ग़ज़ल
ग़ज़ल
मैं नये दोस्त बनाते हुए थक जाता हूँ
सब को सीने से लगाते हुए थक जाता हूँ
अब्र का टुकड़ा हूँ मैं कोई समंदर तो नहीं
प्यास सहरा की बुझाते हुए थक जाता हूँ
तू मेरे राज़ बताते हुए थकता ही नहीं
मैं तेरे राज़ छुपाते हुए थक जाता हूँ
सुबह से शाम तलक घर से मियाँ दफ्तर तक
जिस्म का बोझ उठाते हुए थक जाता हूँ
मेरी क़दमों से लिपट जाती है माँ की ममता
मैं कहीं गाँव से जाते हुए थक जाता हूँ
जाने कब जा के मेरा इश्क़ मुकम्मल होगा
रक़्स करते हुए गाते हुए थक जाता हूँ
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ग़ज़ल
कोई दरख़्त घनेरा तलाश करता हूँ
सुलगती धूप में साया तलाश करता हूँ
जो दिल के साथ मेरी रूह को भी महका दे
कोई गुलाब-सा चेहरा तलाश करता हूँ
जहाँ पे सर ही नहीं दिल भी सब के झुक जाएँ
मोहब्बतों का वो काबा तलाश करता हूँ
मैं अपनी पलकों पे शमअ-ए-वफ़ा जलाये हुए
मरीज़े ग़म हूँ मसीहा तलाश करता हूँ
जो मुझ पे रखता है इलज़ाम बेवफाई का
उसी से दर्द का रिश्ता तलाश करता हूँ
रज़ा मैं डूब के इल्मो-हुनर के दरिया में
मैं कोहे नूर का हीरा तलाश करता हूँ
– हाशिम रज़ा जलालपुरी