सुप्रसिद्ध लेखिका मधु अरोड़ा जी से प्रीति अज्ञात की ख़ास-मुलाक़ात
जब तक कहानी में रचनाकार के अपने अनुभव शामिल नहीं होंगे, वह रचना वास्तविक नहीं बनेगी- मधु अरोड़ा
मधु अरोड़ा, नाम सुनते ही समंदर से अठखेलियाँ करती, बतियाती, गुनगुनाती एक सुरुचिपूर्ण स्त्री की तस्वीर लहरों की मानिंद आँखों में तैरने लगती है। मधु जी जितनी सरल. सहज और हंसमुख हैं, उतने ही सलीके से वो सत्य के समर्थन में पूरी निष्ठा के साथ खड़ी होती हैं और बेबाकी से अपनी बात कहने में कभी परहेज़ नहीं करतीं। एक व्यस्त, सफल लेखिका होने के साथ-साथ उनका मिलनसार स्वभाव उन्हें और जानने के लिए उत्साहित करता है। रचनाकारों की नई पौध, रातों-रात सफलता पाने के नुस्ख़े ढूंढते ‘कॉपी पेस्ट राइटर’ और जुगाड़ की राजनीति के मुद्दों पर उनसे जमकर बात हुई, उन्होंने बेहद निष्पक्ष और स्पष्ट तरीके से अपनी बात रखी।
मधु जी कहतीं हैं कि “मुंबई ने मुझे अतिरिक्त भावुकता से बचाया है। ज़रूरत से ज्य़ादा भावुकता इंसान को नुक़सान पहुंचाती है और ऐसे लोगों का दोहन बहुत होता है। मुझे हालात से संघर्ष करना पसंद है और उन संघर्षों से खुद को मांजना, तराशना बहुत पसंद है।” इनकी यह बात ही कई बिखरते जीवन को संवारने के लिए पर्याप्त है, बशर्ते वे हालात से लड़ने का पर्याप्त ज़ज़्बा रखते हों।
आइये अब आपको मिलवाते हैं, बहुमुखी प्रतिभा की धनी इस सशक्त रचनाकार से-
प्रीति ‘अज्ञात’- शुरुआत आपके प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक वातावरण से करते हैं, क्योंकि व्यक्तित्व को मांजने में इनका योगदान हमेशा से ही अहम रहता है।
मधु अरोड़ा- कहा जाता है कि किसी भी बच्चे के लिये उसका घर प्रथम पाठशाला होती है। वह बचपन में घर में अपने माता-पिता, भाई बहनों को जिस तरह बात करते देखता है, उसका असर उसके बाल-मन पर पड़ता है। मैं चतुर्वेदी परिवार में जन्मी। मेरे पिताजी हिंदी साहित्य के अच्छे जानकार थे। उन्हें तुलसीदास रचित ‘रामचरित मानस’ कंठस्थ थी। उन्हें पद्मभूषण कवि मैथिलीशरण गुप्त के खंडकाव्य ‘पंचवटी, जयद्रथ वध, भारत भारती, यशोधरा मुंह ज़बानी याद थे। वे सुबह चार बजे उठ जाया करते थे। मैंने अपने स्कूली जीवन की नौवीं कक्षा से चंदामामा, लोटपोट और नंदन जैसी बाल पत्रिकाओं से साहित्यिक पठन की शुरुआत की। वहां की लायब्रेरी में ये पत्रिकाएं नियमित रूप से आती थीं। दिलचस्पी बढ़ी तो मैंने भी प्रेमचंद की कहानियों से साहित्य को पढ़ना शुरु किया।
उन दिनों दसवीं में गणित छोड़ा जा सकता था और मेरा गणित कमज़ोर था…तब भी और आज भी। मैंने अपनी पूरी शिक्षा हिंदी माध्यम से की है। बी. ए. में छायावाद में सुमित्रानंदन पंत की कविताएं खूब चाव से पढ़ती थी और उनकी व्याख्या भी बड़े मन से करती थी। मज़ा आता था। मुझे कवि निराला की प्रसिद्ध कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ मुंह ज़ुबानी याद थी।
मैंने बी. ए. के प्रथम वर्ष में एस. एन. डी. टी. यूनिवर्सिटी, मुंबई, में चौथा स्थान पाया था। उस दिन भी मैं बहुत खुश थी और जीवन का लक्ष्य तय कर लिया था कि एम. ए. भी हिंदी में ही करना है। एम. ए. में कबीर को विशेष रूप से पढ़ा और श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास ‘राग दरबारी’ तो पाठ्यक्रम में था। मेरे व्यक्तित्व को मांजने में विशेष योगदान रहा, मेरे माता-पिता का, मेरे गुरुजनों का, जिनका ऋण कभी चुका ही नहीं सकती।
प्रीति ‘अज्ञात’- आपकी स्पष्टवादिता और सटीक, सार्थक बात कहने का एक अलग ही अंदाज़ है जो कि आपके लेखन में भी बख़ूबी झलकता है, इस बारे में आप कुछ कहना चाहेंगी?
मधु अरोड़ा- जब नौकरी करने के क्षेत्र में कदम रखा तो पाया कि महिलाएं कहीं-न-कहीं अपने पति के ज़रूरत से ज्य़ादा नियंत्रण से घुटन महसूस करती थीं। हम जब लंच करने के बाद थोड़े समय बातें करते थे तो उनकी बातों से पता चलता था कि वे अपनी मर्जी़ से अपने लिये ब्लाउज पीस भी नहीं खरीद सकती थीं। उन्हें अपना वेतन हर महीने अपने पति को देना होता था।
जब पति के माता-पिता वहां आकर रह सकते हैं, बेटे और बहू की कमाई पर ऐश कर सकते हैं तो पत्नी के पिताजी मिलने के लिये क्यों नहीं आ सकते? तो, ये बातें ऐसी थीं जो मुझे और मेरे मन को आंदोलित करती थीं। मैंने अपनी शादी के बाद पाया कि खुलकर तो कोई कुछ नहीं कह पाता था क्योंकि मैं तेज़ और तर्रार थी, पर चालू किस्म की नहीं थी। तो मेरे अनुभवों ने मुझसे ‘छोटी छोटी बातें’ जैसी डायरीनुमा कहानी लिखवाई, जो वर्तमान साहित्य में प्रकाशित हुई और इस बाबत दो फोन भी आये।
थोड़ा-सा हौसला बढ़ा कि मैं भी लिख सकती हूं। समाज का परिवेश, दांपत्य जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव मुझसे एक के बाद एक कहानी लिखवाते गये। मेरा मानना है कि जब तक कहानी में रचनाकार के अपने अनुभव शामिल नहीं होगे, वह रचना वास्तविक नहीं बनेगी।
मुठ्ठी भर महिलाएं ही होंगी जो, परिवार को छोड़कर अपनी मर्जी़ की ज़िंदगी जीने के लिये निकल पड़ती होंगी। अब वे कितना जी पाती होंगी, ये तो वे ही जानें। बस, यही कुछ सामाजिक परिवेश मिला और कहानियां लिखने में मेरी खुली और सकारात्मक सोच और मुंबई के खुलेपन ने बहुत साथ दिया है। मुझे लगता है कि लिव-इन-रिलेशनशिप में जाना भी समस्या का समाधान नहीं है। यह एक निरंतर भटकाव का मार्ग है, जो अंतत: अकेलापन ही देता है।
प्रीति ‘अज्ञात’- आप कविता, कहानी, आलेख लिखती रहीं हैं और हाल ही मैं आपने एक उपन्यास भी लिखा है। कौनसी विधा आपके हृदय के सबसे करीब है?
मधु अरोड़ा- दरअसल मैं शुरु से लेखक नहीं थी। मुझे भाषा हमेशा से आकर्षित करती रही है क्योंकि यदि भाषा पर आपकी पकड़ है तो आप अपनी बात विस्तार से कह सकते हैं, भले ही कम शब्दों का इस्तेमाल क्यों न करना पड़े। 35 साल की नौकरी में विभिन्न प्रकार के अनुभव, पति के ट्रांसफरवाली नौकरी की वजह से करीब-करीब पूरा भारत और शहर घूमी हूँ और कई विदेश यात्राएं की हैं। अब जब मैंने अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियां पूरी कर ली हैं तो लेखन के क्षेत्र में आई हूँ। बेशक़, लिखती मैं कई विधाओं में हूँ, पर कहानी लेखन मेरी पसंदीदा विधा है। सीमित पन्नों में अपनी बात कही जाये, यह कोशिश रहती है।
प्रीति ‘अज्ञात’- आपको समंदर से विशेष लगाव रहा है। इसकी उठती-बैठती लहरें हमारी ज़िंदगी से जुड़ीं हैं, कभी साथ बहा ले जातीं हैं तो कभी किनारे ला छोड़तीं हैं। आपकी रचनात्मकता में इसका साथ अनिवार्य है या महज़ एक संयोग?
मधु अरोड़ा- मेरे बचपन से लेकर आज तक का जीवन मुंबई में ही बीता है। यह शहर तीन ओर से अरब सागर से घिरा है और एक तट पर रिहाईश है। मैंने टापूनुमा मुंबई को मॉल संस्कृति में परिवर्तित होते देखा है। समुद्र मेरे जीवन में महत्वपूर्ण मायने रखता है। मैं जब नहीं लिख रही थी, तब भी मैं सुमुद्र के किनारे जाया करती थी। बी. ए. के दौरान चर्नीरोड पास था और चौपाटी पास थी। एम. ए. के दौरान मरीन ड्राइव पास था और चर्चगेट से हर गली समुद्र की खुलती थी और आज भी वही समां है। जब कभी समुद्र सपनों में आता है तो समझ जाती हूं कि कोई मन्नत मानी होगी, और भूल गई होऊंगी। मैं नज़दीकी समुद्र तट पर जाती हूं और चुपचाप खड़ी हो जाती हूं।
प्रीति ‘अज्ञात’- मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि सिर्फ़ स्त्रियाँ ही प्रताड़ना से नहीं गुजरतीं बल्कि पुरुष भी इसका शिकार होते रहे हैं। पुरुष मन की अभिव्यक्ति के लिए हमने एक स्तंभ भी प्रारंभ किया था लेकिन उसके लिए न तो लिखने वाले आये और न ही किसी ने कुछ साझा ही करना चाहा। जहाँ स्त्रियाँ हर मुद्दे पर बढ़-चढ़कर बोल रही हैं, वहाँ पुरुष अपनी समस्याएँ साझा करने में झिझकते हैं। ‘स्त्री-सशक्तिकरण’ के दौर में पुरुष कहीं पीछे छूट गया है या कि वो इतना आगे निकल चुका है कि पलटकर देखना ही नहीं चाहता? आप क्या सोचती हैं?
मधु अरोड़ा- विमर्श अन्य महिलाओं को उकसाते हैं कि वे घर से बाहर निकलें। मुझे तो यह सब मकड़जाल-सा लगता है और मैं इन सब चक्करों में नहीं पड़ती। मैं अपनी आज़ादी की सीमा खुद तय करती हूं। पुरुष पति के रूप में सबसे अधिक प्रताड़ित होता है और इसी के मद्देनज़र ‘एक सच यह भी’ पुस्तक संपादित की। कौन किससे कितना आगे निकला है, कहना मुश्किल है, पर कंधे से कंधा मिलाकर चलने की होड़ लगी हुई है।
प्रीति ‘अज्ञात’- इस बारे में कोई दो राय नहीं कि अब साहित्य में भी राजनीति का प्रवेश हो चुका है। गुटबाज़ी और आपस में पुरस्कार बाँट लेने की प्रथा भी इन दिनों खूब चल पड़ी है। क्या आगे बढ़ने के लिए प्रतिभा से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण, जुगाड़ू-प्रथा में निपुण होना हो गया है? आपका इस बारे में क्या अनुभव रहा है?
मधु अरोड़ा- साहित्य में राजनीति के आने से नकारात्मक लेखन होता है। हां, हिंदी साहित्य में खेमेबाजी, गुटबाजी और फेसबुक के दौर में फैन्स क्लब हैं। ये फैन्स क्लब कितने ईमानदार हैं अपने लेखक मित्र के प्रति, वे ही जानें। जहां तक मेरी बात है, मैंने न तो जुगाड़ू प्रथा अपनाई है और न कभी इसके लिये कोशिश की है। और भी साफ कहूं तो जुगाड़ के जरिये सम्मानित होने की तमन्ना भी नहीं है। प्रायोजित सम्मान दूर से दिख जाते हें। मैं खुद को इन सबसे दूर रखती हूं।
प्रीति ‘अज्ञात’- महिला रचनाकारों के साथ शारीरिक शोषण की कई घटनाएँ सुनने में आतीं हैं। लेखक को हमेशा से ही संवेदनशील प्राणियों की श्रेणी में रखा जाता रहा है क्या अब हमें इस भ्रम से निकलना होगा?
मधु अरोड़ा- ये घटनाएं मैंने भी सुनी हैं। श्री राजेन्द्र यादव के संपादन में निकल रही पत्रिका ‘हंस’ में उन दिनों इस प्रकार का लेखन खूब चल रहा था और उस समय मैंने कोई भी रचना वहां छपने के लिये नहीं दी थी। काजल की कोठरी का काला रंग लगता है। मेरी कहानी ‘अंगूठा’ संजय सहाय के संपादन के समय प्रकाशित हुई और उस समय की सबसे चर्चित कहानी रही। मेरा मिलना-जुलना बहुत कम रहता है। तय करती हूँ कि कहां जाना है और क्यों जाना है। हां, संवेदनशीलता और भावुकता के बीच के अंतर को समझना होगा। रातो-रात सफल होने की चाह कुछ भी करवा सकती है।
प्रीति ‘अज्ञात’- रचनाकारों की नई पौध में कई अत्यधिक प्रतिभावान और मेहनती हैं। ये सही समय के इंतज़ार में रहते हैं तब तक कुछ स्वघोषित ‘साहित्यकार’ इनके आइडियाज को चुराकर (उनके हिसाब से प्रेरणा) इनसे पहले छप जाते हैं। यूँ ‘सागर में से कोई एक बूँद ले ले तो सागर सूखता नहीं’ पर फिर भी निराशा तो होती ही है। क्या प्रकाशित होने से पहले अपनी रचना को औरों के सामने लाना गलत है?
मधु अरोड़ा- औरों की नहीं जानती, पर मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ है। मेरा कोई प्रमोटर और बना बनाया प्लेटफॉर्म नहीं है। अपनी रचना प्रकाशित होने से पहले सबके सामने क्यों परोसी जाये और वह भी फेसबुक पर…कतई नहीं। जब हम परोसी थाली खुले में रखेंगे तो लोग खायेंगे ही। दूसरों के भरोसे और दूसरों के संशोधन से लेखन नहीं होता…यदि कुछ लोग करते हें तो वह रचना उनकी रही ही कहां?
प्रीति ‘अज्ञात’- सोशल मीडिया से पहले हम सब डायरी में लिखा करते थे और अपनी मर्ज़ी से पत्र-पत्रिकाओं में भेजते थे। पर उस डायरी को पलटने का भी एक अपना आनंद हुआ करता था। लेखक को आत्मसंतुष्टि किससे मिलती है, लिखने या प्रकाशित होने से?
मधु अरोड़ा- डायरी लिखना अपनी तुष्टि के लिये होता है। यदि हम उस डायरी के अंश छपने के लिये भेजते हें तो वह अंश अपना न रहकर पाठक का हो जाता है। जब पाठक को मेरी रचनाएं पसंद आती हैं, तो निश्चित रूप से संतुष्टि मिलती है कि सब ठीक चल रहा है। मैंने गत चार वर्षों में हिंदी साहित्य जगत को पांच पुस्तकें दी हैं और छात्र जगत व पाठक वर्ग प्रसन्न है। इससे अधिक लेखक को और क्या चाहिये?
प्रीति ‘अज्ञात’- आपकी कृतियों और उनसे जुड़े अनुभवों के बारे में कुछ कहें।
मधु अरोड़ा- मेरे परिचय में जितनी पुस्तकें हैं, वे स्वस्फुरण से लिखी हुई हैं। मुझे न तो किसी ने लिखने के लिये प्रोत्साहित किया और कईयों की नज़र में कूड़ा लिख रही हूँ।यह सुनकर मैं हंस देती हूँ। मेरे लेखन में न कोई रोमांचक घटना है और न सेक्सी बातें हैं। पत्रकारों की एक साइट बंद हो चुकी है क्योंकि वहां कई स्टेटस ऐसे थे जो किसी के भी चरित्र को तार-तार करने के लिये काफी थे। अपनी नौकरी के दौरान मेरे पत्रकार कलीग ने वह साइट देखने के लिये कहा था और मैंने वहां सब कुछ पढ़ लिया था।
प्रीति ‘अज्ञात’- अपने आगामी उपन्यास के बारे में बतायें। इसकी पृष्ठभूमि क्या है?
मधु अरोड़ा- मेरा आगामी उपन्यास 1960 की मुंबई की पृष्ठभूमि पर आधारित है। जब टापूनुमा मुंबई का विकास हो रहा था। उस समय वहां बैठी चालें हुआ करती थीं और हर घर में लालटेन या ढिबरी जलती थी। उस समय किसी की ढिबरी टाइट नहीं की जाती थी, बल्कि घर में रौशनी फैलाने के लिये तेल उधार दिया जाता था, ताकि किसी के घर में अंधेरा न रहे। वह ज़माना और था और आज का ज़माना कुछ अलग है। मैंने समय और पानी के थपेड़ों को सहा है और जो यह सह लेता है, वह सब सह लेता है।
प्रीति ‘अज्ञात’- आपने कई प्रतिष्ठित हस्तियों के साक्षात्कार लिए हैं। कई तरह के अनुभव भी हुए होंगे, ख़ास संस्मरण जिसे आप कहना चाहें।
मधु अरोड़ा- देखिये, उम्र के जिस पड़ाव पर मैंने लेखन शुरु किया, वहां सब ख़ास ही ख़ास है। साहित्यकारों के साक्षात्कारों की पुस्तक, ‘मन के कोने से’ में समाविष्ट सभी साहित्यकारों ने खूब सहयोग किया और अब वर्तमान में अखिल भारतीय स्तर पर पत्रकारों से बात कर रही हूं और बहुत अच्छे अनुभव रहे हैं। पत्रकार ज्य़ादा नहीं बोलते, बुलवाना होता है। वे कम शब्दों में और नपे-तुले शब्दों में अपनी बात कहते हैं। उन्हें समय-सीमा और शब्द सीमा पता होती है, बताना नहीं पड़ता।
प्रीति ‘अज्ञात’- इन दिनों एक अच्छी पुस्तक को पाठकों तक पहुंचाने के लिए कंटेंट से ज्यादा ‘मार्केटिंग’ पर जोर दिया जा रहा है जो कि सर्वथा अनुचित है। हिंदी साहित्य में यह बदलाव कितना स्वीकार्य है?
मधु अरोड़ा- ये भली कही आपने…कंटेन्ट अच्छा होगा तो ही मार्केटिंग सफल होगी। वरना प्रायोजित मार्केटिंग और प्रायोजित पुस्तकों से बाज़ार अटा पड़ा है और उसमें से मुझे अपना स्थान हासिल करना है। हर बात का सरलीकरण नहीं किया जा सकता। मैं हर किताब नहीं पढ़ पाती, पठनीयता और कुछ सकारात्मक थीम हो, तो पढ़ा जाये। सच कहूं, तो आजकल मैं किसी का लिखा नहीं पढ़ रही। अपने अनुभव आधारित उपन्यास से गत सात महीनों से उलझ-सुलझ रही हूँ और रिश्तों का ऊन का गोला सुलझने को ही है।
प्रीति ‘अज्ञात’- कोई मुक़ाम, जिसे पाने की दिली ख्वाहिश हो!
मधु अरोड़ा- मुक़ाम तो क्षितिज़ के समान है। मंज़िल दिखती है, पर वहां तक पहुंचना आसान नहीं है। ग्लोबल वार्मिंग के दौर मैं सब कुछ बदल गया है और निरंतर बदल रहा है। मेरा मुक़ाम तो अभी शुरु भर हुआ है। देखते हें, आगे-आगे होता है क्या।
प्रीति ‘अज्ञात’- हमारी पत्रिका एवं नवोदित रचनाकारों के लिए कोई सन्देश!
मधु अरोड़ा- मैं पहली बार आपके सौजन्य से वेब पत्रिका ‘हस्ताक्षर’ में अपनी बात कह रही हूँ, प्रीति। आपकी यह पत्रिका निरंतर आगे बढ़े और सफलता के शिखर तक पहुंचे और मुझे इस बात की खुशी है कि इस पत्रिका के आगे बढ़ने में मेरा भी सहयोग है। नवोदित रचनाकार आगे बढ़ें, वरिष्ठ रचनाकारों की राय लें पर अपनी बात पर दृढ़ रहें। अपने करेक्शन खुद करें। हम यह अक्सर भूल जाते हें कि अपने स्वार्थ को साधने के लिये हम दूसरों का समय ज़ाया करते हैं। अपनी बैसाखी खुद बनें। बस, इतना ही कहना है अपने पाठकों से।
* साहित्यिक परिचय
• नाम- मधु अरोड़ा
• कृतियां-
• ‘बातें’- तेजेन्द्र शर्मा के साक्षात्कार- संपादक- मधु अरोड़ा, प्रकाशक- शिवना प्रकाशन, सीहोर।
• ‘एक सच यह भी’- पुरुष-विमर्श की कहानियां- संपादक- मधु अरोड़ा, प्रकाशक- सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
• ‘मन के कोने से’- साक्षात्कार संग्रह, यश प्रकाशन, नई दिल्ली।
• ‘..और दिन सार्थक हुआ’- कहानी-संग्रह, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
• ‘तितलियों को उड़ते देखा है…?’—कविता—संग्रह, शिवना प्रकाशन, सीहोर।
• मुंबई आधारित उपन्यास प्रकाशनाधीन
• भारत के पत्रकारों के साक्षात्कार लेने का कार्य जारी , जिसे पुस्तक रूप दिया जायेगा।
• सन् 2005 में ओहायो, अमेरिका से निकलनेवाली पत्रिका क्षितिज़ द्वारा गणेश शंकर विद्यार्थी सम्मान से सम्मानित।
• ‘रिश्तों की भुरभुरी ज़मीन’ कहानी को उत्तम कहानी के तहत कथाबिंब पत्रिका द्वारा कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार—2012
• हिंदी चेतना, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, परिकथा, पाखी, हरिगंधा, कथा समय व लमही, हिमप्रस्थ, इंद्रप्रस्थ, हंस, पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित।
• जन संदेश, नवभारत टाइम्स व जनसत्ता, नई दुनियां, जैसे प्रतिष्ठित समाचारपत्रों में समसामयिक लेख प्रकाशित।
• एस एनडीटी महिला विश्वविद्यालय की हिंदी में एम ए उपाधि हेतु कहानी संग्रह ‘और दिन सार्थक हुआ’ में वर्णित दाम्पत्य जीवन पर अनिता समरजीत चौहान द्वारा प्रस्तुत लघु शोध ग्रंथ…..2014—2015
• आकाशवाणी से प्रसारित और रेडियो पर कई परिचर्चाओं में हिस्सेदारी। हाल ही में विविध भारती, मुंबई में दो कहानियों की रिकॉर्डिंग व प्रसारण। मंचन से भी जुड़ीं। जन संपर्क में रूचि।
• email- shagunji435@gmail.com
• मोबाईल- 0 9 8 3 3 9 5 9 2 1 6
– प्रीति अज्ञात