आलेख
मुंशी प्रेमचंद: ठेठ ग्रामीण परिवेश का चितेरा
सन 1880 से सन 1936 ई. तथा सन 1901 से 1936 ई. – यदि हम इन तिथियों पर गौर करें तो हमें ज्ञात होगा कि एक व्यक्ति के रूप में ही नहीं, एक रचनाकार के रूप में भी, काल का एक बहुत छोटा सा टुकड़ा प्रेमचंद की जिंदगी को देखने और समझने और उसपर रायजनी करने को मिला था – जिंदगी, जो अपने बहुत लम्बे इतिहास, बेहद उलझे हुए वर्तमान और पर्त दर पर्त जमी धुंध में खोये आगत को लिए, तमाम सारी चुनौतियों के साथ, उनके समक्ष विद्यमान थी। महज तीस साल का छोटा सा कालखंड, और दूसरी तरफ उलझनों, जटिलताओं और चुनौतियों से भरी जिंदगी का इतना लंबा फैलाव, बिरले मनुष्य और बिरले रचनाकार ही इसका सार्थक उपयोग कर पते हैं जैसा प्रेमचंद ने किया था।
प्रेमचंद एक लेखक के रूप में जिस समय आये, उस समय हिंदी में बाबू देवकीनंदन खत्री के तिलिस्मी उपन्यासों की धूम मची हुई थी। सांस्कृतिक ऊहापोह की स्थिति थी, भारतीय जनता परम्पराओं के नाम पर रूढ़ियों, अन्धविश्वासों और बाह्य आडम्बरों का पालन कर रही थी जिनसे विमुख होकर शिक्षित- वर्ग पश्चिमी संस्कृति की ओर प्रवृत्त हो रहा था।
प्रेमचंद रुढ़िवादी नहीं थे और वे उस उदार मानवतावाद से उत्प्रेरित थे जो हर प्रकार की कठिनाईयों की सतह को तोड़कर भारतीय जनमानस में नव चेतना का संचार कर रहा था। प्रेमचंद की भाषा हिन्दुस्तानी है। उन्होंने जनजीवन का चित्रण जनभाषा में किया। वे मानते थे कि संस्कृत के बोझ से दबी हुई हिंदी और अरबी- फारसी के बोझ से लड़ी हुई उर्दू हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती है। प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य में जनजीवन और जनभाषा को ही स्वीकार किया। प्रेमचंद की विचारधारा उनकी भावधारा के साथ जुड़कर चलती रही, वे मानवतावाद के हिमायती रहे। गाँव का लेखक गाँव की भाषा में तो जीता ही है, रचना में भी उतरता है, आवश्यकता पड़ने पर वह दर्शन की गुत्थियाँ भी सुलझाने लगता है, काल चिंतन करता है। पर भाषा अपनी जगह से उतनी ही खिसकती है, जितना कि अपेक्षित है। जहाँ आत्मा का स्थान है, वहां प्रदर्शन, जहाँ ह्रदय का स्थान है, वहां हाव- भाव। प्रेमचंद में शब्द चित्र प्रस्तुत करने की पूरी क्षमता थी।
प्रेमचंद ने उपन्यास को संकीर्ण विचार- वीथियों से निकालकर जीवन और जगत के बहुरंगी व्यापक पाठ पर खड़ा कर दिया। उनके कथानक ग्राम्य जीवन के सवाक चित्रपट खींचने में अत्यंत सफल हुए हैं। ग्राम्य जीवन की समस्याओं के, ग्राम्य जीवन के वे एक अनुभवी, सहृदय विवेचक थे। ग्राम्य जीवन से उन्हें सच्चा प्रेम था। उसकी प्रत्येक रेखा व रंग से वे परिचित थे।
बुद्ध के बाद भारत में सबसे बड़े लोकनायक तुलसीदास थे। तुलसीदास के बाद जब हम इस प्रकार के महान व्यक्तित्व की तलाश करते हैं जिसने न केवल हिन्दुओं में बल्कि उससे अधिक मुसलमानों और देश में रहने वाले अन्य तमाम मतावलंबियों में अपूर्व लोकप्रियता प्राप्त की हो हम प्रेमचंद को ही पाते हैं। प्रेमचंद के सम्पूर्ण साहित्यिक – जीवन में पूर्णता की एक विशेष झलक मिलती है। वैसे हर एक साहित्यकार की जीवनी में प्रयोगशीलता का दर्शन मिलता है और उसके साधना-पक्ष की व्याख्या बदलती रहती है। साहित्यकार चारों ओर बिखरी हुई परिस्थितियों में घेरा जाता है और उसके जीवन के मापदंड भी बदलते हुए दिखाई पड़ते हैं। अतः उसके साधना पक्ष के विकास क्रम पर विचार करना बहुत कठिन हो जाता है। प्रेमचंद के सम्पूर्ण साहित्य पर विचार करते समय भी इन कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा।
– नीरज कृष्ण