जो दिल कहे
..और कितनी निर्भया बनेंगी देश की गुड़िया?
जब भी बलात्कार की कोई घटना सामने आती है तो तरह-तरह के शब्दों से उसकी भर्त्सना की जाती है। उनमें से एक शब्द है पाशविक। लेकिन बलात्कार को पाशविक कहना पशु का अपमान है, क्योंकि कोई पशु बलात्कार नहीं करता, सिवाय मनुष्य के। मनुष्य भी एक पशु ही है, लेकिन वह स्वयं को पशुओं से अधिक विकसित मानता है, क्योंकि उसके पास बुद्धि है, मन है। पशु शब्द का अर्थ होता है- जो पाश में पड़ा हो, बंधन में पड़ा हो। धन का बंधन है। पद का बंधन है। मोह के बंधन हैं। लोभ के बंधन हैं। क्रोध के बंधन हैं और सबसे बड़ा सेक्स का बंधन है। इस पृथ्वी पर बहुत थोड़े-से ही मनुष्य हुए हैं, जो इस पशुता को पार कर गए हैं।
लेकिन पशुओं में ऐसी वृत्तियां नहीं होतीं, जैसी मनुष्य में होती हैं। बलात्कार के लिए अत्यंत दमित और विकृत मानसिकता की ज़रूरत होती है, जैसी आधुनिक मनुष्य की हो गई है। हमें पशुओं का सम्मान करना सीखना चाहिए, क्योंकि वे इन मामलों में आदमी से बेहतर हैं। मनुष्य जब आदमियों को मारता है या बलात्कार करता है, तो वह बहुत ही गैर पाशविक काम करता है। सदियों से सिखाई हुई नैतिकता ने नैसर्गिक वृत्तियों का दमन करवाया। और दमन से सिर्फ पाखंड पैदा हुआ है। इससे आदमी की ज़िंदगी दोहरी हो गई है। बाहर कुछ, भीतर कुछ।
जब समाचार-पत्र में पढ़ा कि शिमला में सामूहिक दुष्कर्म के एक आरोपी ने दूसरे आरोपी की हत्या पुलिस की उपस्थिति में थाने में कर दी, जिससे क्षुब्ध हो स्थानीय नागरिकों ने काफी उग्र प्रदर्शन किया और चारों तरफ इस घटना की निंदा हो रही है, शायद इसे दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि पीड़िता के साथ तो शारीरिक बलात्कार हुआ है और उस पीड़िता के बहाने हम इसे सार्वजनिक रूप से उसके परिवार का मानसिक बलात्कार कर रहे हैं। इस तरह के हादसे के बाद माँ-बाप खुद को हादसे के लिए जिम्मेदार मानना शुरू कर देते हैं। सभी वक्ता नैतिकता का चश्मा पहनकर बलात्कार की भीषण समस्या का इलाज ढूंढ रहे हैं लेकिन किसी ने भी फ्रायड की बात नहीं की। फ्रायड ने मन के तीन तल खोजे हैं- चेतन, अवचेतन और पराचेतन। मनुष्य की सभी कुंठाएं, यौन ग्रंथियां अवचेतन में दबाई जाती हैं और वे ही बलात्कार जैसे काम करवाती हैं। और यह दमन बचपन में परिवार में ही सिखाया जाता है। अत: इलाज़ परिवार का किया जाना चाहिये। फ़्रांसिसी दार्शनिक स्टेनडाल कहते हैं, “स्त्री विलक्षण बौद्धिकता ले कर जन्मती है, वह समाज के स्वार्थ में ख़त्म हो जाती है।”
National Crime Report Beuro के अनुसार देश की राजधानी दिल्ली में ही प्रतिदिन 3 लड़कियां दुष्कर्म की शिकार होती हैं। जून 2017 तक दिल्ली में दुष्कर्म के 930 मामले दर्ज हो चुके हैं। 2015 में बच्चियों के साथ दुष्कर्म की 927 वारदातें हुईं। इनमें से 585 वारदातों में पीड़िता की उम्र 16 वर्ष से कम थी। इसके अलावा 95 फीसद आरोपी पीड़िता के परिचित थे या उसके पड़ोसी थे। अपनी पहचान को छुपाने के लिए अपराधी दुष्कर्म के बाद पीड़ित की हत्या कर देते हैं। सिर्फ 3 फीसद मामलों में ही आरोपी अपरिचित पाये गये हैं। भारत का गृह मंत्रालय (दिल्ली पुलिस इनके ही अधीन आती है) इस तरह की घटना को रोकने में बिल्कुल ही नकारा साबित हो रहा है या फिर इन मामलों पर ध्यान देना गैर-ज़रूरी समझता है।
सुदूर जंगलों में रहने वाले आदिवासी समाज मे कभी भी बलात्कार या दुष्कर्म जैसी घटनाएँ कभी भी नहीं होती हैं। हम तो सभ्य हैं, सुसंस्कृत हैं, हमारे बीच तो बलात्कार के विचार भी नहीं आने चाहिए। मगर जितने सभ्य, जितने सुसंस्कृत, उतना ज्यादा बलात्कार। आदिवासी जंगली हैं, मगर बलात्कार नहीं करते। क्या कारण होगा? कारण यह है कि वे लोग प्रकृति के साथ जीते हैं, उनके भीतर नैतिकता द्वारा सिखाया हुआ दमन नहीं है। अब दमन की नैतिकता नहीं चलेगी। मनोविज्ञान को समझकर, प्रकृति के साथ जीकर बच्चों को पालना होगा, तब ही सुसंस्कृत और सभ्य समाज को इस बदनुमा दाग़ से निजात शायद मिल पाएगी और उस दिन के बाद ही पुरुष समाज जयशंकर प्रसाद की पंक्तियों (लज्जा– कामायनी) पर गर्व कर सकेगा-
“नारी! तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत- नग- पगतल में।
पीयूष स्त्रोत-सी बहा करो,
जीवन के सुदंर समतल में।”
– नीरज कृष्ण