धरोहर
महाप्राण निराला (21 फरवरी 1899 – 15 अक्टूबर 1971)
‘दुःख ही जीवन की कथा रही’ लिखने वाला जब ‘राम की शक्तिपूजा’ लिखता है, तुलसीदास, बेला, अणिमा, कुकुरमुत्ता, नये पत्ते, अर्चना, आराधना जैसी रचनाओं का सृजन करता है तो लगता है जैसे कवि का पौरुष संघर्षों के बीच से सृजन का बीज बो रहा है। उसके भीतर का विषाद ‘स्व’ की सीमा से ऊपर उठकर सम्पूर्ण मानवता को सुखी बनाने की ओर अग्रसर होने लगता है। महाकवि की रचनाओं में उनका निबंध व्यक्तित्व और स्वच्छंद जीवन दर्शन की प्रतिध्वनि हमें सुनाई पडती है।
निराला का सौन्दर्य बोध उनकी संवेदना से मिलकर दुःखी मानवता को सुख प्रदान करने की ओर अग्रसर हुआ है। उनकी कविताओं में जाग्रत चेतना ध्वनित हुई है। नव जागरण को वे मानव मुक्ति से जोड़कर देखते हैं। निराला ने स्वच्छंद जीवन दर्शन की अभिव्यक्ति के लिए कविता की मुक्ति की भी कामना की। ‘परिमल’ की भूमि में वे कहते हैं “मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी पुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कार्यों के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग हो जाना। जिस तरह मुक्त मनुष्य कभी किसी तरह भी दूसरे के प्रतिकुल आचरण नहीं करता, उसके तमाम कार्य औों को प्रसन्न करने के लिए होते हैं, इसी तरह कविता का भी हाल है। मुक्त काव्य कभी साहित्य के लिए अनर्थकारी नहीं होता, प्रतित्युत उससे साहित्य में एक प्रकार की सर्वाधिक चेतना फैलती है… ।(पारिजात)
निराला की आरंभिक छायावादी अनुभूति जैसे–जैसे मुखरित हुई, वह लोक जीवन से जुड़ते गए। उनमें पीड़ित संतप्त और निराश जनों के लिए कष्टों से मुक्ति की प्रबल आकांक्षा का भव प्रबल होता गया। डा. रामविलाश शर्मा ने निराला में लिखा है- ‘पिछले दस वर्षों में छायावाद के अनेक प्रसिद्ध लेखक काल्पनिक साहित्य की रचना से मुँह मोड़कर समाज के यथार्थ जीवन की ओर झुके और साहित्य में एक नई प्रगतिशील धारा के अगुआ बने- यह बात भी हिन्दी पाठकों से छिपी नहीं है। इन कवियों में निराला और पंत का कार्य मुख्य है।
यह कटुसत्य है कि आरंभिक दिनों में इनके कार्यों को सही सम्मान नहीं मिला। “बहुत से आलोचक उनके नए प्रयोगों की उपेक्षा करने लगे। इस संबंध में डा. रामविलाश शर्मा ने लिखा है कि –“बहुत से लोग उनके नए प्रयोगों को वैसे ही हँसकर उड़ा देना चाहते हैं जैसे किसी समय उनके पूर्ववर्ती आलोचकों ने उनकी छायावादी रचनाओं को उड़ाना चाहा था।
मनुष्य के प्रति सृजनकर्ता के दायित्व बड़े है। सजग रचनाकार को इन दायित्वों के अनुरूप ही अपनी संवेदना, अपनी चेतना का विस्तार करना होता है। वह अपने व्यक्तिगत संघर्ष तथा अपनी निजी सुखदुखात्मक अनुभूति तक सीमित करके नहीं रह सकता। निराला ने समाज और जीवन के प्रति अपने काव्य दायित्वों का निर्वाह ‘स्व’ की सीमा से विमुक्त होकर पूरी जिम्मेदारी के साथ किया।
महाप्राण निराला की रचनाओ में जागृति, चेतना और प्रगति का स्वर मुखर हो उठता है। निश्चय ही ‘राम की शक्ति पूजा’ अंधकार से होकर प्रकाश में आने की कविता है। रवि हुआ अस्त.. से आरम्भ हुई कविता में कवि अंधकार को प्रभाव से भूमिका में दिखाता तो है किन्तु पुनः राम स्वयं को तपते हुए अनुभव करते हैं और धीरे-धीरे उनकी यह तपन पूरी प्रकृति में स्पंदित होने लगती है। किसलयों का कांपना, फूलों से पराग का प्रसव, खगों द्वारा नये जीवन का कलरव-गान तथा स्वर्गीय ज्योति के प्रपात का झरझर उनकी अपनी ही अनुभूति का व्यापक विस्तार है।
जिस प्रकार वैयक्तिक अनुभूति का समष्टिगत अनुभूति से तारतम्य निराला ने स्थापित किया है, जिस प्रकार निराशा की भूमि पर आशा के आलोक का दर्शन उनकी रचनाओं में होता है ये वह अद्वितीय है।
इसी प्रकार पुत्री ‘सरोज’ की मृत्यु के दुःख से इतर पिता जब कवि के रूप में ‘सरोज स्मृति’ की रचना करता है तो वह निवैयक्तिक हो जाता है।
‘सरोज स्मृति’ के सौन्दर्य चित्रण में भी पाठक शोक को शक्ति में परिवर्तित होते देखते हैं। निराला के स्वच्छंद व्यक्तित्व में नव जागरण का बीज है। एक उर्जस्विता है। तभी तो प्रसाद ने कहा-
“अवयव की दृढ़ मांसपेशियाँ
उर्जास्वित था वीर्य अपार
स्फित शिरायें, स्वस्थ रक्त का होता था जिनमें संचार”
निराला का जीवन अभाव, वियोग और संघर्ष का रहा। उनके जीवन संघर्ष की कथा से कौन अवगत नही है। बचपन में मातृ वियोग, क्रुरता के हद तक पहुँचने वाला पिता का अनुशासनात्मक/दंडात्मक व्यवहार का मातृहीत भावुक हृदय बालक पर क्या प्रभाव पड़ा होगा, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। पिता के इस व्यवहार का उल्लेख करते हुए निराला ने कहा है- ‘मारते वक्त पिता जी इतने तनमन्य हो जाते थे कि उन्हें भूल जाता था कि दो विवाह के बाद पाए इकलौते पुत्र को मार रहे हैं। चार-पाँच साल की उम्र से अब तक एक ही प्रकार का प्रहार पाते-पाते सहनशील भी हो गया था मैं भी स्वभाव न बदल पाने के कारण मार खाने का आदी हो गया था और प्रहार की हद भी मालूम हो गयी थी।“
बाल्यकाल की प्रताड़नाओं के कारण निराला निर्भीक हो गए और निर्भीकता ने उन्हें स्वच्छंद और उन्मुक्त बनाया। निराला का विवाह जीवन की आरम्भिक तरुणाई में ही हो गया। 20 वर्ष की उम्र आते-आते पत्नी वियोग की असहय वेदना भी उन्हें सहनी पड़ी। उन्हीं दिनों महामारी में पिता तथा चाचा का भी देहावसान हो गया। अपनी दो संतान के अतिरिक्त चार भतीजों का भार भी युवक निराला के कंधों पर आ गया। इस प्रकार वियोग, अभाव को निराला ने अत्यंत करीब से देखा। कितु वे हताश नहीं होते थे। श्रेष्ठ सृजनकर्ता की तरह निराला के अपने जीवन के को आम जीवन के दुःखों से जोड़कर उसे इस दुख सार्वभौमिक बना दिया। उनमें अभाव ग्रस्त जीवन का एहसास, सामान्य जन की व्यथा-कथा को गहराई से अनुभव करने की संवेदना जागृत हुई। भीख मांगते भिक्षुक की दीन-दशा, गर्मियों के दिन में दिवा के तमतमाते तेवर में पत्थर तोड़ती उस महिला की संवेदना की अनुभूति, उनकी विवशता… सब जैसे निराला को बेचैन कर देती थी। भिक्षुक के भूख-प्यास से ऐंठता शरीट पेट-पीठ का एक होना और कलेजे का दो टूक होने का चित्रण निराला के इसी अनुभूति की तीव्रता, एहसासों की गहरायी को दर्शाता है। कारुणिक बिम्बों के निर्माण में तो निराला को महारत हासिल है। शब्द से चित्र बनाते हुए निराला की तूलिका से इतने ‘शेड्स’ निकलते हैं कि उन चित्रों में वे प्राण प्रतिष्ठा कर देते हैं।
इन पंक्तियों को देखें-
“बाये से वे मलते हुए पेट को चलते और दाहिना दया-दृष्टि
पाने की ओर बढ़ाये।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य-विधाता से क्या पाते?
घूँट आंसुओं के पीकर रह जाते
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए ,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी है अड़े हुए” (परिमल, भिक्षुक कविता से)
इस तरह के अनेक चित्र निराला की कविताओं में सहज ही हम देख पाते हैं।
“देखते देखा मुझे तो, एक बार
उस भवन की ओर देखा छिन्न तार
देखकर कोई नहीं
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई वहीं
सजा सहज सितार
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी इंकार ।
एक क्षण के बाद वह कॉपी सुधर,
दुलक माथे से गिरे सीकर
लीन होते कर्म से फिर ज्यों कहा
मैं तोइती पत्थर….. ।“
निराला छायावाद से प्रगतिवाद की ओर अग्रसर हुए हैं। किन्तु आरंभ से ही उनकी रचना में एक नवीनता रही है। जीवन सत्य की व्यंजना उनका मूल उद्देश्य रहा है। और उसके लिए वे किसी भी परंपरा बंधन को चुनौती देते रहे हैं।
महाकवि निराला ने अपनी रचनाओं में मतवाला काल से ही छंदों के बंधों को तोड़ने का उपक्रम शुरू किया और अधिकांश रचनाएं मुक्त छंद में ही आरंभ कर दी। इन रचनाओं में उनके विद्रोही स्वर और गतिशील विचार तत्व सहज ही देखे जा सकते हैं। निराला ने कभी इस बात की परवाह नहीं की। वे एकांत साधक की तरह हिन्दी का अमृत कलश भरते रहे।
उनके काव्य में सर्वत्र एक स्वाधीन चेतना की अनुभूति मिलती है। लेकिन उनकी इस चेतना में एक तरह का अनुशासन है। वे विचलित नहीं होते। उनकी प्रगतिशील विचार धारा भारतीय सांस्कृतिक धारोहर को ध्वस्त नहीं करती। मेरी दृष्टि में आधुनिकता का अर्थ समस्त प्राचीन मान्यताओं,संस्कृति तथा परम्पराओं को खारिज करना नहीं होता बल्कि उसे नए संदर्भों में देखना होता है। परिवेशगत जागरुकता के साथ उसे नव चेतना को स्वीकार करना होता है। प्रगतिशीलता का अर्थ नवचेतना से है जो पुरानी चेतना को रूपांतरित करके नए रूपों में अभिव्यक्त करती है। जो कुछ पुराने में समस्या परक है उसका नए में पुनरावृत्ति नहीं होती है, और जिस कारण से समस्या पैदा होती है, उसके समग्र समाधान का समावेश भी नए में होता है। प्रगतिशीलता एक जागरुक विवेक है जिसके आधार पर कोई अपने हित-अहित, उचित-अनुचित को ठीक तरह से देख समझ सके। निराला में हम विवेकपूर्ण जागरुकता सर्वत्र देखते हैं।
निराला में असाधारण साहित्यिक मर्यादा थी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने निराला के इस गुण का विश्लेषण करते हुए लिखा है- “विद्रोह के स्वर में बोलने वाले साहित्यकारों की इस युण में कमी नहीं। पुरातन विधि-निषेध -व्यवस्था को खुली चुनौती देना आजकल की अति परिचित घटना है। सनातन समझी जाने वाली नैतिकता निसंदेह आजकल सबसे प्रधान मंतव्य मानी जाने लगी है। किन्तु इस प्रकार की चुनौती देने वाले प्रायः संतुलन खो बैठते हैं; व्यवस्था का विरोध प्रायः उच्चूंखलता के द्वारा किया जाता है। …..किन्तु निराला के काव्य में इतना विद्रोह और ललकार होने पर भी उच्चश्रंखला और नियमार्दित वाचालता नहीं आने पायी है। इसका कारण यह है कि निराला जी को अपना लक्ष्य ठीक मालूम है। अच्छा डॉक्टर रोग पर आक्रमण करता है रोगी पर नहीं। और इसी लिए उसके सारे प्रयत्नों की एक सीमा होती है। यदि उसके प्रयत्न रोग को नष्ट करने के बाद रोगी को भी नष्ट करने लगे तो निःसंदेह वह अवांछनीय डॉक्टर है। निराला जी के कठोर-से-कठोर आक्रमण भी मर्यादित है, जो साहित्य के कल्याण की ही मूल होती है ।“
बंगाल में जन्म होने के कारण निराला जी की मातृभाषा बंगला थी। बंगाल की संस्कृति और संस्कृत भाषा के साथ-साथ अंग्रेजी का सानिध्य हुआ और इन तीन भाषाओँ के संस्कार के साथ वे हिंदी में आये। भारतीय दर्शन के गहन अध्ययन के कारण उनकी अभिव्यक्ति में प्रोढ़ता हमें सर्वत्र मिलती है। जिसका उदाहरण रामकृष्ण मिशन की ओर से प्रकाशित ‘पत्रिका’, ‘समन्वय’ है, हिंदी पत्र ‘मतवाला’ में उनका संपादन कौशल दीखता है।
निराला से जुड़े इस प्रसंग पर रामविलास शर्मा लिखते हैं – “आर्थिक दृष्टि से वे विशेष सुखी या समृद्ध न थे, फिर भी पहले जैसा कष्ट नहीं था। मैली तहमद, लम्बे रूखे बाल, कुर्ता गले में बंधा हुआ, फटी चप्पल या नंगे पैर, इस वेश में अमीनाबाद की सारी स्थायी जनता उन्हें पहचानती थी।“
निराला जी कर्मठ अध्य्वासी थे। सतत जागरूक। नलिन विलोचन शर्मा ने ठीक ही कहा है- “निराला जी जॉनसन की तरह कर्मठ और अध्यवासाई, लार्ड वाइरन जैसे उद्भट प्रत्यालोचक,कीट्स और टैगोर की तरह सुकवि और टोलस्टाय, ह्यूगो और शॉ की तरह निर्भीक क्रान्तिकारी औपन्यसिक हैं।
निराला से जब अंग्रेजी भाषा के विद्वानों के बारे में कैलाश कल्पित ने पूछा कि उनके प्रिय पात्र कौन है तो उन्होंने बैसवारी में उत्तर दिया जिसे उद्धृत करना निराला को जानने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। “शेक्सपीयर और मिल्टन की जौन चीज मिले पढ़ लेवो। इनके तई लिखने वाले कम ही हुए हैं। किट्स और शैली भी लिखिन हैं मगर मनन और लायक कर्म है। वर्ड्सवर्थ- अंग्रेजी के छायावादी कवि रहा। अब आजकल के अंग्रेज का लिखत है पता नहीं। हम तो बहुत दिनों से नया साहित्य छुआ नहीं। उई से अंग्रेजी की बातें का है। दुनिया केर सब साहित्य ही या है। हां कल्पना के उड़ान संस्कृत में मिलती है ऊ कहूँ नहीं। हम तो अंगरेजों से कहते थे मेघदूत पढ़ो मेघदूत।”
निराला जी एक सच्चे राष्ट्रभक्त थे। ‘महाराज शिवाजी का पत्र’ में निराला की राष्ट्रभक्ति का भाव मुखर है उनके क्रांतिकारी मन का थाह हमें इसमें मिलता है। देखे इन पंक्तियों को-
“हैं जो बहादुर समर के,
वे मर के भी
माता ही बचाएंगे।
शत्रुओं के खून से
धो सके यदि एक भी तुम मां का दाग,
कितना अनुराग देशवासियों का पाओगे!
निर्जर हो जाओगे,
अमर कहलाओगे….. ।“
जागो फिर एक बार और ‘बादल राग’ जैसी कविताओं में निराला जी का क्रांतिकारी मानवीय स्वर तो मानो जागरण का मंत्र है। जागो फिर एक बार की इन पंक्तियों को देखें-
“सिंह की गोद से
छीनता रे शिशु कौन?
मौन भी क्या रहती वह
रहते प्राण? रे अजान !”
निराला का भाषा पर अद्भुत अधिकार था। उनके शब्दों में उनके भाव सटीक ध्वनित हुए हैं। उन्होंने शव्यसाची की तरह तुकांत और अतुकांत में समान अधिकार से सृजन किया है। निराला के गीतों में शब्दों का चयन ऐसा है जिससे उसमें व्यंजित भावों को परत दर परत उकेरा जा सके। तद्युगीन चर्चित रचनाकार नरेश ने लिखा है कि- निराला के गीतों में एक विशेषता है- हर गीत की गहनता (इंटेंसिटी) महाकाव्य की है- कैलाश दर्शन से कुकुरमुत्ता तक में। उनके काव्य का एक-एक शब्द जीवंत, प्राणशक्ति से पूर्ण और सशक्त है। शब्दों का प्रयोग इस प्रकार किया गया है कि उनकी शक्ति की संभावनाओं को अधिक से अधिक गृहित (एक्सप्लॉयट) किया जा सके।
अंग्रेजी में लिखे एक निबंध में डॉ. दामोदर ठाकुर ने लिखा है “poets build the standard of their language that is why perhaps no comparison within Hindi poentry will so very clearly what Nirala has done for the language.”
निराला संघर्ष और दुख से पराजित नहीं होते। वे उससे लोहा लेते दिखते हैं। जानकी वल्लभ शास्त्री ने निराला पर लिखे एक निबंध में कहा है- “निराला की कविता की सुनहरी तरुणाई ‘परिमल’ से ‘तुलसीदास तक’ रूप, रस, गंध की पर्तों पर पर्तें बिछाती गई। एक जगह उन्होंने लिखा है- देव दुर्लभ मानवता रक्त मज्जा वाले आदमी की सूरत से ढल चली थी; ह्रदय से अमृत में आंसू, पसीने और खून की सर्दी गर्मी भी धुलने लगी थी। और निराला ने ‘कुकुरमुत्ता’, ‘बेला’ और नए पत्ते में धरातल बदल दिया। नई जिंदगी के पांव के नीचे की जमीन टटोलने और अपनी नई कविता के लिए नए प्रतीक और प्रतिमान गढ़ते हुए निराला ने यह गुर पा लिया था।
सच निराला ने हिंदी को जितना दिया उसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है। एक बार उनसे जब पूछा गया कि “हिंदी की जो सेवाएं आप ने दी है उसके बदले में आप कैसी सेवा चाहते हैं? निराला ने उत्तर में कहा कि- “हिंदी वालों पर मैंने कोई एहसान नहीं किया है और ना मैं उसके बदले व्यवहार में कुछ चाहता हूं। हिंदी हमारी है और उसके लिए जो कुछ हमसे बन पड़ा हमने किया।”
वास्तव में वे एक ऐसे साधक के रूप में हिंदी में अवतरित हुए जिन्होंने संघर्ष के बीच रहकर, उसेसे लोहा लेते हुए सृजन का बीज बोया। उनकी समस्त रचनाएं इसकी गवाही देती है।
जीवन और परिवेश के कण-कण में अपनी रचना से शक्ति का संचार करने वाले कवि स्वयं दुख अभाव और तिरस्कार झेल कर भी विचलित नहीं हुआ। भटका नहीं। उसने ऐसी परिस्थितियों के सामने हथियार नहीं डाला बल्कि डटकर लोहा लिया। पराजय और पलायन के चिन्ह निराला में नहीं हैं, इसका कारण उनका अपने ऊपर अखंड विश्वास और जनता की शक्तिओं पर अटूट आस्था है। परिस्थितियों से घबड़ाकर भागे नहीं उनका डटकर मुकाबला किया।
– नीरज कृष्ण