हम चुप हैं, मौत के भय से! विरोधियों के दमन की प्रथा जो चल पड़ी है! ‘मृत्यु’ बिकाऊ है और बेहद आसान भी! पैसों की गर्मी ने, संवेदनाओं को सोख लिया है। रुपया ही बोलता है, वही चलता है! जीवन उसी को कमाने की मशीन जो बन चुका है! भावनाओं का मूल्यांकन, संबंधों की सुंदरता, बचपन की मासूमियत, किशोरों की ठिठोली और मन की संतुष्टि अब ज़रूरतों की बाढ़ में डूबकर अपने अस्तित्व की खोज में भटक रही है! यहाँ जमीन के लिए लड़ाईयां होती हैं, इस सच को जानते हुए कि एक दिन इसी जमीन के अंदर गाढ़े जाने वाले हैं, बम-विस्फोट की योजनाएं बनती हैं अपने ही देश को उड़ाने के लिए, कायदे-कानून की धज्जियाँ; खोए आदर्शों की तरह हर तरफ बिखरी दिखाई दे रही हैं।
बचपन चीखकर रोता है, एक बेबस कहीं बोझा ढोता है और काव्य की आँखों से दो बूँदें गिरती हैं; अदृश्य हो जाती हैं! चहुँ ओर एक मौन पसर जाता है, बीच में झिलमिलाती हुई मोमबत्ती थोड़ी देर जलकर, एक टूटी उम्मीद की तरह अंतत: वहीं हारकर बैठ जाती है! विरोध के स्वर उठते हैं और नया विषय मिलते ही उनकी दिशा ऐसे बदल जाती है जैसे किसी बच्चे को अगली कक्षा में प्रोमोट कर दिया गया हो और वो दौड़कर अपनी सारी पुरानी किताबें रद्दी वाले के लिए उठाकर एक कोने में पटक आता है. समय की एकत्रित हुई धूल. इसे पुराना घोषित कर देती है और इसमें रूचि समाप्त हो जाती है। ‘मृत्यु अब एक समाचार भर है।’
घोटाले कोई और करता है, दम किसी निर्दोष का घुट जाता है ! मृत्यु के कारणों की जांच होने का आश्वासन तो मिलता है पर ये भरोसा नहीं दिलाया जाता कि अब इन घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होगी! अविजित हो, जगेंद्र या अक्षय! बस, नाम ही तो अलग है और क़ातिलों के चेहरे भी ! पर सच बोलने वालों को ख़त्म किया जाता रहा है ! मौतें रोज होती हैं, कारण बदलते रहते हैं ! रोज हजारों लोग किसी-न-किसी अपराध की बलि चढ़कर अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं, परिवार ख़त्म हो जाता है, आँसू सूख जाते हैं, ह्रदय भीतर तक कसैला हो जाता है और एक परिवार समाज को घृणित भाव से देख अपनी सारी आशाएँ, किसी नदी में पार्थिव शरीर-सा प्रवाहित कर आता है! उसके विश्वास को किसने तोड़ा? इस समाज ने ही उसका सर्वस्व छीना है. इसीलिए जिस अनुपात में अपराध होते हैं, उसी अनुपात में उतनी ही नकारात्मकता समाज के प्रति बढ़ती जाती है।
विकास करना है, तो अपराध को रोकना होगा ! रोते, उदास, मायूस चेहरों से परिवर्तन की उम्मीद न कीजिये साहेब ! उन्हें हौसला दीजिये, विश्वास दीजिये, उनकी खोई मुस्कान वापिस लौटाने की हलकी-सी कोशिश भी कुछ दिलों को रोशनी से भर देगी। और गर हमारे समाज में ‘मौत’ यूँ ही सामान्य घटना बनकर रह गई तो फिर इस ‘दर्पण’ के टूटकर बिखरने में भी अधिक वक़्त नहीं लगेगा ! आख़िर झूठ कोई कब तक लिखे ? कब तक बेचे ? और क्यूँ ?
हैरान हूँ…जब सभी दुःखी हैं तो ये दुःख देता कौन है? खुद के गिरेबान में कितनों ने झाँका है? समाज बुरा है: हाँ निस्संदेह है! रह कौन रहा है इसमें? कवि ह्रदय क्या लिखे? क्या पढ़े? क्या देखे? वेदना को मसोसते हुए झूठी तसल्लियाँ दे? या कि लाशों के ढेर से मुँह फेरकर, अपनी दो वक़्त की रोटियों की फ़िक्र करे?
– प्रीति अज्ञात