ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
ये सारी ज़िन्दगी मँहगी पड़ेगी
मुझे तेरी कमी मँहगी पड़ेगी
तू क़तरा है फ़क़त और मैं हूँ सूरज
मेरी नाराज़गी मँहगी पड़ेगी
मुहब्बत चाँद से हो तो चुकी है
मगर ये आशिक़ी मँहगी पड़ेगी
मेरी बिटिया खिलौना माँगती है
मुझे उसकी ख़ुशी मँहगी पड़ेगी
मैं हक़गोई रक़म करता हूँ देखो
मुझे ये शाइरी मँहगी पड़ेगी
मुकम्मल तिश्नगी वो, ‘नीर’ हूँ मैं
तो फिर ये दोस्ती मँहगी पड़ेगी
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ग़ज़ल-
ख़ुद अपनी शक्ल से उकता गया हूँ
तो हर आईने को झुठला गया हूँ
मैं सूरज के लिए भी रूक न पाया
अँधेरा था मगर चलता गया हूँ
मैं उर्दू-हिन्दी का इक मुद्दआ हूँ
बड़ी फ़ुर्सत से सुलगाया गया हूँ
कई रस्मों-रिवाज़ों की बदौलत
ख़ुद अपनी क़ैद में पाया गया हूँ
मसीहा तो नहीं था किसलिए फिर
सलीबों पे मैं लटकाया गया हूँ
फ़क़त काग़ज़, कलम और रोशनी से
दिलों पर आज सबके छा गया हूँ
जो कि हक़गोई तो मुजरिम बना के
जहां को आज दिखलाया गया हूँ
सदफ़ की क़ैद में गौहर के जैसा
बदन के पिंजरे में पाया गया हूँ
मैं ऐसा ज़ख़्म हूँ जो भर न पाया
तो बनके ‘नीर’ सा रिसता गया हूँ
– निधि नीर