उभरते स्वर
छोटी-सी कविता
छोटी-सी कविता भी
शब्दों की माला बनकर
मन की धारा में
भाव अभिव्यक्ति से
अहम् को गम्भीर कर
बड़ी-सी काया लेकर
मन-मस्तिष्क को अधिर कर
सोचने के सामर्थ्य में
नव उत्साह की उमंग लेकर
नव पुलकिंत अंगों से
नव नभमण्डल में
मंजिल की तलाश में
पर फैला कर
उड़ने की चाह में
छोटी-सी कविता भी
बड़ी बन जाती है।
बड़ी-सी कविता को
छोटा न करने की चाह नहीं है
मनस पटल की रेखाओं में
कितना ही चहुँओर से
दाब सहकर
छोटा न होना ही सीखा है
अपने जीवन में
छोटी-सी कविता ने
अपने जीवन को
छोटे होने का
आभास न हो
हे मानुस!
आज तुम्हारी डगर पथ पर
शूल काँटें असंख्य
राह रोके खड़े होगें
तू न विचलित हो
अपने मन मन्दिर में
सदा ही सत्य दीप से
छोटा-सा प्रकाश-पुंज
बनकर
नव धरा के
जीव अंसख्य में
जीवन बनकर
छोटी-सी कविता के
भाव गम्भीर हो
रक्त वाहिनी-से बनकर
दौड़ इस जीवन में।
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पारावार
नीर ने लिया यौवन
सरिता चली सागर कि ओर
चाह बनी उर में
युगों-युगों से सागर से
जा मिलनें का
नीर का सपना
हुआ साकार।
सपनों ने ही कई नीड़
सागर के चरणों में अर्पण किये
पशु, खग, तरू- क्या?
नर-नारी ने अपने
जीवन का उत्सर्ग किया
सागर के चरणों में।
लेकिन सरिता बनी
जीवन का आधार
न जाने कितनों का ही
उदार हुआ
सरिता के चरणों पर
उसी सरिता ने
अपनी पहचान खोई
सागर के चरणों में।
सागर के क्रन्दन से
सीप मोती मणि की
माला को अपर्ण किया
धरा पर
लेकिन यह कैसा रुदन?
लाखों मानवों के
जीवन पर छाया तम का सन्नाटा
न जाने कितनों ने
अपने प्राणों का त्याग
सागर के चरणों में।
कब मानव ने हार मानी
लाखों नर नारी ने शपथ ली
प्रकृति पर विजय करने की
सभी ने अपना आशियाना बनाया
सागर के चरणों पर।
– कमलेश कुमार