार में सबसे बड़ा साथ पतिदेव का मिला। वो सदा मेरे पहले श्रोता रहे, सलाह भी देते यह कुछ जमा नहीं, इसे थोड़ा elaborate करो, इसका end कुछ abrupt है। सो वो मेरे सच्चे साथी, श्रोता, सलाहकार और resource person रहे जिन्होंने मेरी कलम की स्याही कभी सूखने नही दी। वो न होते तो मेरे भीतर लेखन का कीड़ा फल फूल नही पाता। मेरे सहकर्मियों ने भी मेरी हमेशा हौंसला अफ़ज़ाई की।
प्रीति ‘अज्ञात’- प्रकाशन की दुनिया में ‘राजकमल’ शीर्ष पर है, क्या आप वर्तमान में मौजूद अन्य प्रकाशन संस्थाओं और उनकी कार्य-प्रणाली से संतुष्ट हैं?
भावना शेखर- मेरे एक ही प्रकाशक रहे, सो वैविध्यपूर्ण अनुभव नहीं रहा। मैं सौभाग्यशाली हूँ ‘राजकमल’ देश का शीर्ष प्रकाशन समूह है। मुझे इससे जुड़कर भारी तादाद में पाठक मिले, यह एक लेखक की सबसे बड़ी कमाई है। मैंने कभी किसी पत्र-पत्रिका को समीक्षा के लिए नही कहा। मेरी समीक्षाएं मेरे लिए हर बार SURPRISE हुआ करती हैं। राजकमल का अपना नेटवर्क है। निस्संकोच कहूँगी, मुझे हमेशा रॉयल्टी भी नियमित रूप से मिलती रही है।
प्रीति ‘अज्ञात’- आप कविता, कहानी, बालगीत लिखती रही हैं। आपकी रचनाएँ मूलत: किस विषय पर होती हैं एवं इनमें किस तत्व को आप प्रधानता देती हैं?.
भावना शेखर- वैसे तो मैं किसी एक विमर्श में बंध नही पायी, मेरे लेखन में विषयों की विविधता है। पर फिर भी कहानियों में नारी, कविताओं में प्रेम, रिश्ते और संवेदनाएं तथा बाल गीतों में प्रकृति मेरा पसंदीदा विषय है।
प्रीति ‘अज्ञात’- अधिकांशत: रचनाकार, आलोचना से घबराते हैं। साहित्य में आलोचना को आप कितना आवश्यक मानती हैं ?
भावना शेखर- साहित्यकार को आलोचक के लिए नही, अपने पाठकों के लिए लिखना चाहिए पर आलोचना हमेशा तराशती है। आलोचक की वाह से उत्साह बढ़ता है और आह से सुधार, बशर्ते कि वह सच्ची हो. न चाटुकारिता न छिद्रान्वेषण, ये दोनों ही लेखक की रचनाधर्मिता को नष्ट कर देते हैं।
प्रीति ‘अज्ञात’- आपकी पुस्तकों की परिकल्पना व इनके प्रकाशन से जुड़े अनुभवों के बारे में विस्तार से कहिये।
भावना शेखर- कभी ख्वाब में भी नही सोचा था कि लेखिका बनूँगी। महत्त्वाकांक्षाओं के प्रति बड़ी बेपरवाह रही। बेहद संवेदनशील होने से जीवन की घटनाओं, लोगों की छाप को ही बीज रूप में सहेजती रही जो कालांतर में कहानी या कविता के रूप में विकसित होते चले गए। कभी पात्रों को खोजा नही, कोई शोध नही किया। पात्र खुद ही मेरे सामने प्रकट हो जाते हैं। असल में हम रोज़ ऐसे पात्रों, घटनाओं से गुज़रते हैं। सामान्य लोग उन्हें अनदेखा कर देते हैं पर मैं वहां अटक जाती हूँ। कहानीकार सामान्य को ही विशेष बना देता है।
मेरी पुस्तक “जुगनी” की पाण्डुलिपि दिल्ली के एक छोटे प्रकाशक को दी। उन्होंने दस दिन बाद फोन किया और कहा मैडम आपकी कहानियां तो बहुत अच्छी हैं, इनकी तो मार्केटिंग होनी चाहिए, सो किसी बड़े प्रकाशक को दें। मैंने कहा आप टाल रहे है छापना नहीं चाहते। तो बोले, मैंने एक एक कहानी पढ़ी है आप मुझसे अपनी कहानियों पर प्रश्न पूछकर मेरा टैस्ट ले सकती हैं। मैं किसी प्रकाशक का नाम तक नही जानती थी। उन्होंने ही मुझे राजकमल और वाणी प्रकाशन का नाम व फोन नंबर दिए। मैं दिल्ली में ही थी सो मैंने दोनों को फोन किया। अरुण जी बोले, अभी व्यस्त हूँ। अशोक जी को फोन किया वो उस समय संयोगवश पटना में थे। बड़ी विनम्रता से बोले आप पाण्डुलिपि त्यागी जी को भेज दें, मैंने वही किया। लगभग छ महीने बाद राजकमल ने स्वीकृति के साथ मुझे एग्रीमेंट पेपर्स भेजे। अब तक वे मेरी पांच किताबें छाप चुके हैं।
प्रीति ‘अज्ञात’- ऑनलाइन पत्रिकाओं के माध्यम से आज पाठकों का साहित्य के प्रति रुझान बढ़ा है, क्या ये प्रिंट पुस्तकों से ज्यादा प्रभावशाली हैं? जहाँ आज भी हम जैसे पाठक किताब को हाथ में थामकर ज्यादा तसल्ली महसूस करते हैं, ऐसे में अभिव्यक्ति का यह माध्यम कितना सार्थक है?
भावना शेखर- ऑनलाइन पत्रिकाओं का माध्यम युवा लेखकों और पाठकों के लिए वरदान है। इससे कुछ लोगों का साहित्य के प्रति रुझान बढ़ा है। लेखकों के लिए कुछ हद तक यह अभिव्यक्ति का मंच बनकर उभरा है। पर सोशल साईट पर बैठने वाले अधिकांश जन साहित्य की गलियों में विंडो शॉपिंग करने जाते हैं। ऑनलाइन पत्रिकाऐं प्रिंट पुस्तकों से ज्यादा प्रभावशाली हैं ऐसा मैं बिलकुल नही मानती, पुस्तकों का महत्त्व कालनिरपेक्ष है। सच्चा पाठक आज भी सिरहाने पुस्तक रख कर ज़्यादा संतुष्ट होता है।
प्रीति ‘अज्ञात’- पुस्तकों की मार्केटिंग में लेखक या प्रकाशक किसकी भूमिका प्रमुख है? क्या आप यह मानती हैं कि कई बार अच्छे रचनाकारों को छापने में प्रकाशक चूक जाते हैं और जुगाड़-प्रथा यहाँ भी घर बना चुकी है? कहीं बढ़ती प्रतिस्पर्धा इसका कारण तो नहीं?
भावना शेखर- आजकल बेचारा लेखक दोहरा काम कर रहा है लेखन भी, मार्केटिंग भी। प्रकाशक उनसे कमाई में मदद की भी अपेक्षा रखते हैं। खास तौर पर छोटे प्रकाशक जिनका नेटवर्क मज़बूत नही है। कई बड़े प्रकाशक कई बार अच्छे लेखन को छोड़कर दोयम दर्ज़े की किताबें छाप रहे हैं। मैं उस पर टिप्पणी नही करूंगी, उनकी कोई विवशता या विपणन नीति इसका कारण होगी। नामचीन लोगों की स्टार वैल्यू को भुनाने में वे नहीं चूकते। बढ़ती प्रतिस्पर्धा में प्रकाशकों के आदर्श तेज़ी से बदल रहे हैं।
प्रीति ‘अज्ञात’- आप कई स्थानों पर रही हैं, मेरा मानना है कि यह न सिर्फ हमारी सोच को व्यापक बनाता है बल्कि लेखन में भी बेहद सहायक सिद्ध होता है, आपका इस बारे में क्या कहना है?
भावना शेखर- बिलकुल सही। मैं हिमाचल प्रदेश की संस्कृति में पली बढ़ी, दिल्ली में जन्म, शिक्षा दीक्षा और विवाह बिहार में हुआ। भारत के उत्तर, दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों में काफी घूमी हूँ (सुदूर पूर्व राज्य छूटे हुए हैं ), विदेश भ्रमण भी किया। निस्संदेह हर संस्कृति आपके संस्कार को समृद्ध करती है, विचारों में लचीलापन लाती है। आपका नजरिया व्यापक होता है। मेरे लेखन में इससे बहुत से रंग जुड़ पाए। मैं इसे एक लेखक की ज़रूरत समझती हूँ। उसे आज वैश्वीकरण के दौर में खूब घूमना चाहिए, लोगों से मिलना चाहिए, ज़मीनी जुड़ाव सच्चाई से रूबरू कराता है। कहानियो में घटनाओं के विन्यास और शिल्प के गठन हेतु कलात्मकता का विकास करता है।
प्रीति ‘अज्ञात’- आपने संस्कृत में पी.एच.डी की है। क्या आप इस भाषा में भी लिखती हैं?
भावना शेखर- पंद्रह-बीस वर्षों से नही लिखा। पहले आठ-दस लेख ज़रूर लिखे, जो प्रकाशित भी हुए। स्वेच्छा से नही, जब पत्रिकाओं ने मांगे तब लिखे थे। अरसे से ऐसी पत्रिकाओं के सम्पर्क में नही हूँ । अब बेहद व्यस्त रहती हूँ पर कोई कहे तो आज भी लिखना चाहूंगी।
प्रीति ‘अज्ञात’- आप कार्यक्रमों का सफल सञ्चालन भी करती रही हैं, यह भूमिका आपको कितनी संतुष्टि देती है?
भावना शेखर- बहुत मज़ा आता है। बड़े-बड़े साहित्यकारों का साक्षात्कार, उनसे बातचीत आपको बहुत कुछ सिखाती है। आपको भी वे जानने लगते हैं। दूरदर्शन पर आपको देखकर आम लोग आपका चेहरा पहचानते हैं और फिर आपकी किताबों की ओर भी खिंचते हैं। मुझे लगता है दूरदर्शन और मंच संचालनों ने मुझे खासी लोकप्रियता दी। मेरे पिता की विरासत में मुझमें जो भी थोड़ी बहुत वाक् कला आई है उसे प्रदर्शित करने का सकारात्मक मौका देते हैं ये कार्यक्रम।
प्रीति ‘अज्ञात’- कोई ख़ास पल, मुलाक़ात, यादगार घटना जो अभी भी स्मृतियों के सुनहरे पटल पर हूबहू मौजूद है?
भावना शेखर-.B.A की परीक्षा में दिल्ली विश्वविद्यालय में टॉप करने की खबर का दस दिनों बाद पता लगना बड़ा रोमांचक था। ‘जुगनी’ का 2009 के पटना पुस्तक मेले में बेस्टसेलर के रूप में गिना जाना, छ दिन तक लगातार शीर्ष अखबारों में इसकी चर्चा व मेरे इंटरव्यू मुझे उल्लसित करते रहे। जावेद अख्तर जी ने दूसरे कथा संग्रह ‘खुली छतरी’ का विमोचन किया। उनके साथ मंच पर साझेदारी एक अपूर्व अनुभव था। उन्होंने श्रोता के रूप में मुझे सुना। सैकड़ों लोगों के बीच मुझे भी उनकी स्टार वैल्यू का कुछ अंश प्राप्त हुआ। अब तो ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता केदारनाथ सिंह और भालचन्द्र निमाड़े जैसे मर्मज्ञ साहित्यकारों से मिलना ही मेरे खास पलों में शुमार है।
प्रीति ‘अज्ञात’- आपके लिहाज से एक अच्छी कविता की क्या विशेषता होनी चाहिए? भाषा में क्लिष्टता के बारे में आपकी क्या राय है?
भावना शेखर- आज कविता अपनी पारम्परिक परिभाषा के बंधन तोड़ चुकी है पर कविता में रस का होना मेरे अनुसार पहली शर्त है। अच्छी कविता में सीधी बात का खास अंदाज़े बयां या गहरी बात की सहज अभिव्यक्ति – इन दोनों में से कोई एक कला होना लाज़मी है। शाब्दिक सौंदर्य आजकल गौण हो चला है पर मैं उसे एक अतिरिक्त गुण मानती हूँ। वो हो तो सोने पे सुहागा।
कविता में रहस्य एक आवश्यक गुण है। सब खोल कर लिख ही देना है तो गद्य लिखो। इस बात को समझे बगैर कई बार सीधा सपाट गद्य ही कविताओं के रूप में छप रहा है।
आजकल नए लोग, नए-नए प्रयोग कर रहे हैं। कुछ बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। बाबुषा कोहली और चित्रा देसाई की कविताएँ सहज बांधती हैं। किन्तु समकालीन कविता में ज़्यादातर कवि भाषा को तरजीह नही दे रहे। मैं इससे खिन्न हूँ । भाषा की देह मेँ ही कविता की आत्मा बसती है। भाषा में क्लिष्टता कविता को झुठलाती है, उसे कृत्रिम बनाती है। ऐसी कविता पाठक के दिल पर कभी दस्तक नही दे पाती । पर मैं प्रांजल भाषा की पैरोकार हूँ। जीवन के सुखद और कोमल पक्ष, प्रेम, श्रृंगार, प्रकृति की कविताएँ प्रांजल भाषा के बिना कैसे लिखेंगे!
फिर रस साहित्य की आत्मा है जो आज की कविताओं से नदारद है। भाषा में जो कच्चे हैं वे सादी भाषा की आड़ में चालू शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग कर रहे हैं। यह कहकर कि अधिक पाठक समझेंगे। मैं सोचती हूँ हमें ही हिंदी की रक्षा करनी है, हमें ही पाठकों की रुचियों का परिष्कार करना है। यह साहित्यकारों का दायित्व है. साथ ही आज की कविता पाठक को जीवन के छूट रहे हिस्सों से जोड़े, यह मेरा उद्देश्य है।
प्रीति ‘अज्ञात’- “हमें ही हिंदी की रक्षा करनी है, हमें ही पाठकों की रुचियों का परिष्कार करना है।” आपके इस कथन से मैं पूर्णत: सहमत हूँ। इससे नए लेखक और पाठक दोनों ही लाभान्वित होंगे। लेखक की रचना समृद्ध होगी और पाठक का शब्दकोष! देश में हिन्दी साहित्य के हालात कैसे लगते हैं?
भावना शेखर- साहित्य की परिभाषा ही मुझे बदलती दिखती है। आज पत्रकारों की तरह बहुत से साहित्यकार सूचनापरक लेखन कर रहे हैं। ऐसा साहित्य खूब लिखा जा रहा है जो नकारात्मक और सनसनीखेज है। उसकी धड़ाधड़ बिक्री भी होती है। पर वह दूरगामी नही होता। सुभद्रा कुमारी चौहान की बुंदेले हरबोलों… और बच्चन की मधुशाला कालजयी है क्योंकि उनमे समाज का चित्र भी था, रस भी। मेरे विचार में जब तक साहित्य में रस और सन्देश न हो, सामाजिक मूल्य न हो वह अपने उद्देश्यों में अधूरा है। भले ही आज साहित्यकार की भूमिका उपदेशक की बजाय एक मित्र की हो गयी है। तो भी लोकहित का निर्वाह तो करना ही होगा। देश के हालिया माहौल में साहित्यकारों को अपनी नई भूमिका निश्चित करनी होगी। जो पूरी तरह से राष्ट्रहित में हो।
प्रीति ‘अज्ञात’- हमारी पत्रिका ‘हस्ताक्षर’ के लिए कोई सन्देश!
भावना शेखर- ‘हस्ताक्षर’ शीर्षक ने मुझे बरबस अपनी ओर खींचा है। यह ऑनलाइन पत्रिकाओं के संसार में एक हस्ताक्षर बने मेरी दिली ख्वाहिश है। रौशनी में दीपक जलाना आसान है। यह नए और अनदेखे लेखकों के अच्छे काम को सामने लाकर, अँधेरे में दीया जलाने का भूयस प्रयास करे। शुभकामनाएँ!
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साहित्यिक परिचय :
नाम —- डॉ० भावना शेखर
मूल स्थान —– हिमाचल प्रदेश
जन्म —— महानगरी दिल्ली
शिक्षा – दीक्षा —— एम ० ए ( द्वय ) हिंदी और संस्कृत, पी एच ० डी
( लेडी श्री राम कॉलेज , दिल्ली विश्वविद्यालय )
कार्यक्षेत्र ——- अध्यापन ( गत 22 वर्षों से पटना में बिहार के प्रतिष्ठित विद्यालय नोत्र दाम अकादमी में )
प्रकाशित पुस्तकें :
1. आस्तिक दर्शनों में प्रतिपादित मीमांसा सिद्धांत — शोध प्रबंध
2. सत्तावन पंखुड़ियाँ —- काव्य संकलन
3.साँझ का नीला किवाड़—- काव्य संकलन
4.जुगनी ——- कथा संकलन
5.खुली छतरी ——– कथा संकलन
6.जीतो सबका मन —– बालगीत संग्रह
7.मिलकर रहना —— बालगीत संग्रह
पुरस्कार :
— सन 2011 में अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में “गुलाब का फूल” को सर्वश्रेष्ठ कहानी के लिए “मधुबन सम्बोधन ” पुरस्कार
— सन 2015 में TERI अंतर्राष्ट्रीय संस्था की ओर से आयोजित कहानी प्रतियोगिता में कहानी “प्रायश्चित” के लिए प्रथम प्रथम पुरस्कार
—- 2014 में कविताओं का जापानी भाषा में अनुवाद व मल्टी मीडिया द्वारा जे०एन०यू० में प्रसार
—- 2016 में साहित्य के क्षेत्र में सराहनीय योगदान के लिए, पटना की प्रतिष्ठित स्वयंसेवी संस्था ‘नव अस्तित्व फाउंडेशन’ द्वारा ‘लेखनी’ पुरस्कार से सम्मानित
प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं — हंस, कादम्बिनी, गगनांचल, कथाक्रम, नया ज्ञानोदय, साहित्य गुंजन, आधुनिक साहित्य, किस्सा, ऋचा एवं हिंदुस्तान, दैनिक जागरण आदि में कविता, कहानी, ललित निबंध तथा समीक्षाएँ निरंतर छपती रहती हैं।
ई मेल — bhavnashekhar8@gmail.com
मोबाइल न० —- 09334708478
– प्रीति अज्ञात