छन्द संसार
दोहे
लुका-छिपी चन्दा परी, घोड़ा-गाडी रेल।
थे कितने मस्ती भरे, बचपन के वे खेल।।
अम्मा की पुचकार हो, या बापू की डाँट।
ख़ुशी-ख़ुशी हर चीज़ को, हम लेते थे बाँट।।
मन से तो बच्चे रहे, तन से हुए किशोर।
अपना इस बदलाव पर, चला न कोई ज़ोर।।
यौवन की दहलीज़ पर, जब आ पहुँचे पैर।
कितनी ही मनमानियाँ, रहीं आँख में तैर।।
वक़्त उड़ाकर ले गया, जीवन की चीज़।
पर हमने तहज़ीब की, फेंकी नहीं कमीज़।।
भोली सूरत देखकर, हर ग़म जाता भूल।
बच्चे लगते हैं मुझे, गुलदस्ते के फूल।।
डगमग पैरों ही सही, लेंगे मंज़िल खोज।
कन्धों पर मत लादिए, उम्मीदों का बोझ।।
बचपन को इस बात पर, होता नहीं यकीन।
समझदारियाँ एक दिन, लेंगी बचपन छीन।।
नाज़ुक-नाज़ुक हाथ हैं, नन्हे-नन्हे पैर।
नीली आँखों में कई, स्वप्न रहे हैं तैर।।
रोपे जिन माँ-बाप ने, संस्कार के बीज।
उनके क़दमों में पड़ी, दुनिया की हर चीज़।।
– महेश मनमीत