फिल्म समीक्षा
फिल्म समीक्षा- मुक्काबाज
स्पोर्ट्स पर आधारित हिन्दी फिल्मों की फेहरिस्त में मुक्काबाज को गिना जाना चाहिए या नहीं, इस पर एकमत होना थोड़ा मुश्किल है। फिर भी यह तो तय है कि अनुराग की मुक्काबाज इस श्रेणी की एक अलग फिल्म है, जिसके सहारे आने वालें दिनों में इस ओर ध्यान दिया जा सकता है। अभी तक किसी खास स्पोर्ट्स पर्सनैलिटी पर सपोर्ट फिल्म बनाकर उसके नाम को ही बेचा गया है। मैरी कॉम, सचिन, दंगल, सुल्तान जैसी फिल्में बनी हैं पर इन सभी में स्टार कास्ट के चलते उनकी चर्चा होना स्वाभाविक रही। मुक्काबाज इस संदर्भ में एक अलग फिल्म बनकर दर्शकों के बीच उपलब्ध है, जिसे सिर्फ और सिर्फ उसकी कहानी, मूल विषय और उसकी निर्माण प्रक्रिया के चलते ख्याति मिल रही है। निर्देशक अनुराग कश्यप हमेशा से अपनी ज़िद का सिनेमा बनाने के लिए जाने जाते हैं। बीते कुछ सालों का उनका कैरियर रिपोर्ट कार्ड बताता है कि उन्होंने एक के बाद एक कई प्रयोग किए हैं। डार्क सेड वाली फिल्मों में वे गोली-बारूद-गाली का ऐसा समन्वय सेट करते हैं कि फिल्म रियलिस्टिक के काफी करीब पहुँच जाती है। गैंग्स ऑफ वासेपुर सीरीज को इसका प्रतिष्ठित उदाहरण मान सकते हैं। मुक्काबाज़ को अनुराग के अलावा मधु मंटेना, आनंद एल. राय, विक्रमादित्य मोटवाने ने प्रोड्यूस किया है, जिससे यह तो पता चलता है कि अनुराग इधर बीच अपने नए फिल्मी पैंतरे के साथ फिल्में बना रहें हैं, जिसमें घाटे का सौदा काफी हद तक कम रहता है।
मुक्काबाज अपने तरह का एक अलग सिनेमा है। इसकी कहानी खुद फिल्म के लीड करेक्टर को पर्दे पर चित्रित करने वाले विनीत कुमार सिंह ने लिखी है। अरे वही अपने वासेपुर का दनिशवा। लीड रोल पाने के लिए कहानी लिखा, फिर अनुराग को पढ़ाया। अनुराग नहीं माने तो समझौता भी किया। फिल्म को वास्तविकता के करीब ले जाने के लिए अनुराग ने इस बार एक और पैंतरे का इस्तेमाल किया है। विनीत को वास्तविक तौर पर मुक्केबाज बनने की शर्त पर लीड रोल दिया हैं। विनीत की लगन और मेहनत उनकी एक्टिंग से देखी जा सकती है। बिना किसी कोरियोग्राफी के बॉक्सिंग सीन सूट किया जाना इस शर्त का ही परिणाम हैं।
पहली बार हिन्दी फिल्मों के पर्दे पर दिख रहीं अभिनेत्री ज़ोया हुसैन ने अपने किरदार से यह बता दिया कि उनमें एक्टिंग का वह दम है, जो आगे आने वाली फिल्मों में देखा जा सकेगा। गूंगी सुनैना के किरदार को निभाते हुए उन्होंने अपनी तरफ से काफी सतर्कता बरती है। सुनैना का किरदार अपने आप में ही एक मूल विषय हैं जिस पर पूरी फिल्म बनाई जा सकती है। सुनैना की माँ बनी ‘नदिया के पार’ वाली साधना सिंह की एक्टिंग की तारीफ की जानी चाहिए।
जिमी शेरगिल का विलेन रूपी चित्रण भले ही दर्शकों को नया न लगे पर उनका जोश और चेहरे की रंगत अभी भी वैसी ही बनी है, जैसी उनकी पूर्व की फिल्मों में थी। हालांकि आने वाले दिनों में अगर ऐसे किरदारों से बचेंगे नहीं तो दर्शकों को उनका पात्र बोझ लगने लगेगा। वहीं रवि किशन अनुराग की फिल्मों में पहली बार काम करते हुए उनके भ्रम को भी तोड़ने में सफल हुए है। गौरतलब है कि गैंग्स ऑफ वासेपुर में भी अनुराग रवि को लेना चाहते थे लेकिन उनको किसी ने बताया कि रवि शूटिंग के दौरान भारी डिमांड करते है, ऐसे में अनुराग ने उनसे बात ही नहीं की। अच्छा हुआ अनुराग का भ्रम टूटा और उनकी मित्र मंडली में एक और अच्छा अभिनेता शामिल हुआ। उनके मित्रों का ताल समन्वय इतना सटीक है कि वो किसी न किसी रूप में दर्शकों तक सामने आ ही जाता है। अब मुक्काबाज में नवाजुद्दीन सिद्दीकी को ही देख लीजिये। दोस्ती के नाते कैमियो के रूप में फिल्म में हाजिर रहे।
बहरहाल फ़िल्म ने समाज में बढ़ रहें द्वेष को लेकर एक सीन से काफी बड़ी बहस को जन्म दिया है। आम तौर पर निर्देशक इससे बचते हुए दिखते है। श्रवण जिस ऑफिस में काम करता है, उसके अधिकारी एक यादव जी हैं। यादव जी को यह बात याद है कि उनके पिता कभी भूमिहारों के यहाँ नौकरी किया करते थे। बस इसी को दिमाग में बसाये हुए यादव जी ने श्रवण को परेशान करना शुरू किया, जिससे तंग आकर यूपी के माइक टाइसन कहलाने वाले श्रवण ने एक ही बार में उनकी पैंट गीली कर दी। हालांकि नायक सवर्ण है इसीलिए यह सीन तैयार कर पाना आसान हुआ नहीं तो अन्य दूसरे सीन में एक कोच होने के बावजूद दलित संजय कुमार कभी भगवान दास से सीधे मुक़ाबला कर पाने में सक्षम नहीं हुआ।
गीत-संगीत के लिहाज से भी यह फिल्म अपने लिए एक प्लेटफॉर्म तैयार करती दिखती है। यूपी के हास्य कवि डॉ. सुनील जोगी की प्रसिद्ध कविता ‘मुश्किल है अपना मेल प्रिये’ को टाइटल सॉन्ग बनाकर पेश करना एक बड़ी उपलब्धि है। फिल्म के बाकी गीतों का अपनी मनोवैज्ञानिक और सिनेमाई स्ट्रेटजी है, जिसे हर निर्देशक अपनी समझ से रखते रहते हैं। अनुराग की फिल्मों का यह पक्ष औरों से काफी मजबूत है। संवाद पक्ष भी लाजवाब है। इसी बदौलत लंबी होती जा रही फिल्म को काफी हद तक दर्शकों में बोझिल होने से बचाया जा सका है।
फिल्म की कहानी खेल, समाज, जाति, राजनीति, प्रेम-प्रसंग आदि को समेटते हुए शुरू हुई और आज की स्थिति में लाकर खत्म होती है। देश में खेलों और खिलाड़ियों की स्थिति पर नज़र डालते हुए बड़े सवालों की तरफ ध्यान खींचती है, जिससे भगवान दास मिश्रा जैसे लोग अपनी गंदी राजनीति और समाज में उच्च वर्ग का दर्जा लिए हुए दूसरों को प्रताड़ित करने का ही काम कर रहें हैं। दरअसल भगवानदास मिश्रा ब्राह्मण होने और समाज में अपनी पैठ मजबूत होने के घमंड के चलते किसी पर भी शासन कर लेने की चाह रखता है। ऐसा करते हुए वह अपने घर परिवार, और आस-पास को भी नहीं छोड़ता। मुक्काबाज श्रवण के किरदार के सहारे मौजूदा समय में खेलों और खिलाड़ियों की स्थिति, समाज में जातिवाद का बढ़ते स्तर को पेश करने में फिल्म सफल हो पायी है। हालांकि फिल्म के मजबूत पात्र दलित कोच संजय कुमार (रवि किशन) के साथ न्याय नहीं होता। यह वही कोच है, जिसने श्रवण की प्रतिभा को बिना किसी द्वेष के पहचान पाने में समर्थ हुआ। मुक्काबाज से मुक्केबाज कहलाने में इसी कोच का योगदान हमें फिल्म में दिखाई देता है। लेकिन आखिरी तक आते-आते उसे नकार देना अचंभित करता है। फिल्म में पुलिस इंस्पेक्टर के किरदार तक को जब वरीयता दी गयी तो कोच के साथ यह स्थिति क्यों? यह सवाल हमेशा मन में रहेगा। फिलहाल यह बता दूँ कि फिल्म में मेरा फेवरेट पात्र वह कोच है, जिसने सर्वधर्म समभाव की तर्ज पर अपना काम किया है। कैमरा एंगल, लोकेशन और एडिटिंग तीनों में मुक्काबाज फिट साबित हुई। हालांकि छोटे शहरों की कहानी चुने जाने का एक फायदा यह भी है कि ज्यादा ताम-झाम की ज़रूरत नहीं पड़ती। रियल लोकेशन और नेचुरल लाइट में बड़े से बड़े सीन शूट किए जा सकते है। फ़िल्म में पत्रकार वाला दृश्य स्ट्रिंगर और उस एरिया की वास्तविक स्थिति को बयान करने के लिए काफी है। यहाँ उससे यह तो ज़रूर समझा जा सकेगा कि आज भी स्ट्रिंगर की हालत वैसी ही है। उसके पास न ही फोटो कैमरा है न ही अन्य तकनीकी साधन। लेकिन कहने को वो पत्रकार है।
मुक्काबाज थोड़ी लंबी ज़रूर है, लेकिन संवादों से उसके प्रभाव को कम करने की कोशिश की गयी है। एक ही फ़िल्म में प्रेम कहानी, सामाजिक स्थिति, आर्थिक स्थिति खराब होने के अपने नफा-नुकसान, स्पोर्ट्स की स्थिति और उस पर की जाने वाली राजनीति को मुक्काबाज अपनी कहानी के ज़रिये दिखा पाने में कितना सफल हो पाएगी यह आने वाला वक्त बताएगा। फ़िल्म के आर्थिक पक्ष पर अनुराग का खासा ध्यान नहीं रहता क्योंकि ज्यादा से ज्यादा निर्माता होने के चलते यहाँ किसी एक पर कोई दवाब नहीं पड़ता है। कई खामियों के बावजूद मुक्काबाज स्पोर्ट्स पर बनी फिल्मों की सूची में बेहतर स्थान ग्रहण कर पाने में सफल होती है। क्योंकि वह वास्तविकता के काफी करीब है। पात्रों के चयन, स्क्रिप्ट, लोकेशन के ज़रिये वास्तविकता को बरकरार रखा जा सका है। खेलों के साथ उसके विज्ञापन से जुड़े तथ्यों की ओर अब धीरे-धीरे बहस होने लगी है। फिल्म दंगल की गीता बबीता को सपोर्ट करने वाले मीट व्यवसायी तो आपको याद ही होंगे। लेकिन ग्रामीण और कस्बाई स्तर पर खेलों में विज्ञापन का हाल मुक्काबाज के बेदाग डिटर्जेंट के मालिक जैसा ही है, जिससे भगवान दास अपनी भतीजी का सौदा तक कर लेता है। ऐसा करते हुए भगवान दास जैसे लोगों का ब्राहमणत्व तब कहाँ चला जाता है? यह भी रूढ़िवादी, ब्राह्मणवादी लोगों को फिल्म देखते हुए खोज लेना चाहिए। भगवान दास जैसे लोग ही समाज, संस्कृति, खेलों की दशा के लिए ज़िम्मेदार हैं, इसी का पर्दाफाश मुक्काबाज अपने पंच से करती है। इन्हीं जैसों के प्रभाव के चलते कई खिलाड़ी अपने सपने को चूर-चूर कर लेते हैं फिर भगवान दास जैसे ही लोग बड़े मंचों से देश में खेल और खिलाड़ियों की स्थिति पर घड़ियाली आँसू बहाते हैं तो दुख होता है।
– मनीष कुमार जैसल