कर्म, धर्म और शर्म के बदलते मर्म
अयोध्या विवादित भूमि मामले में उच्चतम न्यायालय का निर्णय आ जाने के पश्चात् जब सरकार ने अपनी पीठ थपथपा शाबाशी समेटनी प्रारंभ कर दी थी और मंदिर के पहले से ही तैयार नक़्शे चैनलों पर रंग बिखेरने लगे थे; तब आम आदमी ने यह सोच चैन की साँस ली कि चलो, आस्था की चाशनी से लबरेज़ वर्षों से चला आ रहा विवाद अंततः शांतिपूर्ण ढंग से सुलझ गया। यद्यपि कुछ लोग इस निर्णय से प्रसन्न नहीं हैं और कुछ वहाँ विद्यालय, अस्पताल बनवाने की माँग कर रहे हैं। लेकिन अब इतने वर्षों से खींचे जा रहे इस मामले को देखने वाला प्रत्येक भारतीय अच्छे से समझने लगा है कि राजनीति, आस्थाओं को स्वहित में भुनाने में अधिक विश्वास रखती है तथा शिक्षा और व्यवस्था से उसका सरोकार जरा कम ही रहता है फिर चाहे वह कोई भी दल हो! इसलिए मंदिर का बनना तो तय ही है। जनता को जो सोचना है, सोचने के लिए स्वतंत्र है। यूँ भी प्रजातांत्रिक देश में कल्पनाओं पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता!
हाँ, वे लोग जो इस बात से परेशान थे कि अयोध्या के बाद देश में किस मुद्दे पर बहस होगी? चैनलों को खाद कौन देगा? चौराहे पर अपनी चतुराई कैसे परोसी जाएगी और सोशल मीडिया के उद्धारक कैसे बनेंगे! जे. एन.यू.और बी.एच.यू प्रकरण ने उनकी भुजाओं में नया जोश भर दिया है। एक ओर शिक्षा एवं अधिकार की लड़ाई है तो दूसरी ओर धर्म तथा भाषा की। इन घटनाओं में समानता यह है कि देश दोनों में ही शर्मिंदा हुआ है। छवि दोनों ही विश्वविद्यालयों की धूमिल हुई है।
‘विश्वगुरु’ बनने का स्वप्न संजोये इस देश के छात्रों और गुरुओं की दुर्दशा तो देखिये कि एक अपने अधिकार के लिए लाठियों से लहुलुहान हो सत्ता से संघर्ष कर रहा तो दूसरा धर्म के कट्टर शिकंजे में स्वयं को असमर्थ अनुभव कर व्यथित ह्रदय से शहर को विदा कह रहा है। कैसी विडंबना है कि जिस इंसान की कई पीढ़ियाँ संस्कृत को ओढ़ती-बिछाती रहीं, जिनका जीवन भक्ति और भजन करते बीता…उन्हें शिक्षक स्वीकार करने में तथाकथित सभ्य विद्यार्थियों को आपत्ति हो रही है। ये वही लोग हैं जिन्होंने अंधकट्टरता को घोंटकर पी रखा है। अपनी श्रद्धा प्रमाणित करने के लिए फ़िरोज़ खान को क्या करना होगा? इसका उत्तर तो उनके मुट्ठी भर विरोधियों के पास भी नहीं है पर ऐसे वातावरण में जहाँ आपके समर्पण पर प्रश्नचिह्न की तलवार झूलती रहे, वहाँ से दूर चले जाना ही श्रेष्ठ है। फ़िरोज़ खान जी ने ठीक ही किया जो चले गए। वे भी जानते हैं कि धर्म की पट्टी बाँधे कुतर्कियों से बहस की ही नहीं जा सकती!
विचारणीय है कि संविधान को मंदिर की तरह पूजने वाले इस देश के कुछ लोगों ने यह कैसे मान लिया कि संस्कृत हिन्दुओं की भाषा है और उर्दू मुस्लिमों की? क्या भाषा भी अब धर्म के तराजू पर रख तौली जाएगी? फिर अंग्रेजी के लिए तो हमें अंग्रेज़ों को ही बुलाना होगा! क़माल है, ये लोग तो रसखान और रहीम की कृष्णभक्ति पर भी संदेह करने लगेंगे! उन्हें तो रघुपति सहाय फ़िराक़ पर भी आपत्ति होगी। वे तो रफ़ी साब के ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’ में भी दोष ढूँढ लेंगे! यूँ मैं किसी भी तरह की हिंसा का समर्थन नहीं करती पर बेहतर होता यदि जे. एन.यू.के स्थान पर बी.एच.यू के उन विद्यार्थियों की धरपकड़ होती जो भाषा को किसी एक धर्म की बपौती समझते हैं। यदि समय रहते नहीं रोका गया तो ये लोग आगे की पीढ़ियों में यही ज़हर भरेंगे। हम सब दर्शक बन देख रहे हैं कि धर्म निरपेक्षता, सहिष्णुता, सर्व धर्म समभाव, वसुधैव कुटुम्बकम सब इतिहास के पृष्ठों पर ही सीमित रह जाने वाले शब्द बनते जा रहे हैं। ध्यान रहे, ‘इतिहास इन दिनों बदला जा रहा है।’ प्रार्थना कीजिये कि बदलाव या परिवर्तन की ये आँधी हमारे बचे हुए संस्कार और भव्य संस्कृति न बहा ले जाए, जिन पर हमें गर्व है और कहीं आने वाली नस्लों के सामने हमारा सिर शर्म से न झुक जाए।
उधर प्रदूषण की मार केवल राजधानी में ही नहीं है बल्कि देश के कई नगर इसकी चपेट में हैं। जयपुर से कुछ दूर सांभर झील में परदेश से आये दुर्लभ प्रजातियों के पक्षी तड़प कर दम तोड़ रहे हैं। कहते हैं इस झील के किनारे लगभग बीस ह़जार पक्षियों के शव एकत्रित हो चुके हैं। इस दृश्य की कल्पना मात्र सिहरा देती है! शुद्धता के नाम पर वर्षों से पानी बिक रहा है। मिट्टी बिक रही। भूमि का लालच तो किससे छुपा है। इधर अमेज़न पर गोबर और गोमूत्र भी बिक रहा। बस, इक हवा जिस पर सबका समान अधिकार था…वो भी बिकाऊ हो गई। दिल्ली में ‘ऑक्सीजन बार’ खुल चुका है जहाँ तीन-चार सौ रुपए देकर कुछ मिनटों के लिए शुद्ध हवा का सेवन किया जा सकता है। निर्धन वर्ग, जिसके भाग्य में तिल-तिलकर मरना ही लिखा है उसके लिए इस ‘ऑक्सीजन बार’ का नाम लेना भी अक्षम्य अपराध होगा। असमानता की ये हवाई दीवार उसके फेफड़े ही नहीं, पहले से ही अधमरे ह्रदय को भी चकनाचूर कर देगी!
दुखद यह भी रहा कि नासा वैज्ञानिक वशिष्ठ नारायण सिंह, जो देश के प्रति प्रेम के चलते अमेरिकी नागरिकता ठुकराकर अपनी मिट्टी के पास लौट आये थे। संवेदनहीन समाज ने उन्हें विक्षिप्त कह दिया और सरकारों ने उनकी सुध लेने से इंकार कर दिया। आर्थिक परिस्थितियों से जूझते हुए, उनकी मृत्यु ने एक पल को भी आश्चर्य चकित नहीं किया क्योंकि यह देश ऐसी कई घटनाओं का साक्षी रहा है जहाँ जीवन के अंतिम चरण में विश्वभर में देश का नाम कमाने वाली गौरवशाली प्रतिभाओं की अत्यन्त दर्दनाक तस्वीर सामने आई है। निठल्ले नेताओं पर पानी की तरह बहाने के लिए खूब पैसा है पर उस व्यक्ति की सुध लेने का समय किसी के पास नहीं जिसकी प्रतिभा को सारी दुनिया ने सलाम किया था! यहाँ समाज भी उतना ही दोषी है जितना कि सरकार।
दुःख मात्र यह ही नहीं कि सड़क पर ही श्रद्धांजलि अर्पित कर इतिश्री मान ली गई, दुःख यह भी है कि बीती बातों और ऐसे अनगिनत किस्सों से कभी कोई सबक़ नहीं लिया गया….आगे भी यही होते रहना है! धीरे-धीरे हम अभ्यस्त हो जायेंगे और फिर गिनतियाँ भूलने लगेंगे। यह शर्म एवं पीड़ा का विषय है और ये दोनों ही विषय आम जनता के पाठ्यक्रम का अनिवार्य अंग बन चुके हैं।
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अत्यन्त भारी ह्रदय के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि ‘हस्ताक्षर’ टीम के प्रमुख सहयोगी अमन चाँदपुरी अब इस दुनिया में नहीं रहे। वे मात्र 23 वर्ष के थे परन्तु उनका लेखन,उनकी उम्र से कहीं अधिक परिपक्व था। काव्य में अमन की विशेष रुचि थी। ग़ज़ल और दोहे पर उनकी पकड़ देखते ही बनती थी। हम उनमें अपार सम्भावनाएँ देख रहे थे पर नियति पर किसका बस चला है! सहज, सरल व्यक्तित्त्व के, प्रतिभाशाली रचनाकार अमन के असामयिक निधन से हस्ताक्षर परिवार स्तब्ध है। नियति की इस क्रूरता पर हमारी सारी संवेदनाएँ उनके परिवार के साथ हैं।
अमन हमारी स्मृतियों में हैं और उनका नाम ‘हस्ताक्षर’ परिवार के साथ सदैव जुड़ा रहेगा। इसी सोच को ध्यान में रखते हुए ‘हस्ताक्षर’ के द्वारा प्रति वर्ष ‘अमन चाँदपुरी सम्मान’ प्रदान किया जाएगा। इस सम्मान के लिए काव्य विधा में सृजनरत युवा, प्रतिभावान, संभावनाशील रचनाकार को ग्यारह सौ रुपए, स्मृति चिह्न एवं प्रशस्ति-पत्र दिया जाएगा। पुरस्कार की घोषणा अमन चाँदपुरी के जन्मदिवस पर की जाएगी।
– प्रीति अज्ञात