उभरते-स्वर
ये सफर भी कितने अजीब होते हैं ना!
ये सफर भी कितने अजीब होते हैं ना!
शुरू ही इसलिए होते हैं कि ख़त्म हो सकें
हम चलते हैं,
ये जानते हुए भी
कि एक दिन रुक जाना है
हम भटकते हैं
ये मानते हुए भी
कि मंज़िल ने तो मिल जाना है
ये सफर भी कितने अजीब होते हैं ना!
ना जाने क्या कुछ सिखा जाते हैं
ना जाने कितना कुछ दिखा जाते हैं
मंज़िल तक जाते जाते
ना जाने कितने रास्तों के पार जाते हैं
ये सफर भी कितने अजीब होते हैं ना!
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नाज़ुक-सी ज़िन्दगी
छोटी-सी ज़िन्दगी है ये
यादों में गूंधी चली
आ समेट ले इसे
बिखर ना जाए कहीं
नाज़ुक-से मोती हैं ये
मखमली-सी चादर पर
आ इस बिस्तर को ख़रोंच ले
बह ना जाए मोती कहीं
सपनों के आकाश में घिरी
फ़िर कभी यादों के आँगन में जा फ़िसली
बीते दरिया में बहकर
आज के साहिलों पे आ थमी
पलक ना झपकाना ज़रा
यूँ डर-सा लगता है
कल, आज और कल के बवंडर में
हर इक लम्हा बेहिसाब-सा लगता है
– ईप्सा अरोड़ा