ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
है ग़मों की मेहरबानी पर ख़ुशी गुस्से में है
लगता है मुझसे मेरी ज़िन्दगी गुस्से में है
प्यार में जो रूह की जानिब नज़र रखते नहीं
ऐसे-ऐसे आशिक़ों से आशिक़ी गुस्से में है
ये रदीफ़ो-क़ाफ़िया से आशना बिलकुल नहीं
फेसबुकिए शायरों से शायरी गुस्से में है
आप थे मुझसे ख़फ़ा तो फिर सभी खुश थे बहुत
हो मुख़ातिब मुझसे अब तो हर कोई गुस्से में है
चीख सुनकर हाथ जो जेबों से निकले ही नहीं
उनमें कैंडल देखकर वो लाडली गुस्से में है
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ग़ज़ल-
कभी सूरज ,कभी चंदा सितारे बात करते हैं
अगर हो साथ तुम तो सब नज़ारे बात करते हैं
नदी, पर्वत, समुन्दर, पेड़, झरने, ओस की बूँदें
सुनो जो तुम तो ये सारे के सारे बात करते हैं
अचानक ही बड़ी अच्छी-सी लगने लगती है दुनिया
वो जब महबूब के दिलकश इशारे बात करते हैं
वे सिग्नल पर खड़े बच्चे, वे कूड़ा बीनने वाले
कभी सुनना कि वे क्या-क्या बेचारे बात करते हैं
जो हैं बदराह पर और घूसखोरी जिनकी फितरत है
मैं हैरां हूँ कि वे किसके सहारे बात करते हैं
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ग़ज़ल-
देखते हैं ग़म में सब उसके ठिकानों की तरफ
कोई पूजा की तरफ, कोई अज़ानों की तरफ
तुम तो हीरे की चमक में खो गये सब भूलकर
सोच को मोड़ो ज़रा थोड़ा खदानों की तरफ
फेर में बकरी के पड़कर शेर वो मरता नहीं
देख लेता वो अगर पहले मचानों की तरफ
वे जिन्होंने झोपड़ी पर फेंकी जलती तीलियाँ
अब हवा चलने लगी, उनके मकानों की तरफ
बोझ ईंटों का है सर पर और बच्चा गोद में
देखता हैरत से हूँ उस माँ के शानों की तरफ
आज ये पढ़ लेंगे कल, रोशन करेंगे देश को
रोक लो बढ़ते कदम ये कारखानों की तरफ
– पंकज त्यागी असीम