उभरते-स्वर
बेबस लड़की
बेबस, बेजार लड़की
अकेली उदास लड़की
चल पड़ी बेखौफ़
राह की दूरी अनंत
कौन जाने किस मोड़ से
मंजिल की राहें हैं फूटी
दया, सहानभूति और विश्वास
आँखों में थी वासना की प्यास
डरी, सहमी, सकुचाई वो
भीड़ में भी खुद को
अकेला पाई वो
नि:स्वार्थ भाव कहाँ मिलता है?
अक्सर बेबसी सरे बाजार होती है
अपने फटे आँचल से
खुद को ढंकती वो
सर से दाग मिटाती
भारी कदमों से चली है घर
बेखौफ़ होकर घर से चली थी
बे-आबरू हो पहुँची वो।
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स्त्रियाँ
दिख रही हैं मुझे
आत्मविश्वास से लबरेज स्त्रियाँ
देहरी लांघ
घूँघट से निकल
हर क्षेत्र में पहचान बनाती स्त्रियाँ
तवे पर रोटी सेंकतीं
और सेंसेक्स का ज्ञान रखती स्त्रियाँ
बच्चे को कंधे पे लाद
घर-आँगन-द्वार
हर जगह उपस्थिति दर्ज कराती स्त्रियाँ
घर संभालतीं
बच्चे पालतीं
वक्त निकालकर खुद भी पढ़तीं
और टॉप टेन में आतीं स्त्रियाँ
बड़े-बुढ़े, आस-पड़ोस
सबका ख्याल करती
और फिर एकांत में
काव्य रचना करती स्त्रियाँ
हर मसालें का स्वाद पहचानतीं
स्वादिष्ट खाना पकातीं
रिश्तों में जान डालतीं स्त्रियाँ
माँ का घर छोड़
पति के घर जातीं
नये घर में सामांजस्य बैठातीं
दिन-रात खुद को सेवा में लगातीं
हरिक की ख़ुशी का ख़याल रखतीं
और फिर
“पूरे दिन क्या करती हो?”
का तमगा पाती हैं स्त्रियाँ
बैंकों में नोट गिनतीं
पैप्सीको की CEO बनतीं
रसोई से संसद तक पहुंचतीं स्त्रियाँ
कहानी लिखतीं
उपन्यास लिखतीं
गद्य-पद्य-छंद में
घुल-मिल जातीं स्त्रियाँ
रसोई में बेलन संग डोलतीं
फिर स्टेज पर पहुंच
वर्ल्ड रिकॉर्ड बनातीं स्त्रियाँ
दिख रही है मुझे
आत्मविश्वास से लवरेज स्त्रियाँ।
– ज्योति साह