दोपहर की धूप में……..!
एक तरफ ‘पर्यावरण दिवस’ को जोर-शोर से मनाये जाने की चर्चा है, जगह-जगह वृक्षारोपण किया जा रहा है वहीँ दूसरी ओर चिलचिलाती धूप, असहनीय गर्मी और वर्ष-दर-वर्ष बढ़ रहा तापमान इस दिशा में किये जा रहे प्रयासों की सफलता को लेकर मन आशंकित भी करता है। कहीं ‘ग्लोबल वार्मिंग’ से लड़ने के लिए वृक्ष लगाए जा रहे हैं तो कहीं आधुनिकता और विकास के नाम पर गगनचुम्बी इमारतों का निर्माण, जंगलों को निर्ममता से काट फेंकने पर परहेज़ नहीं करता। पर्यावरण संतुलन बनाये रखने के लिए व्यक्ति विशेष की भागीदारी अब नितांत ही आवश्यक बन पड़ी है।
हर मौसम आता है-जाता है, पर ग्रीष्म जैसे यहीं ठहर जाता है। लम्बे, उबाऊ, नीरस दिन-रात अब उतने आनंददायक नहीं लगते। मन-मस्तिष्क दोनों ही शिथिल हैं, यात्रा और अपनी-अपनी नौकरी पर जाना सर्वाधिक पीड़ादायी लगने लगा है। ‘हिल स्टेशनों’ की ओर क़दम उस उत्साह से बढ़ते ही नहीं, वो ठंडी पुरवाईयाँ और छत पर मरफी ट्रांजिस्टर के साथ, आसमां को सुकून से देखते हुए सो जाना अब स्वयं ही स्वप्न-सा हो गया है। फिर भी गुलज़ार की लेखनी से निकल, भूपेंद्र और लता जी द्वारा श्री मदन मोहन जी के संगीत निर्देशन में गाया ‘मौसम’ फिल्म का यह गीत आज भी संगीत-प्रेमियों के ह्रदय को हौले-से सहला जाता है…..
“या गरमियों की रात जो पुरवाईयाँ चलें
ठंडी सफ़ेद चादरों पे जागें देर तक
तारों को देखते रहें छत पर पड़े हुए
दिल ढूँढता है…
फिर वही फ़ुरसत के रात-दिन……..”
आज के युवा वर्ग में सनस्क्रीन क्रीम से त्वचा को सुरक्षित रखना ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। संचार की आधुनिकतम तक़नीकेँ उन्हें घर बैठे ही अपने प्रियतम से मुलाक़ात कराने में सहायक सिद्ध हुई हैं। ऐसे में ग़ुलाम अली साहेब की गायी ये ग़ज़ल अब अधेड़ावस्था में प्रवेश कर चुके प्रेमियों को उनके बीते समय में ले जाकर चुपके-से छोड़ आती है…
“दोपहर की धूप में, मेरे बुलाने के लिए
वो तेरा कोठे पे, नंगे पाँव आना याद है
हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है
चुपके-चुपके रात-दिन….”
तन गर्मी से त्रस्त है, दिमाग़ की हालत पस्त है। लेकिन मौसम कोई भी हो, उसका मज़ा लेने का पूरा प्रयत्न होना ही चाहिए, चाहे वो ‘आम’ की मिठास में घुलकर आपके ह्रदय को प्रफुल्लित कर दे या फिर बर्फ का गोला बन चुपके-चुपके मन में शीतल फुहार बन पहुँचता रहे; साथ ही पार्श्व में चल रहे सुरीले गीतों की धुन, कहीं तो आराम देगी ही।
चलते-चलते : यह ग्रीष्मावकाश बच्चों के लिए अत्यधिक दर्द भरा रहा क्योंकि इन्हीं छुट्टियों में उन्हें भावुक मन से अपनी प्यारी ‘मैगी’ को अलविदा कहना पड़ा। खैर… उनके चेहरों की उदासी, इसके विकल्प को तलाशने के लिए भी प्रेरित करती है। हमारी देसी सेवईयों को अब नयी साज-सज्जा से संवारकर परोसने की तैयारियाँ, हिंदुस्तानी माँ की सृजनशीलता और पाक-कला में निपुणता का जीता-जागता उदाहरण है। यदि भारतीय थाली को विज्ञापन के जरिये, प्रचारित किया जाए तो वो दिन दूर नहीं जब इन प्यारे नन्हे-मुन्नों का रुझान उस तरफ भी अवश्य ही होगा। खाद्य-उत्पादों को लेकर, बच्चों की समझ विकसित करने का यह अत्यंत ही सुनहरा अवसर है।
‘मैगी’ पर प्रतिबंध, निस्संदेह प्रशंसनीय क़दम है; पर क्या यही एक ऐसा उत्पाद है जिसके हानिकारक प्रभाव की जानकारी मिली है? धूम्रपान से निकलता ज़हर अस्थमा के मरीज़ों के लिए जानलेवा सिद्ध होता है और इसे सेवन करने वाले भी ‘धीमी आत्महत्या’ को तनावमुक्त होने का सुविधाजनक नाम दे दिया करते हैं। यही स्थिति एल्कोहल की भी है, जो न सिर्फ़ शरीर को भीतर-ही-भीतर ख़त्म करती है बल्कि सड़कों पर भी इसका असर स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। कभी गाड़ियों से कुचलता शरीर तो कभी किसी नाली में पड़ा इंसान. अपराध या दुर्घटना के लिए भी कितनी ही बार ‘नशे’ को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। इनसे हुई मौतें मात्र व्यक्ति की नहीं, ‘परिवार’ की होती हैं। “इनका सेवन सेहत के लिए हानिकारक है”….लिख देने से ही किसी का स्वास्थ्य नहीं सुधर जाएगा. क्या प्रत्येक भारतवासी को स्वस्थ व स्वच्छ वातावरण में जीने का अधिकार नहीं? नशामुक्ति और धूम्रपान की लत छुड़ाने वाले केंद्र तो खूब खुल रहे हैं लेकिन पैकेटबंद ‘कैंसर’ की बिक्री पर आज तक रोक क्यों नहीं लग सकी ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि “ज़हर में मिलावट की जाँच ही नहीं होती!”
– प्रीति अज्ञात