विशेष
बांग्ला लोक साहित्य में श्रीराम और श्रीकृष्ण की कथाएँ* – द्वितीय (अंतिम) भाग
2. लोकगाथाओं में राम-कृष्ण कथा-
लोकगाथा या कथात्मक गीत, अंग्रेजी में ‘बैलेड’ (Ballad) शब्द से अभिहित हैं। ये समाज के किसी वर्ग और व्यक्ति विशेष से संबद्ध नहीं हैं अपितु, संपूर्ण समाज की धरोहर हैं। इनका उद्भव जनसाधारण की मौखिक परंपरा से होता है। काव्यकला के सौंदर्य और गुणों का इनमें अभाव रहता है।
‘गीतिका’ कथागीत के रूप में लोक साहित्य है। अक्सर लोकगीत का प्रयोग किया जाता है। लोकगीत में सुर मुख्य, होता है और कथा गौण होती है, कथागीत (गीतिका) में ठीक इससे विपरीत कथा प्रभावशाली और विस्तृत होती है और गीतात्मकता गौण।
बांग्ला साहित्य की इस शैली की पहली अभिव्यक्ति मध्ययुगीन वैष्णवकविता में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद, इनका नया रूप कविगान, यात्रा, लोकगाथा, पाँचाली के माध्यम से प्रकट हुआ।
पूर्वी बंगाल क्षेत्र के सबसे पुराने लोक साहित्य को पूर्व बंग गीतिका कहा जाता है। बांग्लादेश के मैमनसिंह अंचल में प्रचलित पाला गान (गीत संकलित नाटक) को मैमनसिंह गीतिका कहते हैं। प्राचीन काल से पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से प्रचारित होते रहे ये पाला गान बांग्ला साहित्य की अमूल्य संपदा हैं।
पूर्व बंगाल (अब बाँग्लादेश) के नेत्रकोना जिले के साहित्यकार, शोधकर्ता और प्रचलित लोक गीतों और लोक कथाओं के प्रसिद्ध संग्राहक चंद्रकुमार दे (1889- 1946) ने जो लोक साहित्य एकत्र किया था, उन्हें संपादित कर, डॉ दिनेश चंद्र सेन ने कलकत्ता विश्वविद्यालय की मदद से दो पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया-
(1) मैमनसिंह गीतिका (1923)
(2) पूर्वबंग गीतिका (1923-1932), (चार खण्ड) जिसे बाद में अंग्रेजी में पूर्वी बंगाल Ballads के रूप में प्रकाशित किया गया।
मध्ययुगीन बंगाल (सोलहवी शताब्दी) की तीन प्रसिद्ध महिला कवियों में से एक चन्द्रावती बांग्लादेश के मैमनसिंह (किशोरगंज) जिले की पातुआरी गाँव की बाशिंदा थी। वे ‘मनसा मंगल’ काव्य के रचयिता उनके पिता बंसीदास भट्टाचार्य की बेटी हैं। बचपन के साथी और प्रेमी जयचन्द्र चक्रवर्ती जो खुद भी एक कवि था, उसके साथ चन्द्रावती का विवाह प्रस्ताव टूट जानेके बाद चन्द्रावती ने आजीवन अविवाहित रहकर पिता द्वारा निर्मित शिवमंदिर में अपना जीवन व्यतीत किया। पिता ने चन्द्रावती का ध्यान अन्य ओर आकर्षित करने हेतु बेटी को रामायण कविता लिखने को कहा। चन्द्रावती ने सीता के बनवास तक ही रामायण लिखा। बांग्ला भाषा में रामायण अपूर्ण रहा लेकिन इस अधूरे रामायण ने उन्हें बांग्ला साहित्य में अमर बना दिया।
‘पूर्वबंग गीतिका’ के चौथे खंड में चन्द्रावती की सबसे ज्यादा चर्चित कविता ‘चन्द्रावतीर रामायण’ प्रकाशित हुई है। इससे पहले मैमनसिंह के हर घर में इस काव्य का पाठ होता था।
इस पाला गान के केंद्र में राम नहीं सीता स्थापित की गई है। चन्द्रावती इस कहानी की विशेषता है कि उन्होंने एक नारी की दृष्टि से रामायण की कहानी देखी है और सीता की व्यथा के बारे में लिखा। सीता बनबास के बारे में, कवि चन्द्रावती ने कुकुया के चरित्र को रामायण में जोड़कर एक सुंदर कहानी बनाई। कुकुया कैकेयी की बेटी थी। माँ की तरह, वह रामचंद्र को बर्बाद करना भी चाहती थीं। इसलिए उसने सीता के पत्तों के पंखे पर रावण के चित्र को चित्रित करने सीता पर दबाव डाला।
देखि नाई रायिक्खसरे गो सुईन्या काँपे हिया,
दसमुंड राबन नाकि गो, देखाओ आँकिया
उस राक्षस ओ हमने कभी देखा नहीं, सुनकर भी दिल काँप उठता है। सुना है उसके दस सिर हैं? जरा चित्र बनाकर बताओ।
सीता ने कहा कि उसने कभी रावण का चेहरा नहीं देखा। जब उसे उठाकर ले जा रहे थे तब सागर के पानी में सिर्फ उनकी छाया देखी है। कुकुया के दुराग्रह पर पंखे पर सीता ने दशानन रावण का चित्र बनाया और वही चित्र ले जाकर कुकुया ने राम को दिखाया और कहा- सुनो हे दादा (बड़े भैया) इस बात को कहते हुए वाक्य नहीं मिल रहा। आपकी नज़र में सीता ही ध्यान, ज्ञान और चिंतामणि है। जनकनंदिनी आपको जान से भी प्यारी है लेकिन आप सुन भी नहीं सकेंगे, ना ही विश्वास कर पायेंगे कि आपकी सीता अभी भी रावण को नहीं भूली है।”
इसके परिणामस्वरूप संदिग्ध रामने सीता का त्याग किया और फिर उन्हें वन भेजा। वाल्मीकि का आश्रम सीता का आश्रयस्थान बना।
सुनो सुनो दादा, ओगो आमि कोई जे तोमारे,
एई पापेर कथा कोइते मुखे बाक्य नाही सोरे।
सीता ध्यान, सीता ज्ञान, तोमार सीता चिन्तामोनी,
परानेर अधिक देखी गो तोमार जनकनंदिनी!
बिश्वास ना करो कथा गो, तुमि ना सुनिला काने।
असती निलाज सीता गो, भोजिलो राबोने।
कवि चन्द्रावती ने वाल्मीकि या कृतिवास के रामायण की तरह नहीं, बिलकुल अलग दृष्टिकोण से राम की कहानी का विश्लेषण किया। चन्द्रावती के रामायण का मुख्य चरित्र राम नहीं सीता है।
ब्रजेन्द्रकुमार दे ने भी ‘महीयसी कैकयी’ और ‘भरत विदाई’ में रामायण की कथा की नई व्याख्या प्रस्तुत की। कथा की नई व्याख्या करते हुए उन्होंने दर्शाया कि कैकयी ने राम को वनवास न भेजा होता तो राम इतने सामर्थ्यवान राजा न बन पाते। वन में रहकर वे लोह्मानव बने, विश्वामित्र से परामर्श लेकर कैकेयी ने यह निर्णय लिया था।
3. लोक नाट्य में श्रीराम और श्रीकृष्ण कथाएँ –
लोक नाट्य में लोक जीवन का पर्याप्त प्रतिनिधित्व दीखता है। लोक साहित्य का यह अंग बहती धारा की तरह है जो अपना मार्ग खुद ढूंढ लेता है। लोक नाट्य के दो प्रकार हैं- सामाजिक लोक नाट्य और धर्मप्रधान लोक नाट्य। धर्म प्रधान लोकनाट्य में मुख्य रूप से रामलीला, कृष्णलीला और बंगाल का जात्रा नाट्य होता है जिन में मनोरंजन के साथ लौकिकता भी होती है।
(i) बांग्ला लोक-नाट्य जात्रा में श्रीराम और श्रीकृष्ण–
जात्रा बंगाल की 500 साल पुरानी परंपरा है। जात्रा आसाम, उड़ीसा, त्रिपुरा और पूर्वी बिहार में भी जनप्रिय लोकनाट्य है, पर यह बंगालियों की अपनी संस्कृति है। जात्रा पश्चिम बंगाल में पारंपरिक नाट्य शैली के तौर पर बेहद लोकप्रिय है। जात्रा में संगीत, अभिनय, गायन और नाटकीय वाद विवाद होता है।
लोकनाट्य अक्सर खुले मैदान में किया जाता है। गोल, चौकोण, आयताकार, एकाधिक सेट बनाए जाते हैं। सामूहिक गीत गायक और संगीतकार मंच पर अपने स्थान पर बैठ जाते हैं। चारों ओर दर्शक बैठते हैं। बीच में गलियारे होते है जो मंच को ड्रेसिंग रूम में जोड़ते हैं। अभिनेता इन गलियारों से प्रवेश करते हैं और बाहर निकलते हैं। अतिनाटकीय अभिनय और धारावाहिक पठन इसका आकर्षण है। विशाल मंच पर जोरदार रोशनी की सुविधाओं के साथ नाटकीय प्रस्तुति की जाती है। राम, लक्ष्मण, रावण, सीता या हनुमान, सभी शाही पोशाक में पहने बिलकुल जीवंत लगते हैं।
बारहवी शताब्दी में कवि जयदेव के ‘गीतगोविन्द’ का नाट्यगीत में रूपान्तर हुआ। सोलहवी शताब्दी में चैतन्य की कृष्ण लीला को जात्रागान की उपमा दी गई। इस तरह जात्रा का उद्भव प्राचीनकाल में हुआ लेकिन सोलहवीं शताब्दी में ग्रामीण क्षेत्रो के चौपालों में उसका नाट्य रूपान्तर हुआ। अठारहवीं शताब्दी में मंच पर अभिनय के माध्यम से प्रस्तुत करने का चलन शुरू हुआ। कृष्ण लीला ही सर्वाधिक जनप्रिय लोकनाट्य था। फिर कृष्णा कमल गोस्वामी ने कृष्ण लीला को नया रूप दिया और कालिय दमन लीला प्रस्तुत की। गिरीश चन्द्र ने रामायण और महाभारत से प्रेरित हाकर ‘सीतार बनबास’, ‘सीताहरण’, ‘पांडवेर अज्ञातवास, वगैरह जात्राएँ प्रस्तुत की।
नन्दगोपाल रायचौधरी की जात्रा कथा ‘कविर कल्पना’ रामायण से ली गई है। सीता की अग्निपरीक्षा लेकर राम के चरित्र पर जो कलंक लगा, उसीकी नई व्याख्या की गई है। प्रजा की मानरक्षा की खातिर अपनी सती स्त्री को अग्निपरीक्षा देने के लिए बाध्य किया गया। राम ने परिवार की अपेक्षा प्रजा के प्रति अपने राज धर्म को ऊपर रखा।
हाल ही में जात्रा में सुधार के लिए, पश्चिम बंगाल सरकार ने कलकत्ता में पश्चिम बंगाल यात्रा अकादमी की स्थापना की है। यूनेस्को ने ऐसी दुर्लभ कलाओं को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर में शामिल करने का कार्य वर्ष 2006 से शुरू किया है। इसका मकसद है, दुनिया भर के लोग इन अद्भुत कलाओं से वाकिफ हों।
(ii) कुशान लोकनाट्य –
यह एक लोक नाट्य है जो यह नाटक, कविता और नृत्य का सम्मिश्रण है। पश्चिम बंगाल के अनेक स्थानों पर और बांग्लादेश के रंगपुर में इसका मंचन होता है। मूलतः यह रामायण की कथा पर ही प्रस्तुत होता है। खासकर राम के पुत्र लव और कुश को लेकर इसकी कहानी कुछ इस प्रकार है कि एकबार बेटे लव को न पाकर सीता चिंतित हुई और वाल्मीकि ने उन्हें एक कुश (घास) लानेको कहा। कुश को उन्होंने लव का आकार दिया और प्राण प्रतिष्ठा की। कुछ समय बाद लव वापस आये। फिर दोनों भाई साथ रहने लगे।
4. लोक नृत्य में श्रीराम-श्रीकृष्ण की कथाएँ–
नृत्य शास्त्रीय पद्धति से किया जाता है और लोक नृत्य अशास्त्रीय पद्धति से। लोक नृत्य को वाद्य का सहारा लेकर किया जाता है। यह प्राकृतिक होता है। इनमें कला तो होती है पर कलात्मक होने की चैतन्यता नहीं होती। लोक नृत्य देश के हर क्षेत्र के लोक जीवन में है। बांग्ला लोकनृत्य में गाम्भिरा नृत्य, कीर्तन नृत्य, कुशाण नृत्य, आल्काप नृत्य, छाऊ नृत्य, जात्रा नृत्य लोकप्रिय नृत्य हैं।
(i) छाऊ नृत्य-
छाऊ नृत्य एक आदिवासी नृत्य है। नृत्य मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले के अंतर्गत आता है लेकिन यह नृत्य व्यापक रूप से ओडिशा, झारखंड आदि जैसे अन्य राज्यों में भी लोकप्रिय है। इसके तीन प्रकार है- सेरैकेल्लै छाऊ, मयुरभंज छाऊ और पुरुलिया छाऊ। यह नृत्य परंपरागत लोक संगीत की धुन के साथ प्रस्तुत किया जाता है। इसमें युद्ध की तकनीक विशिष्ट रूप से दिखाई जाती है।
रामायण और महाभारत या कोई पौराणिक कथाओं को इस नृत्य के माध्यम से दिखाया जाता है। कथाओं के चरित्र के अनुरूप सुन्दर मुखौटे बनाए जाते हैं। पुरुलिया के इस छाऊ नृत्य के लिए मुखौटा बनाने की यह एक अद्भुत कला है। बंगाल के पुरुलिया और मिदनापुर ज़िलों के कुछ क्षेत्रों में इस नृत्य में रामायण की पूरी कथा होती है, जबकि अन्य जगहों पर रामायण और महाभारत तथा पुराणों में वर्णित अलग-अलग घटनाओं को आधार बनाकर यह नृत्य किया जाता है। पश्चिम बंगाल में यह नृत्य खुले मैदान में किया जाता है। इसके लिए लगभग 20 फुट चौड़ा एक घेरा बना लिया जाता है, जिसके साथ नर्तकों के आने और जाने के लिए कम से कम पाँच फुट का एक गलियारा अवश्य बनाया जाता है। जिस घेरे में नृत्य होता है, वह गोलाकार होता है। बाजे बजाने वाले सभी अपने-अपने बाजों के साथ एक तरफ़ बैठ जाते हैं। हिन्दुत्व और युद्ध संबंधी लोक साहित्य ने मिलकर पुरुलिया छाऊ नृत्यों को आकार दिया है जिसका केवल एक संदेश है बुराई पर अच्छाई की विजय।
(ii) रासनृत्य-
रासलीला में जो नृत्य प्रदर्शित होता है उसे रासनृत्य के नाम से जाना जाता है। बांग्लादेश के मणिपुरी आदिवासी लोगों के लिए रास पूर्णिमा महोत्सव सबसे बड़ा धार्मिक और सांस्कृतिक त्यौहार है। यह त्यौहार हर साल कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। रास नृत्य में आम तौर पर राधा और कृष्ण की भूमिका बच्चों को दी जाती हैं जिनकी उम्र पांच से कम है। मणिपुरियों का मानना है कि इस उम्र के बाद बच्चों में दैवी शक्ति गायब हो जाती है। लेकिन असली नृत्य और गीत युवा लड़कियाँ ही प्रस्तुत करती हैं जो राधा की सहेलियों के रूप में मंच पर आती हैं। बांग्ला, मैथिली, ब्रजबुली कवियों की पदावलियों में से रास नृत्य के गीत गाये जाते हैं।
मणिपुरी नृत्य का बाहरी विश्व से परिचय रवीन्द्रनाथ टैगोर ने करवाया। वर्ष 1926 में वे सिलेट में आए और इस नृत्य में कोमल आंगिक अभिनय देखकर मोहित हो गए। बाद में, उन्होंने अपनी नृत्यनाटिका में इस नृत्य को स्थान दिया।
5. लोक कला में श्रीराम- श्रीकृष्ण की कथाएँ –
भारत की अनेक जातियों व जनजातियों में पीढी दर पीढी चली आ रही पारंपरिक कलाओं को लोक कला कहते हैं। कलमकारी, कांगड़ा, पातचित्र, पिछवई, पिथोरा चित्रकला, बाटिक, मधुबनी, वरली आदि भारत की प्रमुख लोक कलाएँ हैं। रामायण और भागवत चित्रकारों के प्रिय विषय हैं।
पटचित्र पश्चिम बंगाल की लोक कला व संस्कृति का प्रतीक हैं। पटशिल्प के जानकार बताते हैं कि सबसे पहले संथाल आदिवासियों ने इसकी शुरुआत की। यह संथाल, होस, मुंडा, जुआंग्स और खेरिया जनजातियों काफी लोकप्रिय था। कपड़े पर रंगों से खींची जाने वाली सांस्कृतिक व दैविक आकृतियों को पटचित्र कहा जाता है और चित्रकार को पटुआस। आमतौर पर पटुआस प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करते हैं जो पेड़, पत्तों, फूलों और मिट्टी से बनते हैं। फिर इनमें प्राकृतिक रंग भरे जाते हैं। पटचित्रों में धर्म और रोजाना की जिंदगी से जुड़े किस्से होते हैं। शुरुआत में पटचित्र ताड़ के पत्तों पर बनाए जाते थे। हालांकि बाद में कपड़े पर बनाए जाने लगे और अब तो हस्तनिर्मित कागज पर भी बनाए जा रहे हैं।
पटचित्र कलाकार चित्रकारी के अलावा पाटेर गीत भी गाते हैं जो यहाँ की अपनी अनूठी परम्परा है। इस परम्परा को पटगायन परम्परा कहा जाता है। चित्रकारी के दौरान कलाकारों की जुबान पर लोक गीत हुआ करते हैं जिनमें सामाजिक संदेश और समकालीन घटनाओं का जिक्र रहता है। पश्चिम बंगाल के बीरभूम, पश्चिम मिदनापुर, वर्धमान, मुर्शिदाबाद और अन्य ग्रामीण क्षेत्रों में पटुआ संगीत का प्रचलन देखा जाता है जिसमें वे रामायण, महाभारत की कथा को गीत के रूप में लोगों के सामने रखते हैं।
उदाहरण के लिए-
बिबाह हैल रामचंद्रेर, हैल अधिबास,
पितृसत्य पालिते राम चलेन बनबास।
आगे चलेन रामचंद्र, पश्चाते जानकी,
ताहार पश्चाते चले लक्ष्मण धनुकी!
उपरे रबिर ताप नीचे तात-बाली,
चलिते ना पारे सीता ननीर पुतुली।
भान्गिल तरूर डाल लक्ष्मण धरे शिरे,
तार उपर छायालक्ष्मी चले धीरे-धीरे।
पंचबटीर बनेते राम तुलिल हाउआली,
राम-सीता रयेछेन बसे लक्ष्मण प्रहरी!
रामचंद्र का विवाह हुआ, अधिवास भी हुआ पर पिता की आज्ञा का पालन करने हेतु वे वन में चल दिए। आगे रामचंद्र, पीछे जानकी और उन दोनों के पीछे धनुर्धारी लक्ष्मण चले। ऊपर सूर्य का ताप नीची तपती रेत ऐसे में नाजुक सीता चल नहीं पातीं। एक वृक्ष की डाल तोड़कर लक्ष्मण ने सिर पर धरी तब सीता धीरे-धीरे चलने लगीं। पंचवटी के वन में राम ने अपनी झोंपड़ी बनाई। राम-सीता बैठे हैं, लक्ष्मण पहरेदार हैं।
6. लोक शिल्प में श्रीराम और श्रीकृष्ण की कथाएँ –
समय के साथ बंगाल में कई संस्कृतियाँ विकसित हुईं। लोक शिल्प भी उन्हीं में से एक है। लोक शिल्प में भी श्रीराम और श्रीकृष्ण की कथाओं को स्थान मिला है। विष्णुपुर भारत के पश्चिम बंगाल प्रदेश का एक एक प्रसिद्ध शहर है। विष्णुपुर शहर टेराकोटा के मंदिरों, बालूचरी साड़ियों व पीतल की सजावटी वस्तुओं के लिए भी मशहूर है। यहां स्थित ‘रासमंच’ पिरामिड की शक्ल में ईंटों से बना सबसे पुराना मंदिर है। 16वीं सदी में राजा वीर हंबीरा ने इसका निर्माण कराया था। इस मंदिर में टेराकोटा की सजावट की गई है जो आज भी पर्यटकों को लुभाती है। इसकी दीवारों पर रामायण, महाभारत व पुराणों के श्लोक खुदाई के जरिए लिखे गए हैं। यहां बनी बालूचरी साड़ियाँ देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मशहूर हैं। इन साड़ियों पर महाभारत व रामायण के दृश्यों के अलावा कई अन्य दृश्य कढ़ाई के जरिए उकेरे जाते हैं।
आधुनिक बांग्ला साहित्य में रामायण और राम-कथा का महत्त्व गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर तक ही सीमित रहा। दिनेश चन्द्र सेन की पुस्तक ‘रामायणी कथा’ की भूमिका में गुरुदेव ने जो लिखा वह संक्षिप्त में इस प्रकार है-
जब रामायण-महाभारत को दुनिया की अन्य कविताओं के साथ तुलना करके वर्गीकृत नहीं किया गया था, तब इन कथाओं को इतिहास कहा जाता था। विदेशी साहित्य-खजाने में सत्यापित कर उन्हें ‘एपिक’ का नाम दिया गया जिसका बांग्ला नामकरण हुआ ‘महाकाव्य’। अब हम रामायण-महाभारत को महाकाव्य कहते हैं और उनके रचयिताओं को महाकवि। इन महाकाव्यों में कवियों ने अपनी कल्पना, अपने सुख-दुःख, अपने जीवन के अनुभवों द्वारा समस्त मानवजाति के चिरंतन हृदयावेग और जीवन की मर्मकथा कह दी है। वेद व्यास और वाल्मीकि तो उपलक्ष्य मात्र है। इन रचनाओं को किसी भी व्यक्ति द्वारा लिखा नहीं प्रतीत होता है। भारत के लिए यह रचनाएँ जाह्नवी और हिमालय की तरह है। ऐसा लगता है जैसे देश की भूमि की सतह से उपर उठकर एक विशाल वृक्ष की तरह पनपकर, यह रचनाएँ देश को आश्रयछाया प्रदान कर रही है।
समस्त भारतवर्ष को एक सूत्र में बांधते इन विशाल दो ग्रन्थ के रचयिता अपनी ही रचना के पीछे इस कदर छुप गए हैं कि अपना नाम ही खो बैठे हैं। इतनी विशालता किसी भी आधुनिक कविता में नहीं देखी जाती है, यही कारण है कि भारत में सदियों से रामायण-महाभारत की धाराएं अविरत बह रही हैं। इनमें भारतवर्ष की साधना, आराधना और संकल्प का चिरंतन इतिहास है।
वाल्मीकि की नज़र में राम अवतार नहीं हैं। कवि रामायण में नर-चरित्र वर्णन न कर अगर देव-चरित्र का वर्णन करते तो शायद रामायण की महिमा कम हो जाती। रामायण कथा में कर्तव्य है। दाम्पत्य, मातृत्व, पितृ-भक्ति, प्रभु-भक्ति, प्रजा-वात्सल्य आदि मानवता के सभी उच्च आदर्श विद्यमान है। उसमें सभी प्रकार की हृदयवृत्ति को महत धर्म नियम के द्वारा पद पर संयत करने का कठोर निर्देश भी है। मनुष्य के लिए ऐसी शिक्षा और किसी देश में, किसी साहित्य में नहीं है।
राम-सीता का दाम्पत्य श्रेष्ठ, उत्तम, विशुद्ध है। राम का पौरुष, कर्त्तव्यनिष्ठा तथा धर्मपरायणता का आदर्श उच्चतर है। रामायण तो मानव चरित्र की ही कथा है देवता की नहीं। श्रीराम मनुष्य के रूप में अवतरित देवता नहीं है, मनुष्य ही अपने गुणों से देवता बन पाया है।
कृष्ण कथा के संपर्क में आनेवाले गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर वैष्णव धर्म के मूल तत्व की भी चर्चा करते है- अधिकांश धर्मं शास्त्रों में ईश्वर के साथ बाध्य-बाध्यता का सम्बन्ध जोड़ने का उपदेश दिया जाता है, जैसे वे मालिक मैं सेवक, वे यथेच्छाधारी दाता और मैं स्तुतिवादक प्रार्थी। वैष्णव धर्म इसी बाध्य-बाध्यता के सम्बन्ध को तोड़कर ईश्वर के साथ एक अहैतुकी सम्बन्ध जोड़ना चाहता है, मतलब मैं जिस व्याकुलता से उन्हें चाहता हूँ ठीक वैसी ही व्याकुलता लेकर वे मुझे चाहते हैं।
जहाँ वे असीम और मैं ससीम, वे सृष्टा मैं सृष्ट, वे ईश्वर मैं दीन वहीँ उनमें और मुझमें अनंत व्यवधान है, किन्तु जहाँ वे मेरे ही पुत्र, बन्धु या प्रेमी बनकर मुझे मधुर भाव से दर्शन देते हैं, मेरे समकक्ष होकर मानों मेरे ही प्रेमपाश में पकड़ाई दे जाते हैं। लगता है विश्वजगत में सर्वत्र उनकी बाँसुरी मेरा ही नाम पुकारती हुई बज रही है।
यही कारण है शायद कि बांग्ला काव्य जगत में कृष्ण काव्य का प्राचुर्य और महत्त्व श्रीराम से अधिक है। हर युग में अमर प्रेम के बारे में जितनी कथाएं लिखी गई, उसमें राधा-कृष्ण को लेकर सर्वाधिक संख्या में पदावली, कीर्तन, पाला गान और लोक गीत लिखी गए। सभी वर्गों के लोगों के लिए आज भी राधा-कृष्ण की प्रेम कहानी जीवित है।
बांग्ला लोक साहित्य में रामकथा और कृष्णकथा पर कुछ महत्वपूर्ण बिदुओं की चर्चा करने के बाद हम यह कह सकते हैं कि श्रीराम व श्रीकृष्ण ने अपनी अपनी चारित्रिक विशेषताओं द्वारा भक्तों के मानस को आंदोलित किया, पर बंगाली जनमानस ने मुख्यतया कृष्ण भक्ति को ही अपनाया है। डॉ. योगेन्द्र प्रतापसिंह तथा डॉ. हरिश्चन्द्र मिश्रा के सम्पादन में प्रकाशित पुस्तक ‘भारतीय भाषाओं में राम-कथा (बांग्ला भाषा) में अपने प्रकरण ‘सम्पादक की मंशा’ में डॉ. हरिश्चन्द्र मिश्रा ने कहा कि बांग्ला काव्य जगत में कृष्ण काव्य का प्राचुर्य और महत्त्व है वहीँ शिशु शिक्षा, नैतिकता तथा आचार शिक्षा आदि के लिए राम-कथा का सहारा लिया जाता है। उनमें ‘शिशु रामायण’ जिनके रचयिता अनामी है, नवकृष्ण भट्टाचार्य की ‘शिशुरंजन रामायण’ तथा ‘टुकटुके रामायण’, दिनेश सेन की ‘रामायणी कथा’, योगीन्द्रनाथ सरकार की ‘छोटोदेर रामायण’, राजकमल विद्याभूषण की ‘छेलेदर रामायण’ उल्लेखनीय है।
राम कथा सम्बन्धी सच्चाई को गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोरने बड़ी स्पष्टता से बयान किया है. ‘लोक साहित्य’ पुस्तक के ‘ग्राम्य साहित्य’ निबंध में गुरुदेव लिखते हैं कि बंगाल की मिट्टी में रामायण की कथा हर-गौरी और राधा-कृष्ण की कथा के ऊपर सिर नहीं उठा पायी, वह हमारे प्रदेश का दुर्भाग्य है। राधा-कृष्ण में सौन्दर्यवृत्ति और हर-गौरी में हृदयवृत्ति की चर्चा हुई है, धर्मप्रवृत्ति की अवधारणा नहीं हुई। उसमें वीरत्व, अविचलित भक्ति तथा कठोर त्याग का आदर्श नहीं है।
गुरुदेव ने ‘चिट्ठिपत्र’ के एक पत्रकार निबंध में लिखा कि सर्वश्रेष्ठ आदर्शों की खातिर आत्म-त्याग करना वीरता का कार्य है। कर्तव्य निभाने राम वनवास गए यह वीरत्व है। सीता और लक्ष्मण ने उनका अनुसरण किया वह भी वीरत्व है। भरत राम को वापस लेने गए वह भी वीरत्व है। हनुमान ने राम की जी जान से सेवा की वह भी वीरत्व है। राम ने रावण को दो बार जीता, एक बार मारकर और एक बार क्षमा करके। गुरुदेव टैगोर ने जिस तरह वीरत्व की व्याख्या की है वह उन्हीं के लिए संभव है।
बांग्ला लोक साहित्य के संग्रह में जिनका अमूल्य योगदान है वे हैं- गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर, आशुतोष भट्टाचार्य, मुहम्मद मंसुरुद्दीन, डॉ. अशरफ़ सिदिक्की और डॉ. मयहारूल इस्लाम। उन्होंने बांग्ला लोक साहित्य के संग्रह और संपादन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। दिनेश चंद्र सेन ने बंगाल के लोक साहित्य को इकट्ठा करने, संरक्षित करने और मूल्यांकन करने के अपना बहुमूल्य योगदान दिया है।
बंगाल का समृद्ध लोक साहित्य, लोक कला, लोक परंपराओं और हजारों वर्षों की जीवन-शैली के माध्यम से संपूर्ण बंगाली संस्कृति को पहचानने में मदद करता है और उसके सकारात्मक अध्ययन से एक उत्कृष्ट बंगाली समाज के साथ-साथ एक उत्कृष्ट भारतीय समाज बनाने की संभावना पैदा करता है।
सन्दर्भ सूत्र–
• ‘बांग्ला साहित्येर इतिहास’- बिजनबिहारी भट्टाचार्य
• ‘बांग्लार लोक संस्कृति’ अहमद वकील, ढाका
• ‘बांग्लादेशेर धामाइल गान’ सुमन कुमार दास, ढाका
• ‘बांग्लार लोक साहित्य’ (प्रथम खंड) आशुतोष भट्टाचार्य, कोलकाता
• ‘ग्रामीण गीति संग्रह’ दिनेन्द्र चौधरी, पश्चिम बंग राज्य संगीत अकादमी
• ‘लोक संगीत संग्रह झूमूर’ शान्ति सिंह, कोलकाता
• ‘जात्रा गीतों में महिलाओं की भागीदारी और प्रस्तुति’- तपन बागची
• ‘छाऊ डांस ऑफ पुरुलिया’- आशुतोष भट्टाचार्य
• ‘बांगलार पूरनारी’- दिनेशचन्द्र सेन, कोलकाता
• ‘प्राचीन भारतीय साहित्य ओ बांगालेर उत्तराधिकार’- जाह्नवी कुमार चक्रवर्ती
• ‘पौराणिक संस्कृति ओ बंग साहित्य’- शिव प्रसाद हालदार
• ‘गौडीय संप्रदाय के प्रवर्तक’ (हिन्दी में) (एचटीएम), अमर उजाला.
• ‘आधुनिक बांग्ला साहित्य और रामायण’- रामेश्वर मिश्र (हिन्दी में)
• ‘बांग्लादेश का लोक साहित्य’-डॉ अशरफ सिद्दीकी’, ढाका 2005 (अंग्रेजी)
• ‘मयमनसिंह-गीतिका’, दिनेशचंद्र सेन, कलकत्ता, 1923
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• ‘लोकसाहित्य (2 खंड)’-अशरफ सिद्दीकी, ढाका, 1994
• ‘महात्मा लालन फ़क़ीर’- बसंतकुमार पाल
• ‘बांग्लार बाउल ओ बाउल गान’-उपेन्द्रनाथ भट्टाचार्य
• राधारमण गीतिमाला
• ‘गान संग्राहक तालिका’ राधारमण दत्त ‘
• ‘लोकसाहित्य की भूमिका’- डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय (हिन्दी)
• ‘बांग्ला साहित्येर इतिहास’- सुकुमार सेन‘
• ‘कृतिवास रामायण’ की भूमिका- पूर्णचंद्र
• ‘रामायणी कथा’- दिनेश चन्द्र सेन
– मल्लिका मुखर्जी