छन्द संसार
कुंडलिया
बचपन की बातें ग़ज़ब, मधुर-माधुरी याद।
सबके जीवन के लिए, बचपन ही बुनियाद।।
बचपन ही बुनियाद, सीखने की अभिलाषा।
जीवन का प्रारम्भ, ज़िन्दगी की परिभाषा।।
कह ‘किंकर’ कविराय, चमकता जैसे दरपन।
चमके-दमके ख़ूब, चतुर्दिक मचले बचपन।।
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गढ़ना है फिर से हमें, सुन्दर, सुखद समाज।
आओ हम संकल्प लें, हिन्दुस्तानी आज।।
हिन्दुस्तानी आज, चलें संकल्प उठाने।
न्याय-नीति के संग, सुगमतर राह बनाने।
कह ‘किंकर’ कविराय, ज़रूरी सबका पढ़ना।
ख़ुद के अंदर झाँक, न्याय की मूरत गढ़ना।।
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छोटी-सी है ज़िन्दगी, बड़े-बड़े हैं काम।
जो जितनी रफ़्तार में, उसका उतना नाम।।
उसका उतना नाम, हुआ करता है जग में।
जो जितना संताप, झेलते रहते मग में।
कह ‘किंकर’ कविराय, वही पाते हैं चोटी।
रचते बड़ा विधान, जोड़कर बातें छोटी।।
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नारी के सहयोग से, होता है उत्थान।
धरती से अंबर तलक, नारी का गुनगान।।
नारी का गुनगान, किया करते हैं सज्जन।
आदर करते लोग, किया करते अभिनंदन।
कह ‘किंकर’ कविराय, निभाए दुनियादारी।
दौलत का भंडार, जहाँ पूजित है नारी।।
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हर भाई को मिल सके, हर भाई का प्यार।
हर आँगन के मध्य की, ढह जाए दीवार।।
ढह जाए दीवार, ख़ुशी घर-घर में छाए।
मिट जाए संदेह, सभी दूरी मिट जाए।
कह ‘किंकर’ कविराय, न बन इतना सौदाई।
सुख, वैभव बेकार, अगर बिखरे हों भाई।।
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मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
भरे पड़े दृष्टांत अति, झाँके अगर अतीत।।
झाँके अगर अतीत, हुआ है सब कुछ संभव।
बलवीरों ने पूर्ण, किया है कार्य असंभव।
कह ‘किंकर’ कविराय, जोड़ने से जुड़ता धन।
और हार पर हार, हार जाता है जब मन।।
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फँसकर बुलबुल जाल में, करती पुनर्विचार।
फँसते हैं सब लोभ में, लोभ-लाभ बेकार।।
लोभ-लाभ बेकार, कहा करते हैं सारे।
फिर भी फँसते लोग, इसी दलदल में प्यारे।
कह ‘किंकर’ कविराय, ग़ज़ब दुनिया पर हँसकर।
नहीं करेंगे लोभ, सभी कहते हैं फँसकर।।
– कैलाश झा किंकर