आलेख
प्रियप्रवास की राधा- एक आँकलन: नीरज शर्मा
कृष्ण भक्ति साहित्य की परंपरा में राधा का चरित्र सर्वप्रिय नायिका के रूप में चित्रित किया गया है, इसकी पृष्ठभूमि हमें कृष्ण भक्ति साहित्य के मूलाधार ग्रन्थ, ‘श्रीमद्भागवत’ में तो नहीं मिलती लेकिन श्रीबालचन्द्र शास्त्री ने ‘श्रीमद्भागवत’ के द्वितीय स्कन्ध के श्लोक में राधा की कल्पना की है-
नमो नमस्तेऽस्तवृषभाय सात्त्वतां
विदुर कण्ठाय मुहुः कुयोगिनाम्।
मिरस्तसाम्यातिशयेन राधसो
स्वधामनि ब्रह्मणि रंस्यते नमः।’’1
यहाँ, ‘राधसा’ का प्रयोग राधा के लिए उचित प्रतीत नहीं होता। इसी प्रकार ‘महाभारत’ और ‘विष्णु पुराण’ तथा ईसा की प्रथम शताब्दी पूर्व में रचित भाष्य के नाटकों तक में भी राधिका का वर्णन नहीं मिलता है, तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही बन पड़ता है कि किस प्रकार राधा का सम्बन्ध कृष्ण के साथ जुड़ता है या प्राप्त होता है? राधा का स्वरूप हमें ‘पंचतन्त्र’ के एक स्थान पर दिखाई पड़ता है, जहाँ राधा की ओर संकेत किया गया है। ‘हरिवंशपुराण’ के एक स्थल पर ‘‘दामोदर हा राधे, हा चन्द्रमुखी।’’ इत्यादि शब्दों का उल्लेख गोपियों के साथ क्रीड़ा करते हुए मिलता है।’’2 इसी तरह आगे धनंजय के ‘दशरूपक’, भोज के ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’, क्षेमेन्द्र के ‘दशावतार चरित’ तथा ‘आनन्दवर्धन के ‘ध्वन्यालोक’ (नवीं शताब्दी) में राधा का वर्णन निम्न श्लोक में स्पष्ट मिलता है-
तेषां गोपवधूविलास ससुहृदां राधा रहः साक्षिणा,
क्षेमं भद्रकलिन्द शैल तनया तीरे-लता वेश्यनाम
विच्छिन्ने स्मरतल्प कल्पनमृदुच्छेदोपदोगेऽधुना
ते जाने जरठी भविन्त विगल श्रीलत्विषः पल्लवाः।3
निम्बार्क के पश्चात् श्री वल्लभाचार्य तथा राधामार्गीय सम्प्रदायों में भी देखने को मिलता है, जहाँ राधा को श्रीकृष्ण की आदिशक्ति के रूप में चित्रित किया गया है। आदिकाल में जयदेव, विद्यापति, चण्डीदास तथा भक्तिकाल में सूर, नन्द आदि ने राधा को धार्मिक, आध्यात्मिक तथा श्रृंगारिक रूप में चित्रित किया है। रीतिकाल में बिहारी, पदमाकर, मतिराम, देवदत्त आदि ने अपने काव्य में राधा के चरित्र को भौतिक-श्रृंगारिक नायिका के रूप में चित्रित किया है। आधुनिक युग में भारतेन्दु की राधा सूर के काव्य साहित्य पर आधारित दिखाई देती है तथा रत्नाकर की नन्ददास के पदों में। इसी श्रृंखला में द्विवेदी युग में हरिऔध के प्रियप्रवास की राधा में हमें सर्वथा एक नवीन रूप दिखलाई पड़ता है। आधुनिक विश्लेषण की पहल तथा राधा के संदर्भ में विचार-विमर्श हमें शुक्ल जी तथा हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा भी मिलते हैं। शुक्ल जी ने अपने इतिहास ग्रन्थ में ‘प्रियप्रवास’ महाकाव्य की प्रमुख विशेषता बतलाई है तथा हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का तो एक प्रसिद्ध निबन्ध लेख ही ‘सूरदास की राधा’ नाम से मिलता है, जिसमें उन्होंने राधा के व्यक्तित्व पर बात की है और कहा है- “बाल प्रेम की चंचल लीलाओं की इस प्रकार की परिणति सचमुच आश्चर्यजनक है। संयोग की रस-वर्षा के समय में जिस तरल प्रेम की नदी बह रही थी, वियोग की आँच से वही प्रेम सान्द्रगाढ़ हो उठा। सूरदास की यह सृष्टि अद्वितीय है। विश्व साहित्य में ऐसी प्रेमिका नहीं है… नहीं है।’’4 इस प्रकार द्विवेदी जी का राधा के संबंध में यह चिन्तन नवीन है।
‘प्रियप्रवास’ हिन्दी जगत की सर्वश्रेष्ठ रचना है, जिस पर काल के परिवर्तन का कोई प्रहार अपना प्रभाव नहीं डाल पाया। “भारतीय संस्कृति की उच्चता, प्रखरता को प्रसारित और स्थापित करने वाले महाकवि हरिऔद्य जी ने अपने इस महाकाव्य में अतीत की घटनाओं को वर्तमान की शब्दावली में अभिव्यक्त किया है। ‘प्रियप्रवास’ की कथावस्तु का प्रारम्भ कृष्ण के मथुरा गमन से होता है और उसी के आधार पर कवि ने 17 सर्गों में इस महाकाव्य की रचना की है।’’5 जो पूर्णतः आधुनिक विचारधारा पर आधारित दिखाई पड़ती है। प्रियप्रवास की कथावस्तु में सूत्र-धार राधा और कृष्ण हैं। यदि कृष्ण नायक के रूप में प्रतिष्ठित हैं तब राधा भी उनके जैसी नायिका के समस्त गुणों से सम्पन्न एक आदर्श पात्र है, जो अपने आप में एक नवीनता का बोध लिए हुए है- ‘प्रियप्रवास’ हिन्दी काव्य वीथिका का एक मनोरम सीमा सोपान ही नहीं, उजागर आलोक-स्तम्भ भी बन गया है।’’6 नारी जीवन का सुधार, इस युग की प्रमुख देन रहा है, युग की इसी भावना से प्रेरित होकर हरिऔध जी ने ‘प्रियप्रवास’ में लोक सेवक कृष्ण की भांति राधा के चरित्र में परोपकार, लोकसेवा तथा विश्व प्रेम आदि का समावेश किया है। इसी कारण ‘प्रियप्रवास’ की राधा सूर की राधा की तरह कृष्ण के विरह में व्याकुल-व्यथित होकर इधर-उधर मारी-मारी नहीं फिरती अपितु वह विरह कातर गोपियों, गोपों, यशोदा-नन्द तथा दीन-हीन, रोगी, असहाय प्राणियों की सेवा-सुश्रूषा में ही अपना जीवन व्यतीत करती दिखाई पड़ती है।
‘प्रियप्रवास’ की राधा भक्तिकालीन राधा न होकर आधुनिक भारत की राधा है। वह भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति तथा आधुनिक भारत का मूर्तिमान आदर्श है। इसमें राधा को ब्रह्ममयी एवं परमब्रह्म के साथ विहार करने वाली आदिशक्ति का रूप प्रदान नहीं किया गया है बल्कि इसमें राधा को आदर्श नारी के रूप में चित्रित किया गया है, जो कोमल, प्रेममयी, कर्तव्यपरायण एवं सहृदय है। हरिऔध की राधा पूर्ण मानवीय है। वह देवी नहीं है बल्कि समाज की नारी है। राधा के रूपांकन में जो परम्परा चली आ रही थी, उसे हरिऔध ने तोड़कर ‘प्रियप्रवास’ की राधा को हिन्दी काव्य जगत में प्रस्तुत कर तोड़ डाला है। राधा का प्रथम दर्शन चतुर्थ सर्ग में होता है, जहाँ वह सौन्दर्य का साधक और मृदुभाषिणी, मृगदृगी-माधुर्य युक्त सन्मूर्ति है-
रूपौधान प्रफुल्ल-प्राय-कलिका राकेन्दु बिम्बामना।
तन्वंगी कलहासिनी सु-रसिका क्रीड़ा कला-पुत्तली।
शोभा-वारिधि की अमूल्य-मणि सी लावण्य-लीला-मयी।
श्रीराधा-मृदुभाषिणी मृगदृगी-माधुर्य की मूर्ति थी।
(प्रियप्रवास, सर्ग-4, छन्द-4)
राधा और कृष्ण के शैशव काल से दोनों में प्रेम होता है, जो बड़े होकर स्वाभाविक प्रेम में परिवर्तित हो जाता है। इस महाकाव्य में दोनों के प्रेम का विस्तारपूर्वक वर्णन नहीं मिलता है। इसमें सिर्फ इतना ही निर्देश किया गया है कि राजा नन्द और वृषभानु नरेश के बीच बहुत अधिक प्रेमभाव था इसलिए दोनों परिवार एक दूसरे से प्रेम-सूत्र में बंधे हुए रहते हैं। ‘जब श्रीकृष्ण अबोध बालक थे तब से ही उनका वृषभानु के घर आना आरम्भ हो गया था। जब ये दोनों खेलने योग्य हो गये, तब तल्लीन होकर परस्पर बड़े प्रेमपूर्वक खेलते थे। शैशव का यही स्नेह बाद में बड़े होकर प्रेम में बदल गया।’’7 इसका ज्वलंत उदाहरण देखिए-
यह अलौकिक बालक-बालिका
जब हुए कल क्रीड़न-योग्य थे।
परम-तन्मयता सँग प्रेम से
तब परस्पर थे वह खेलते।
(सर्ग-4, छन्द-13)
‘हरिऔघ ने राधा और कृष्ण के बीच होने वाली प्रणय-भावना की सूचना दी है। उसमें रस की वह धारा प्रवाहित नहीं होती है, जो प्राचीन कवियों के वर्णन में है।’’8 अतः राधा का प्रेम परम्परागत प्रेम न होकर निच्छल तथा वासना मुक्त प्रेम की कोटि में आता है। राधा में समाज सेविका नारी का रूप हमें प्रायः बचपन से ही उनके चरित्र में दिखाई पड़ता है। वह कामांगना-मोहिनी है फिर भी उसके शिशुत्व में समाज-सेविका का भाव सन्निहित दिखाई पड़ता है जो ‘प्रियप्रवास’ के निम्न छन्द से स्पष्ट होता है-
सद्वस्त्रा सदलंकृता गुणयुक्ता-सर्वत्र सम्मानिता
रोगी वृद्ध ननोपकार निरता सच्छास्त्र चिन्तापरा।
सद्भावातिरता अनन्यहृदय सत्प्रेम-संयोगिता।
राधा थी सुमना प्रसन्न वदना स्त्री-जाति-रत्नोपमा।
(वही, सर्ग-4, छन्द-8)
कई आलोचकों ने राधा के सेवाभाव पर आक्षेप भी लगाये हैं किन्तु उनके आक्षेप युक्तिसंगत नहीं हैं क्योंकि जब गौतम बुद्ध के हृदय में सेवा-व्रत की भावना बाल्यकाल से विद्यमान होना थोड़ा ही अस्वाभाविक है। अतएव यह कहा जा सकता है कि हरिऔध ने राधा को मनोविज्ञान के धरातल पर खरा उतारा है। ‘प्रबन्ध काव्य के सब अव्यव इसमें कहाँ आ सकते हैं, इसी के वियोग में कैसी-कैसी बातें मन में उठती हैं और क्या-क्या कहकर लोग रोते हैं, इसका जहाँ तक विस्तार हो सका है, किया गया है।’’9 इसी कारण यहाँ राधा का यह रूप प्रशंसनीय एवं सर्वथा नवीन है, उन्होंने राधा के चरित्र को आधुनिक युग के उपयुक्त बनाया है।
दीन-दुखियों के प्रति दया का भाव लोक-सेविका राधा के हृदय में बसा हुआ है। वह दीन-दुखियों के प्रति बहुत करूणा, दया रखती है, वह स्वयं दुखी होने पर भी किसी अन्य को दुखी नहीं देख सकती है। इस पूरे महाकाव्य में इस नवीन अर्थ-बोध की प्रतीति हमें अनेक स्थानों पर दृष्टिगत होती है, राधा पवन को दूत बनाकर संदेश मथुरा भेजते हुए कहती है और प्रार्थना करती है कि-
लज्जाशीला पथिक महिला जो कहीं दृष्टि आये
होने देना विकृत-बसना तो न तू सुन्दरी को।
जो थोड़ी भी श्रमित वह हो गोद ले श्रान्ति खोना
होठों की भौ कमल-मुख की म्लानताये मिटाना।
इसी के साथ महाकाव्य के अन्य स्थान पर राधा यशोदा, नन्द तथा अन्य गोपिकाओं को सान्त्वना देती है, जिसके कारण वह वृषभानुनन्दिनी राधा न रह कर ‘ब्रजदेवी’ राधा हो जाती है। उक्त उदाहरण में उनका सेवाभाव दिखाई पड़ता है-
संलग्ना हो विविध कितने सान्वना कार्य में भी।
वे सेवा थी सतत करती वृद्ध रोगी जनों की।
दीना दीना निबल विधवा आदि की मानती थी।
पूजी जाती ब्रज अवनि वे देवी-तुल्या अन्तः थी।46
*************************************
वे छाया थी सुजन-शिर की शासिका थी खलों की।
कंगालों की परम-निधि थी औवधी पीड़ित की।
दोनों की थी भगिनि जननी थी अनाश्रितों की।
आराधा की ब्रज-अवनि की प्रेमिका विश्व की थी।’’
(वही, सर्ग-7, छन्द-49)
लोक सेविका के रूप में ‘प्रियप्रवास’ की राधा का चित्रण मुक्त रूप से हुआ है। राधा के अन्तस्थल में सद्गुणों का तो पहले से ही निवास था, अतः हमें और भी स्पष्ट रूप में वहाँ देखने को मिलता है, जहाँ राधा पवन को दूत बनाकर अपना संदेश मथुरा तक जाने के लिए कहती है तथा साथ ही उससे यह भी प्रार्थना करती दिखाई देती है कि मार्ग में यदि कोई थका हुआ पथिक, पीड़ा-ग्रस्त रोगी, पसीना बहाता हुआ किसान हो तो उन सबकी बाधाओं को दूर करता हुआ ही वह आगे बढ़े। राधा स्वयं दुःखी है तब भी अन्य दुखियों के प्रति वह सहानुभूति रखती है। उसका यह कहना, उसकी सद्भावना का परिचायक है-
जाते-जाते अगर पथ की क्लान्त कोई दिखावे,
तो जाके सन्निकट उसकी कलान्तियों को मिटाना।
धीरे-धीरे परस करके गात उत्पात खोना,
सदृगंधों से श्रमित जन की हर्षितों सा बनाना।’’10
‘प्रियप्रवास’ में आगे, अन्य स्थान पर हमें राधा मोह से मुक्त तथा कर्मशीलता की प्रतिमूूर्ति दिखाई देती है, जो उद्धव से श्री कृष्ण के लोक सेवा में सन्निहित होने का सन्देश पाकर दुखी होने के बजाय मुख पर शान्ति-संतोष का भाव रखकर कहती है कि श्रीकृष्ण बेशक ब्रज न आये, वह मथुरा में ही रहकर लोक-सेवा-व्रत का पालन करें।
प्यारे आवें मृदु बयन कहें प्यार से अंक लेवें।
ठंड होवे नयन दुःख हो दूर मैं मोद पाऊँ।
एक भी है भाव मम उस के औ ए भाव भी हैं।
प्यारे जीवें जग-हित करें गेह चाहै न आवें।।
अतः ‘प्रियप्रवास’ की राधा विश्व-प्रेम में निमग्न है। उसकी दृष्टि में विश्व-सेवा ही परम-प्रभु-सेवा है। ‘राधा की भक्ति स्थूल नहीं वरन् सूक्ष्म है। वह कृष्ण और परमात्मा की भक्ति में कोई भेद नहीं पाती है। संसार के समस्त प्राणियों की रक्षा, पूजा, सम्मान और सेवा करना ही प्रभु की सर्वोत्तम भावपूर्ण भक्ति मानती है।’’11
विश्वात्मा को परम प्रभु है रूप तो हैं दुखी के
सारे प्राणी सरि-गिरि-लता बेलिया वृक्षनाना।
रक्षा पूजित उचित उनका यत्न सम्मान सेवा।
भाव सिक्ता परम-प्रभु की भक्ति-सर्वोत्तम।
(सर्ग-16, छन्द-117)
**************************************
पाई जाती विविध हतनी वस्तुएँ है सबो में।
जो प्यारे को अमित रंगों और रूप में देखती है।
वो मैं न उन सबको प्यार जी से करूँगी।
यों है मेरे हृदय-तल में विश्व का प्रेम जागा।
राधा के उपर्युक्त चारित्रिक गुणों के प्रकाश में कवि के स्वर में स्वर मिलाकर पाठक भी कह उठते हैं-
राधा जैसी सहृदय-हृदया विश्व प्रेमानुरक्ता।
हे विश्वात्मा ! भारत भुव के अंक में और आवें।।’’
डाॅ. गोविन्द शर्मा ने उचित ही कहा है- ‘‘प्रियप्रवास में ‘राधा भारतीय नारी की समग्र विभूतियों को आत्मसात करती हुई हमारे सामने आती है। वह समाज और देश की एक सच्ची सेविका है जो व्यष्टि को समष्टि में अन्तर्निहित कर लेती है।’’12
निष्कर्षतः हम पूर्ण रूप से कह सकते हैं कि ‘प्रियप्रवास’ की राधा हिन्दी साहित्य के नारी पात्रों में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाए हुए है, जो पूर्णतः राधा के पूर्ववर्ती रूपों से भिन्न है, नवीन है जिसमें एक आदर्श, समाजसेवी और आधुनिक नारी के रूप की झाँकी स्पष्ट दिखाई पड़ती है, इन्हीं गुणों और विशेषताओं के कारण ‘प्रियप्रवास’ की राधा वर्तमान समय में अपने आधुनिक क्रियाकलापों तथा विचार वैशिष्ट्य के कारण न केवल विचाराधीन है बल्कि प्रासंगिक भी है।
संदर्भ-
1- देवेन्द्र प्रसाद ‘इन्द्र’- ‘महाकवि हरिऔध और प्रियप्रवास’, पृ. सं. 164
2- श्रीकृष्ण कुमार सिन्हा – ‘हरिऔध और उनका प्रियप्रवास’, पृ. सं. 65
3- वही, पृ. सं. 66
4- हजारी प्रसाद द्विवेदी, ‘सूर की राधा’, उद्धरित- सूरदास, हरवंशलाल शर्मा
5- अनन्त कमलनाथ ‘पंकज’, उद्धरित वेदप्रकाश शास्त्री- ‘प्रियप्रवास दर्शन’
6- मथुरा प्रसाद अग्रवाल – ‘प्रियप्रवास की राधा’, उद्धरित, वही, पृ. सं. 66
7- कृष्ण कुमार सिन्हा- ‘हरिऔध और उनका प्रियप्रवास’ पृ. सं. 81
8- वही, पृ. सं. 82
9- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल- ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’, पृ. सं. 582
10- डाॅ. वेदप्रकाश शास्त्री- ‘प्रियप्रवास दर्शन’, पृ. सं. 70
11- कृष्ण कुमार सिन्हा – ‘हरिऔध और उनका प्रियप्रवास’, पृ. सं. 91
12- माया अग्रवाल एम. ए.- ‘प्रियप्रवास एक विवेचन’, पृ. सं. 155
– नीरज शर्मा