आलेख/विमर्श
अंतरिक्ष विज्ञान का दधीचि: डॉ. कलाम
“………मैं यह बहुत गर्वोक्तिपूर्वक तो नहीं कह सकता कि मेरा जीवन किसी के लिए आदर्श बन सकता है; लेकिन जिस तरह मेरी नियति ने आकार ग्रहण किया, उससे किसी ऐसे ग़रीब बच्चे को सांत्वना अवश्य मिलेगी, जो किसी छोटी-सी जगह पर सुविधाहीन सामाजिक दशाओं में रह रहा हो। शायद यह ऐसे बच्चों को उनके पिछड़ेपन और निराशा की भावनाओं से विमुक्त होने में अवश्य सहायता करें।”……डॉ. कलाम
कुछ व्यक्तित्व इतने विराट होते हैं कि उनके बारे में कुछ कहने में भाषा भी मूक हो जाती है। डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम भारतीय ऋषि परंपरा के ऐसे ही महापुरुष थे। आधुनिक भारत के इतिहास में 27 जुलाई, 2015 एक ऐसे दिन के रूप में याद किया जाएगा, जब भारत रत्न डॉ. कलाम के रूप में अपने ज्ञान, विज्ञान और प्रज्ञान से देश को आलोकित करने वाली ज्योति…… परम ज्योति में विलीन हो गई।
डॉ. अब्दुल कलाम क्या थे, यह कहने से ज्यादा यह कहना उपयुक्त होगा कि वह क्या नहीं थे। भारतीय जीवन मूल्यों के मूर्तिमत स्वरूप डॉ. कलाम एक ज्योतिर्मय प्रज्ञा-पुरुष थे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. कलाम उत्कृष्ट वैज्ञानिक, मौलिक विचारक, गंभीर आध्यात्मिक-साधक, कवि, संगीत-प्रेमी, कुशल वक्ता, प्रशासक एवं सबसे बड़ी बात सम्वेदनाओं से परिपूर्ण एक महामानव थे।
महान लोग उन लोगों के प्रति सदा कृतज्ञ रहते हैं, जिनसे उन्होंने कुछ सीखा हो। डॉ. कलाम किसी भी सार्वजनिक मंच पर अपने प्राथमिक शिक्षक श्री शिव सुब्रमण्यम और वैज्ञानिक गुरु प्रोफेसर सतीश धवन के प्रति सम्मान व्यक्त करना कभी नहीं भूलते थे। वह कुरान और गीता दोनों ही समान भाव से पढ़ते थे।
भारत रत्न डॉ. अब्दुल कलाम निःसंदेह ऐसे ही महापुरुषों की कतार में आगे खड़े दिख रहे हैं। एक सच्चा इंसान, एक आम इंसान, एक आध्यात्मिक इंसान, विज्ञान से चलने वाला इंसान, देश को नई दिशा देने के लिए लगातार सक्रिय इंसान, राष्ट्र को उन्नत और ताकतवर बनाने के लिए संपूर्ण जीवन समर्पित कर देने वाला इंसान, शून्य से शिखर तक मर्यादित राष्ट्रीय से पहुंचने वाला इंसान और ऐसी ही अनेक खूबियों में जो एक समानता है वह निश्चित रूप से उनका ‘इंसान’ होना है। वह कैसे व्यक्तित्व के रूप में उभरे, जिसे हमारे समूचे इतिहास में भारत की बहुसंख्यक हिंदू जनता ने सबसे ज्यादा प्यार दिया। इसका एक अपवाद बादशाह अकबर हो सकते हैं।
तमाम बातें एक तरफ और उनकी इंसानियत एक तरफ। यदि ऐसे व्यक्ति की खोज की जाए जो संघर्ष और लड़ाई झगड़े की वर्तमान दुनिया में एकता का गैर-विवादित प्रतीक हो तो डॉ. कलाम से बेहतर दूसरा कोई दूसरा व्यक्ति नहीं मिलेगा। कीचड़ में किस प्रकार कमल खिलता है, बगैर गंदगी लपेटे हुए, इस उक्ति के साक्षात जीवित प्रतीक थे डॉ. अब्दुल कलाम।
डॉ. कलाम ‘मिसाइल-मैन’ के नाम से जाने जाते थे। स्वदेशी तकनीक से बनी ‘अग्नि’ और ‘पृथ्वी’ मिसाइल उनकी ही देन है। अंतरिक्ष कार्यक्रम से वह निकट से जुड़े थे। पोखरण विस्फोट में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। ऐसा पहली बार हुआ था, जब सिर्फ अंतरिक्ष वैज्ञानिक रक्षा परियोजना की कमान संभाल रहे थे।
शीतयुद्ध के दौर में अमेरिका ने पाकिस्तान को अफगानिस्तान की सोवियत समर्थक सरकार से लड़ने के लिए अग्रिम मोर्चे के देश के तौर पर अपना लिया था और वह पाकिस्तान के गुपचुप परमाणु कार्यक्रम को नजरअंदाज कर रहा था। इसके चलते भारत की सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा पैदा हो गया था। हमारे सामने अपने दरवाजे पर खड़ी हो रही एक परमाणु ताकत का सामना करने की चुनौती खड़ी हो गई थी। वैसे तो 1974 में परमाणु विस्फोट कर इंदिरा गांधी ने भारत की परमाणु हथियार बनाने की क्षमता से दुनिया को परिचित करा दिया था। पर इसके साथ ही यह जरूरी था कि इन परमाणु हथियारों को दुश्मन देश पर गिराने के लिए मिसाइल क्षमता हासिल की जाये। मिसाइल वही देश बना सकता है, जिसके पास अंतरिक्ष में रॉकेट भेजने की क्षमता हो। अंतरिक्ष जाने वाले रॉकेट का इस्तेमाल मध्यम दूरी की मिसाइल के तौर पर भी किया जा सकता है।
चूँकि कलाम इसरो के रॉकेट बनाने वाले प्रोजेक्ट के निदेशक थे, इसलिए इंदिरा गांधी ने 1983 में उन्हें मिसाइलों के लिए रॉकेट बनाने का काम शुरू करने की जिम्मेवारी सौंपी थी। 1983 में प्रोजेक्ट ‘एकीकृत मिसाइल विकास कार्यक्रम’ के नाम से जाना गया, जिसके तहत पृथ्वी (जमीन से जमीन, 250 किलोमीटर) अग्नि (जमीन से जमीन 1500 किलोमीटर), नाग (टैंक नाशक), आकाश (जमीन से हवा 25 किलोमीटर) और त्रिशूल (जमीन से हवा 9 किलोमीटर) मिसाइलों के विकास का काम शुरू हुआ। यह कार्यक्रम शुरू होने के बाद अमेरिका और उसके साथी देशों के कान खड़े हुए और वे भारत के मिसाइल विकास कार्यक्रम को सफल होने से रोकने के लिए गोलबंद होने लगे।
1987 में उन्होंने 22 देशों को एक साथ लेकर ‘मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रिजीम’ (एमटीसीआर) नाम की एक संधि की, जिसके तहत भारत का नाम लिए बगैर सारी दुनिया से कहा गया कि जो भी देश ‘एमटीसीआर’ के सदस्य नहीं है उनको ऐसा कोई भी दोहरे इस्तेमाल वाली तकनीक का निर्यात नहीं किया जाए, जो मिसाइल बनाने की उनकी महत्वकांक्षा पूरी करने में मददगार साबित हो सके। लेकिन इसके बावजूद डॉ. कलाम की अगुवाई में 1988 में ‘पृथ्वी’ का पहला सफल प्रशिक्षण किया गया और 1989 में ‘अग्नि’ का पहला परीक्षण हुआ। इस तरह भारत ने पूरी तरह अपने ही देश में विकसित तकनीक और उपकरणों के बल पर अमेरिका और पश्चिमी देशों के मिसाइल और परमाणु एकाधिकार को तोड़ा।
‘पृथ्वी’ और ‘अग्नि’ के परीक्षणों के बाद तो भारत पर तकनीकी सप्लाई का शिकंजा और कस गया। लेकिन डॉ. कलाम के मार्ग निर्देशन में ‘रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन’ (डीआरडीओ) के वैज्ञानिक मिसाइल विकास कार्यक्रम को सफलतापूर्वक आगे बढ़ाते रहे। डीआरडीओ ने कई अन्य मिसाइलें भी बनाई, जिसमें सबसे अहम् रही रूस के साथ साझा तौर पर विकसित सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल ‘ब्रह्मोस’। इसका विकास और उत्पादन भारत में किया गया। पश्चिम की तकनीक संबंधी बंदिशों को धत्ता बताते हुए डॉ. कलाम ने देश के शोध संस्थानों को विकसित किया और विश्वविद्यालयों में मौजूद प्रतिभा को आगे बढ़ाया। उन्हें खासकर उन तकनीकों और उत्पादों के विकास का दायित्व सौंपा गया जिनका आयात भारत नहीं कर सकता था।
ब्रह्मोस जैसी मिसाइल कोई भी देश किसी और देश को बेच नहीं सकता, क्योंकि इसकी क्षमता एमटीसीआर के तहत आती है। लेकिन भारत-रूस सामरिक साझेदारी के तहत कलाम ने रूसी वैज्ञानिकों को प्रेरित किया कि वे भारतीय वैज्ञानिकों के साथ मिलकर इस तरह की मिसाइल बनायें। इन मिसाइलों का स्वदेशी स्तर पर विकास कर भारत ने न केवल भारतीय सेनाओं की विदेशी कंपनियों पर निर्भरता को खत्म की बल्कि मिसाइलों के बाजार में भारत एक मजबूत मिसाइल पावर के रूप में खड़ा हुआ।
1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने डॉ. कलाम और डॉ. आर चिदंबरम से कहा कि परमाणु विस्फोट करना है। तब डॉ. कलाम ने अमेरिकी सेटेलाईटों की पैनी निगाहों से बचने की जो रणनीति तैयार की, वह अद्भुत थी। इसी वजह से अमेरिका और बाकी दुनिया इस बात से अचंभित रह गई कि ‘भारत ने 11 मई को पोखरण में परमाणु विस्फोट’ भी कर लिया और उन्हें इसकी भनक तक नहीं लगने दी। इसी तरह डॉ. कलाम ने भारत को मिसाइल और परमाणु ताकत बनाने में नेतृत्वकारी भूमिका निभाई। आज भारत की सैन्य ताकत का लोहा सभी मानने लगे हैं। डॉ. कलाम बार-बार कहते भी थे- ‘ताकत वाले को ही ताकत वालों से सम्मान मिलता है।‘
हमारे देश में अनेक महान वैज्ञानिक हुए हैं, जिनमें आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रे, सर सी.वी. रमन, जे.सी. बोस, बीरबल साहनी, श्रीनिवास रामानुजम, होमी जहांगीर भाभा, विक्रम साराभाई, शांति स्वरुप, मेघनाथ साहा आदि के नाम शामिल हैं। ऐसे ही महान वैज्ञानिकों में डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम शामिल हैं, लेकिन उनका व्यक्तित्व इस मायने में बिल्कुल भिन्न है कि उन्होंने विज्ञान को जन-जन से जोड़ने का प्रयत्न किया। उनके पास पीएच-डी. की उपाधि नहीं थी, लेकिन उनके पास देश और विदेशों के ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालयों से मिली ‘डॉक्टरेट’ की सारी उपाधियां मानद थी, फिर भी उनके नाम के आगे डॉक्टर कितना फबता था।
डॉ कलाम के व्यक्तित्व ने विज्ञान, साहित्य, कला और खेल सभी क्षेत्रों के लोगों को आकर्षित और प्रेरित किया। इसलिए उन्हें ‘जनता का राष्ट्रपति’ भी कहा जाता है था।
लाखों लोगों के मानस में डॉ. कलाम की जीवन से जुड़े संस्मरण रचे-बसे हैं। अनेक व्याख्यानों, संगोष्ठियों, चर्चाओं में अपने विचार व्यक्त करते हुए डॉ. कलाम अपने जीवन के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालते हुए हमेशा मानवता पर बल दिया। उनके पास जो नैतिक ताकत थी, वह शायद ही कुछ लोगों के पास आजादी के बाद से रही होगी। वह सदैव अपने को एक शिक्षक मानते रहे।
उनके व्यक्तित्व की विशेष बात यह थी कि उनके चेहरे पर सदैव मुस्कुराहट बनी रहती थी। चाहे वह राष्ट्रपति के पद पर रहे हो या किसी शैक्षणिक संस्थान में व्याख्यान दे रहे हों, और सदैव उनकी मनःस्थिति एक जैसी रहती थी। सौम्यता, सरलता, सादगी उनके जीवन के अभिन्न अंग थी। उन्होंने अनेक बार वैज्ञानिक संस्थानों में व्याख्यान देते हुए विज्ञान को मानवता की सेवा का एक माध्यम बताया। उन्होंने पृथ्वी ग्रह को सुंदर और स्वच्छ बनाए रखने पर भी जोर दिया।
डॉ. कलाम सदैव वैज्ञानिक सोच के प्रसार की बात करते थे। उनके अनुसार वैज्ञानिक दृष्टिकोण के द्वारा अनेक समस्याओं से छुटकारा पाया जा सकता है। विज्ञान को जनमानस विशेषकर बच्चों के बीच लोकप्रिय करने में डॉ. कलाम का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय रहा है।
अपनी समग्र वैज्ञानिक उपलब्धियों के बावजूद डॉ. कलाम अधिकतम राज्यपाल या राजदूत हो सकते थे। पर सियासत की दहलीजों पर मत्था टेके बगैर देश के प्रथम नागरिक हो गए। उनका राष्ट्रपति होना हजार संयोगों का एक साथ मिल जाना था, लेकिन साथ ही यह भी सच है कि डॉ. कलाम की प्रतिष्ठा को नया शिखर राष्ट्रपति बनने के बाद ही मिला। डॉ. कलाम का वैज्ञानिक और चिंतक होना नहीं, बल्कि उन का राष्ट्रपति बनना भारत की राजनीतिक इतिहास की दुर्लभ घटना है, क्योंकि कलाम न तो अनुवांशिक नेता थे और ना ही दलीय राजनीति में उनका कभी बप्तिस्मा/ नामकरण हुआ था।
राष्ट्रपति पद से सेवानिवृत्त होने के पश्चात डॉ. अब्दुल कलाम लगातार अपने मिशन में जुटे रहे, जो न सिर्फ और सिर्फ युवाओं को शिक्षा और विकास की प्रेरणा के साथ लोगों के हृदय में राष्ट्रभक्ति का भाव उत्पन्न करने वाला ही रहा। उनके साथ आम, खास व्यक्ति की अनेक यादें जुड़ी हैं, जिन्हें यदि कलमबद्ध किया जाए तो शायद एक और शोध-प्रबंध तैयार हो जाए। देश में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो डॉ. कलाम के निधन पर अपनी आंखों को नम होने से बचा पाया होगा। यूँ तो डॉ. कलाम का संपूर्ण जीवन ही सूक्तियों से भरा हुआ है, जिसमें वह कहा करते थे कि कमजोर राष्ट्र को कभी सम्मान नहीं मिल सकता है। इस दुनिया में ताकतवर कोई सम्मान मिलता है। अपनी इस महत्वपूर्ण उक्ति की सार्थकता में जीवन समर्पित करने वाले महर्षि को अपनी हड्डियां दान कर देने वाले ‘ दधीचि ’ जैसे महान संत का दर्जा अपने-आप ही मिल जाता है।
– नीरज कृष्ण