कारवाँ गुज़र गया….गुबार देखते रहे
किसी वर्ष का गुज़र जाना उन अधूरे वादों का मुँह फेरते हुए चुपचाप आगे बढ़ जाना है जो प्रत्येक वर्ष के प्रारंभ में स्वयं से किये जाते हैं। ये उन ख्वाहिशों का भी बिछड़ जाना है जो किसी ख़ूबसूरत पल में अनायास ही चहकने लगती हैं। ये समय है उन खोये हुए लोगों को याद करने का, जिनसे आपने अपना जीवन जोड़ रखा था पर अब साथ देने को उनकी स्मृतियाँ और चंद तस्वीरें ही शेष हैं! कई बार बीता बरस कुछ ऐसा छीन लेता है जो आने वाले किसी बरस में फिर कभी नहीं मिल सकता! हम सभी, हर वर्ष अपने किसी-न-किसी प्रिय को हमेशा के लिए खो देते हैं। व्यक्तिगत स्तर पर हुई इस क्षति की भरपाई कभी नहीं की जा सकती।
2018 में कला, राजनीति, विज्ञान, साहित्य, पत्रकारिता एवं अन्य विविध क्षेत्रों से सम्बंधित कई महत्त्वपूर्ण हस्तियाँ भी हमें अलविदा कह गईं। हिन्दी साहित्यकार, शिक्षक एवं गीतकार पद्मभूषण गोपालदास नीरज, कवि, अनुवादक, फिल्म समीक्षक, पत्रकार विष्णु खरे, पूर्व प्रधानमंत्री, कवि अटल बिहारी वाजपेयी एवं भारतीय राजनीति के कई दिग्गज़ करुणानिधि, सोमनाथ चटर्जी, नारायण दत्त तिवारी, मदन लाल खुराना, आर.के.धवन ने भी बीते वर्ष ही अंतिम साँस ली। भारतीय क्रिकेटर, पूर्व टेस्ट कप्तान अजीत वाडेकर, मानवाधिकार कार्यकर्त्ता, राजनेता और सुप्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर, नोबेल पुरस्कार विजेता और मशहूर लेखक वी. एस. नायपॉल, भारतीय सूफ़ी गायक प्यारेलाल वडाली, मैहर घराने की प्रसिद्ध हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीतकार, पद्म भूषण से सम्मानित अन्नपूर्णा देवी तथा विज्ञापन जगत के चर्चित चेहरे एलेक पद्मसी के लिए भी 2018 जीवन का आख़िरी वर्ष रहा। बॉलीवुड के लिए भी यह अपूरणीय क्षति का वर्ष रहा, जिसमें दर्शकों ने अपनी चहेती अदाक़ारा श्रीदेवी, बहुआयामी प्रतिभावान चरित्र अभिनेता, संवाद लेखक क़ादर खान, प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता- निर्देशक मृणाल सेन, कल्पना लाज़मी को हमेशा के लिए खो दिया।
दुःख के साथ ख़ुशी की कई ख़बरें भी चर्चा में बनी रहीं। बॉलीवुड, खेल-जगत, उद्योगपति घरानों की शादियाँ मीडिया में छाई रहीं और कई अन्य महत्त्वपूर्ण ख़बरों को दरकिनार कर सुर्खियाँ बटोरने में पूर्ण रूप से सफ़ल रहीं।
सामाजिक स्तर पर विकास के कई गीत गाये गए, पर जमीनी हक़ीक़त और वायदों की तस्वीर एक-दूसरे से मुँह चुराती नज़र आई। अपराधों का वही जाना-पहचाना दौर चला और इनके समाधान ढूँढने की बजाय राजनीति इसकी लीपापोती और आरोप-प्रत्यारोप में समय काटती रही। संस्कृति की दुहाई देते हुए भाषायी मर्यादा, सभ्यता और शालीनता ने निकृष्टता की चरम ऊँचाइयों को स्पर्श किया जो कि अब तक जारी है। बुनियादी आवश्यकताओं से कहीं अधिक चिंता एवं प्राथमिकता नामकरण संस्कार को दी गई जिसका कहीं शानदार स्वागत तो कहीं पुरजोर विरोध हुआ। कई अच्छे निर्माण कार्य हुए, पुल बने- कुछ टूटे भी। कुछ बिल पास हुए और कुछ उम्मीद लेकर संसद की चौखट पर ठिठके रहे।
विश्व के नक़्शे पर कई मायनों में भारत ने अपनी उपस्थिति जानदार तरीक़े से दर्ज की। हमारे खिलाड़ियों ने भी हमें कई गौरवशाली पल दिए।
ये अक्सर होता है और सबके ही साथ होता आया है कि वर्ष के आख़िरी लम्हों को जीने का अहसास मिश्रित होता है। जैसे ही सुख की एक झलक आँखों में चमक बन उभरती है ठीक तभी ही समय, दुःख की लम्बी चादर ओढ़ा उदास पलों की एक गठरी बना मन को किसी एकाकी कोने में छोड़ आता है। लेकिन बीतते बरस और आने वाले बरस के बीच का ये लम्हा जितना बड़ा दिखता है, उतना होता नहीं! सारा खेल इसी क्षण का है। यही एक क्षण नई उम्मीदों, नई योजनाओं, नई महत्त्वाकांक्षाओं को जन्म देता है साथ ही पुरानी ग़लतियों को न दोहराने की कड़वी सीख भी देता है। कुल मिलाकर बारह माह बाद आत्मावलोकन की अनौपचारिक, अघोषित तिथि है यह….वरना नए साल में रखा क्या है! आम आदमी के जीवन में इससे कोई बदलाव नहीं आता पर यह नई उमंगों का संचार अवश्य करता है।
हम उत्सवों के देश में रहते हैं। जहाँ हर कोई ख़ुश होने एवं तनावमुक्त रहने के प्रमाण प्रस्तुत करना चाहता है। हमें उल्लास की तलाश है, हम मौज-मस्ती में डूबना चाहते हैं, हम चाहते हैं कि हमें कोई न टोके। ऐसे में कोई त्योहार, छुट्टी या फिर ये नया साल अवसर बनकर आते हैं, जिसे दिल खोलकर मनाने में कोई चूकना नहीं चाहता। अन्यथा इन बातों के क्या मायने हैं? सब जानते हैं कि साल बदल जाने से किसी के दिन नहीं फिरते और न ही भाग्य की रेखा चमकने लगती है। कुछ नया नहीं होता! पुरानों को ही झाड़-पोंछकर चमका दिया जाता है।
नववर्ष कैलेंडर में तिथि का बदल जाना भर है! शेष सब बाज़ार के बनाये उल्लास हैं, भीड़ है, लुभाने में जुटे व्यापार हैं। मनुष्य का इन सबकी ओर आकर्षित होना उसके सामाजिक होने का प्रथम लक्षण है। अपने सुख-दुःख के चोगे से बाहर निकल नववर्ष का स्वागत एक आवश्यक परम्परा है, जिसे सबको निभाना चाहिए क्योंकि यही प्रथाएँ हमें जीवित रखती हैं, मनुष्य की मनुष्यता से मुलाक़ात कराती हैं।
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चलते-चलते: जनवरी माह; विवेकानंद जयंती, मकर संक्रांति, गणतंत्र दिवस को साथ लेकर आता है। यदि हम विवेकानंद के मूल्यों और वचन को अपने जीवन में उतार लें तो समाज में कुछ बेहतरी की उम्मीद की जा सकती है।
स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था,
“सफलता के तीन आवश्यक अंग हैं-शुद्धता,धैर्य और दृढ़ता। लेकिन, इन सबसे बढ़कर जो आवश्यक है वह है प्रेम।”
वे लोग जो नफ़रत के बीज बोना अपनी सफ़लता का मंत्र मानते हैं, वे स्वामी जी की बात को ठीक से समझ लें।
“हम ऐसी शिक्षा चाहते हैं जिससे चरित्र निर्माण हो। मानसिक शक्ति का विकास हो। ज्ञान का विस्तार हो और जिससे हम खुद के पैरों पर खड़े होने में सक्षम बन जाएं।” उन्होंने चरित्र के निर्माण की बात की है, उसके पतन या किसी के ‘ब्रेनवाश’ की नहीं!
“मैं सिर्फ और सिर्फ प्रेम की शिक्षा देता हूँ और मेरी सारी शिक्षा वेदों के उन महान सत्यों पर आधारित है जो हमें समानता और आत्मा की सर्वत्रता का ज्ञान देती है।’
ध्यान रहे, उन्होंने मेरा-तेरा नहीं ‘समानता’ की बात की थी।
और ये शायद उन्होंने इस वक़्त के लिए ही कहा होगा –
“अगर आपको तैतीस करोड़ देवी-देवताओं पर भरोसा है लेकिन खुद पर नहीं, तो आप को मुक्ति नहीं मिल सकती। खुद पर भरोसा रखें, अडिग रहें और मजबूत बनें। हमें इसकी ही जरूरत है।”
सच! हमें इंसान बने रहने की ही जरुरत है। एक ऐसा मनुष्य जिसका एकमात्र धर्म मानवता हो और जो प्रेम, भाईचारे से जीने में विश्वास रखता हो। जो सबसे प्रेम करता है वो देश से और भी कई गुना अधिक स्नेह रखता है। देशभक्ति, दिखावे नहीं अहसास की बात है…कुछ-कुछ ‘प्रेम’ की ही तरह।
– प्रीति अज्ञात