विशेष
बहुचर्चित संकलन ‘समकालीन महिला ग़ज़लकार’ की भूमिका
हिन्दी कविता में स्त्री-लेखन का इतिहास भारतीय कविता के इतिहास के बराबर पुराना है। हिन्दी में स्त्री-लेखन की परम्परा भक्तिकाल से अब तक निरन्तर मिलती है। मीरा बाई और आंडाल जैसी अनेक महिला कवयित्रियों के लेखन ने भारतीय वांग्मय की समृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। आज़ादी के समय से आधुनिक साहित्य तक में स्त्री-लेखन में उल्लेखनीय विकास व विस्तार हुआ है और आज तो स्त्री-लेखन कविता, कहानी, उपन्यास ही नहीं साहित्य की लगभग सभी विधाओं में उत्तरोत्तर विकसित हो रहा है। समकालीन हिन्दी ग़ज़ल के विकास में भी महिला ग़ज़लकारों की भूमिका को नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता। आज ऐसी अनेक महिला ग़ज़लकार हैं, जिन्होंने ग़ज़ल की दुनिया में एक विशिष्ट पह्चान बनायी है। हिन्दी ग़ज़लों का यह महिला केन्द्रित संकलन निकालने का उद्देश्य पिछले चालीस वर्षों के ग़ज़ल लेखन में उनकी रचनात्मक उपस्थिति को रेखांकित करना है।
इस ग़ज़ल-संकलन में विगत चार दशकों में हिन्दी ग़ज़ल में विशेष पह्चान बनानेवाली ग़ज़लकारों की ग़ज़लें शामिल हैं। नारी मन की विभिन्न मन:स्थितियों की अभिव्यक्ति इन ग़ज़लों में हुई है। इनमें प्रेम, समानाधिकार, विद्रोह तथा प्रकृतिजन्य विषयों पर ग़ज़लें हैं। इन ग़ज़लों में अन्तर्मन के विविध पक्षों की अभिव्यक्ति हुई है। अब महिला के लिए घर अलग क्षेत्र हो गया है, जहाँ वह अपने निर्णय अपने हिसाब से लेती है। आज स्त्री इतनी समझदार हो गयी है, इतनी जागरूक हो गयी है कि वह व्यक्ति और समाज की प्रत्येक गतिविधि में अपना हस्तक्षेप चाहती है। इस तरह आज वह पुरुष के बौनेपन को अनावृत कर भी रही है। उसमें नई चेतना उभरकर आयी है। आपसी रिश्तों के बीच प्रेम का स्वरूप भी बदल गया है। माँ के त्याग को भी अलग तरह से समझना होगा। यही है स्त्री की मुक्ति की ग़ज़ल, जिसमें मेहनतकश स्त्रियों का ज़िक्र है। वास्तव में स्त्री की मुश्किलें, उसकी त्रासदी पूरे संसार में लगभग एक-सी है। इन ग़ज़लों में स्त्री के अनछुए पीड़ा-जगत की पड़ताल है, जिसके ब्यौरे महिला ग़ज़लकार बख़ूबी दे रही हैं। अर्थात् इन ग़ज़लों में एक विशेष प्रकार की तलाश बनी रहती है, वह स्त्री की ख़ुद की तलाश है।
आशय यही है कि ये ग़ज़लें संवेदनशील नारी की वेदना और उसके आत्म-संघर्ष का आख्यान प्रस्तुत कर रही हैं। सम्बन्धों की असंगतियों से उपजा अवसाद इन ग़ज़लों में बार-बार उभरकर आया है। इसीलिए ये ग़ज़लें भावनात्मक परिक्षेत्र से बाहर नहीं गयी हैं लेकिन जो गयी हैं, वे सामाजिक सम्वेदना से भरी है, उनकी दृष्टि स्पष्ट है। उनके सामाजिक सरोकार समकालीन सोच के साथ आगे बढ़ते हैं।धर्म, नैतिकता और सांस्कृतिक जीवन में स्त्री पर बहुत दबाव होता है। तब घर एक क़ैदख़ाना लगने लगता है। नारी-यन्त्रणा से असहमति और उसके ख़िलाफ़ आक्रोश से भरी हैं ये ग़ज़लें। अतः हम इन्हें स्त्री-ग़ज़ल भी कह सकते हैं, जो नारी मुक्ति का सूत्र लेकर अवतरित हुई हैं। इन ग़ज़लों में आधुनिक भारतीय नारी का संघर्ष और उसकी आकांक्षा व्यंजित हुई है। इन ग़ज़लों में नारी-स्वतन्त्रता की आवाज़ को बुलन्द किया गया है। यहाँ पुरुष-सत्ता के प्रति आक्रोश भी महिला ग़ज़लकारों की सामाजिक सजगता को प्रमाणित करता है, जिसमें वह पुरुष-सत्ता का उन्मूलन नहीं करना चाहती है, बल्कि उसके स्वभाव में और उसके दृष्टिकोण में परिवर्तन की अपेक्षा करती है। इस ग़ज़ल-संकलन में जिन महिला ग़ज़लकारों की ग़ज़लें शामिल हैं, आइए आपको उनसे परिचित कराते हैं।
संग्रह की सबसे वरिष्ठ ग़ज़लकार हैं- श्रीमती उर्मिल सत्यभूषण। उर्मिल जी एक बहुमुखी रचनाकार हैं। इन्होंने कहानी, कविता, नाटक तथा बालसाहित्य की रचना की है। अपनी इस रचनात्मकता के मध्य उन्होंने ग़ज़लें भी लिखी हैं, जो उनके दो ग़ज़ल-संग्रहों में संगृहीत हैं। उर्मिल जी की शायरी नारी-जीवन के संघर्षों के साथ जीवन को आशावाद और मानवीय मूल्यों की ओर ले जाने के उद्देश्य से लिखी गई है। 35 सालों के अध्यापन ने नैतिकता और व्यक्तित्व-निर्माण को उन्होंने जीवनादर्श मान लिया है और इसी चिन्तन से उपजी हैं उनकी ग़ज़लें। डॉ. रमा सिंह एक वरिष्ठ गीतकार व ग़ज़लकार के रूप में सुपरिचित हैं। वे ग़ज़ल-लेखन में अन्य नवगीतकारों की तरह दुष्यंत के ग़ज़ल-आन्दोलन के दौर में गीत-लेखन से ग़ज़ल-लेखन की ओर उन्मुख हुईं, इसीलिए उनकी ग़ज़लों में गीतात्मकता सदैव विद्यमान रहती है। वर्तमान जीवन की तल्ख़ अनुभूतियों की अभिव्यक्ति इनकी ग़ज़लों में सार्थकता से हुई है। हिन्दी की वरिष्ठ ग़ज़लकार श्रीमती सरोज व्यास संगीत तथा गायन में भी निपुण हैं। ऐसा लगता है कि उन्होंने ग़ज़ल के व्याकरण पर गहन साधना की है तभी उनकी ग़ज़लें चुस्त-दुरुस्त तो होती ही हैं, उनके कथ्य में स्पष्टता बनी रहती है। यहाँ बिम्बधर्मी प्रयोगात्मकता के प्रयास बहुतायत से दिखाई देते हैं। उनकी मूल भाषा मराठी होने के बावजूद उन्होंने अपनी स्तरीय ग़ज़लों से हिन्दी-ग़ज़ल साहित्य को समृद्ध किया है।
डॉ. मुक्ता की ग़ज़लों पर छायावादी कविता का प्रभाव साफ़ दिखाई देता है। इनमें वैयक्तिकता व रागात्मकता ने ग़ज़लों में अधिक ज़मीन घेर रखी है। शिक्षा-जगत् से जुड़ी होने के कारण एक शालीन स्वभाव की प्रेरक व सूक्तिपरक ग़ज़लें लिखना उनकी विशेषता रही है। डॉ. राजकुमारी शर्मा राज एक प्रतिभाशाली और बहअुायामी रचनाकार हैं। उन्होंने ग़ज़ल विरासत में पाई। उनके पिताजी बड़े शायर थे तथा उनके उस्ताद भी उर्दू-ग़ज़ल के वरिष्ठ शायर हैं। यही कारण है कि उनकी शायरी में उर्दू भाषा का प्रभाव अधिक है, लेकिन जब वे समकालीन सदंर्भों पर केन्द्रित ग़ज़लें कहती हैं, तब उनकी ग़ज़लों में सहजता एवं जनधर्मिता बढ़ जाती है। डाॅ. सविता चड्ढा मूल रूप से कहानीकार व पत्राकारिता कर्म से जुड़ी हैं। उन्होंने फिल्म एवं डॉक्यूमेंटेंशन के राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किए। कविता-लेखन के लिए उन्होंने भी ग़ज़ल को चुना और कुछेक ही ग़ज़लें कहीं। इनकी ग़ज़लें सामाजिक, पारिवारिक संबंधों की पड़ताल करते हुए वर्तमान जीवन पर सार्थक टिप्पणी करती हैं। समकालीन ग़ज़लों में प्रौढ़ता स्पष्ट दृष्टि और कलात्मक शिल्प का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। नलिनी विभा ‘नाजली’ भी निरंतर ग़ज़ल कहने में तल्लीन हैं और एक से बढ़कर एक ग़ज़लें कह रही हैं। मार्के की बात यह है कि ग़ज़लों की स्तरीयता कहीं कम नहीं है। लगभग सभी ग़ज़लें आज के जीवन, समाज व हमारी सांस्कृतिक परिस्थिति का बयान करती हैं। उनकी ग़ज़लों में संवेदना का प्रवाह इतना तीव्र है कि पाठक उसके प्रभाव में उसी ओर बहने लगता है। उनके शेर संवेदनाओं के शब्दचित्र की तरह उनकी ग़ज़लों में टँके हुए से महसूस होते हैं। यद्यपि उनकी ग़ज़लों में भी उर्दू शब्दों का प्रयोग अधिक है, फिर भी वे रिवायत का अतिक्रमण करते हएु सामाजिक, यथार्थवादी ग़ज़लें रचती हैं, जो हिन्दी-ग़ज़ल के स्वभाव से मेल खाती हैं।
डाॅ. वर्षा सिंह लगभग तीस वर्षों से ग़ज़लें कह रही हैं और कविसम्मेलनों व मुशायरों में बहुचर्चित नाम हैं। इनकी ग़ज़लों में रिश्तों की ऊष्मा और परिवार के बीच की भावात्मकता का मार्मिक चित्रण मिलता है। उन्होंने माता-पिता, बेटी, बूढी माँ आदि संबंधों को लेकर उन्हें रदीफों में ढालकर अनके लोकप्रिय ग़ज़लें कहीहैं। युवा ग़ज़लकार दीप्ति मिश्र पूरे भारत के ग़ज़ल-प्रेमियों में ही नहीं, विदेशों में भी ख्याति-प्राप्त ग़ज़लकार हैं। उनकी प्रस्तुतियाँ कवि सम्मेलन पर जितनी हैं, उतनी ही उर्द-ूमंचों पर भी होती हैं। मुंबई में एक अभिनेत्राी के रूप में भी वे निरंतर अपनी कला का प्रदर्शन कर रही हैं। उनकी ग़ज़लों में आज की नारी का वह विद्रोही व्यक्तित्व और नई स्त्री-चेतना के दर्शन होते हैं, जो समाज की जड़ताओं को तोड़ते हुए अपनी नई राह बना रही है।
डाॅ. प्रभा दीक्षित की ग़ज़लें वर्तमान जीवन की विसगंतियों को बेहद मार्मिकता के साथ प्रस्तुत करती हैं। डाॅ. दीक्षित अपने परिवेश के प्रति सजग दृष्टि रखते हुए जनचेतना का विस्तार करती हैं तथा उनकी संवेदना, वंचित, पीड़ितजन के साथ बनी रहती है। उनकी व्यापक दृष्टि हिन्दी ग़ज़ल को नया आयाम प्रदान करती है। अनु जसरोटिया युवा पीढ़ी की महत्त्वपूर्ण ग़ज़लकार हैं। उनके पास ग़ज़ल कहने का सलीका भी है और गहन संवेदना का ताप भी है। व्यापक जीवन दृष्टि इन ग़ज़लों को सार्थक और प्रभावी बनाती है। डाॅ. शरद सिंह की चिन्तनशील दृष्टि और व्यापक रचनात्मकता से संपृंत लेखन की प्रतिनिधि रचनाकार हैं। म.प्र. के आदिवासी जीवन पर उन्होंने गंभीर कार्य किया है। सशक्त उपन्यासों से साहित्य जगत में अपनी लेखनी से पहचान बनाने वाली डाॅ. शरद सिंह सामहित सरस्वती पत्रिका की संपादिका हैं और बरसों से ग़ज़लें कह रही हैं। उनकी ग़ज़लें हिन्दी ग़ज़ल की निधि हैं।
जया नरगिस मध्यप्रदेश की बहुचर्चित लेखिका हैं। राज्य सरकार के संस्कृति विभाग के अनेकानेक कार्यक्रमों की संचालिका के रूप में वे मशहूर हैं। सरकारी माध्यम से अनेक राष्ट्रीय कार्यक्रम वे आयोजित कराती रहती हैं। उनकी ग़ज़लों में आदिवासी जीवन, ग्रामीण जीवन, प्रकृति तथा स्त्री-चेतना की प्रखर अभिव्यक्ति मिलती है। कृष्णा कुमारी ‘कमसिन’ मंचों की मुखर ग़ज़लकार हैं। अपनी बेबाक काव्य-प्रस्तुतियों की वजह से उन्होंने लोकप्रियता हासिल की। उनकी ग़ज़लों में वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिदृश्य के बोलते हुए चित्र मिलते हैं, जो जनमानस को अपने से लगते हैं और वह इनकी ग़ज़लों का मुरीद हो जाता है। डाॅ. विनीता गुप्ता ने अपनी गजलों में प्रतिवाद का स्वर बुलंद किया है। वर्तमान असंगत जीवन के प्रति उनका प्रोटेस्ट व्यवस्थागत विद्रूपताओं को ख़त्म करने के प्रति जैसे कटिबद्ध है। पत्रकारिता से सम्बन्ध होने के कारण उनके जन-सरोकार सीधे और समकालीन हैं। अपनी ग़ज़लों में वे शांति व अमन-चैन भरे समाज की उम्मीद बँधाती हैं। स्त्री-जीवन की संघर्षपूर्ण स्थितियों के लिए वे शिक्षा और जागरण का आह्वान करती हैं।
बेहद लोकप्रिय कवयित्री ममता किरण की ग़ज़लें समकालीन हिन्दी-कविता के स्वर में अपना स्वर भर देती हैं। देश-विदेश में भारतीय कविता की प्रतिनिधि कवयित्री के रूप में उन्होंने गीत, विशेष रूप से हिन्दी-ग़ज़ल को विश्वमंच पर स्थापित किया है। उनकी ग़ज़लों में भारतीय सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना और बदलते बाज़ारवादी परिदृश्य में मानवीयता को सँजोए रखने का आह्वान है। वास्तव में हिन्दी-ग़ज़ल ने प्रगतिशील चेतना को अपना मुख्य स्वर बनाया है और एक क्रांतिकारी विद्रोही मुद्रा अपनाई है। इंदु श्रीवास्तव की ग़ज़लें जनधर्मी ग़ज़लें हैं, जिनमें समाज के वंचित, शोषित और तिरस्कृत वर्ग के प्रति गहरी संवेदनाएँ व्यक्त हुई हैं। स्त्री के मुक्ति-संघर्ष को इन ग़ज़लों ने बुलन्द आवाज़ दी है और नई चेतना का विकास किया है। डाॅ. मालिनी गौतम हिन्दी-ग़ज़ल में सबसे संभावनाशील युवा महिला ग़ज़लकारों में प्रचलित हैं। उनकी ग़ज़लें सामाजिक सरोकारों से लैस हैं और नई दृष्टि व नए तेवर के साथ युवा-संवेदना का इजहार कर रही हैं। उनकी ग़ज़लें हिन्दी-ग़ज़ल का विकासमान चेहरा बनकर उभरी हैं। यह अक्सर होता है कि जब रचनाकार अपनी वर्तमान विधा में ख़ुद को व्यक्त नहीं कर पाता, तब वह अभिव्यक्ति के नए माध्यम तलाश करता रहता है। लेखन के क्षेत्र में रचनाकार नई से नई विधा की तलाश करता है।
मीनाक्षी जिजीविषा बरसों से कविता-लेखन कर रही हैं। उनके चार कविता-संग्रह चर्चित रहे हैं। उन्होंने कथा-विधा में भी सफल प्रयास किए हैं लेकिन पिछले कुछ वर्षों से उन्होंने ग़ज़ल-लेखन की ओर रुख़ किया है और बेहतरीन व सार्थक ग़ज़लें लेकर आ रही हैं। उनकी ग़ज़लों में घर-बाहर फैली स्त्री-जीवन की त्रासदी और ऊहापोह के चित्र बार-बार उभरकर आते हैं। डाॅ. भावना ने अपने दूसरे ग़ज़ल-संग्रह ‘शब्दों की कीमत’ की भूिमका में ये महत्त्वपूर्ण पक्तियाँ कही हैं- “ग़ज़ल मेरे लिए साहित्य की विधा-भर नहीं, ख़ुद को ज़िन्दा रखने का ज़रिया है। लेखन की अन्य विधों की अपेक्षा मैं ग़ज़ल कहने में ज़्यादा सहज महसूस करती हूँ। फ़ारसी में कहते हैं कि जो दिल से उठे और दिल पे गिरे वही शायरी है। शेरों की यही विशेषता मुझे ग़ज़ल कहने को प्रेरित करती है। ग़ज़ल मेरे साथ चलने वाली वह चेतना है, जो हर पल मेरा साथ देती है। दुख के क्षणों में भी मुझे अकेला नहीं होने देती।” समकालीन विसंगत जीवन के प्रति उनकी सम्वेदनाएँ इन ग़ज़लों में खुलकर व्यक्त हुई हैं। साथ ही स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का जागरूक ताज़ापन और स्वातंत्रीय माहौल का नज़ारा यहाँ सार्थकता के साथ चित्रित हुआ है।
सोनरूपा विशाल को ग़ज़ल विरासत में मिली है। उनके पिता डाॅ. उर्मिलेश हिन्दी-ग़ज़ल के प्रथम पंक्ति के रचनाकार रहे। उनके सानिध्य में सोंरूपा विशाल को ग़ज़ल के संस्कार मिले हैं। इनकी ग़ज़लों में युवा-मन की निर्भीक अभिव्यक्ति मिलती है। ग़ज़ल में जिस ईमानदार इजहार की ज़रूरत होती है, वह उनके पास है। अपनी ग़ज़लों के बारे में वे कहती हैं कि “ये ग़ज़लें मेरे अहसास की शिद्दत हैं, मेरे रंग कुछ देखे-समझे तमाशे, धुंध में से रोशनी देखने की हसरत, निजत्व की तलाश, आसपास का परिवेश, विसंगतियाँ, जज़्बात, शिकन, हसरतें हैं तो जैसी भी हैं मेरी बहुत अपनी हैं। इनमें मेरे लम्हे क़ैद हैं। मेरी सोच की उड़ान क़ैद है, जिनको कभी ‘स्व’ से ‘सर्व’ होते हुए और कभी ‘सर्व’ से ‘स्व’ होते हुए मैंने महसूस किया है।” सबसे युवा महिला ग़ज़लकार निधि सिन्हा ‘निदा’ की ग़ज़लें उस युवा-मन का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो इक्कीसवीं सदी के ज्ञान और सूचना के अपरिमित भंडार में रह रहा है, लेकिन अपनी परंपरा, संस्कृति और जीवनमूल्यों के प्रति उनकी अडिग आस्था उन्हें महत्त्वपूर्ण ग़ज़लकार बनाते हैं। यहाँ वह एक संभावनाशील रचनाकार के रूप में प्रस्तुत की जा रही हैं।
अंत में हमें उम्मीद है कि महिला ग़ज़ल-लेखन की दिशा में हमारा यह प्रथम प्रयास आगे बढ़ेगा और नए आयाम हमारे सामने आएँगे। पाठकों से अनुरोध है कि इस बाबत अपनी राय हमें अवश्य पहुँचाएँ।
‘समकालीन महिला ग़ज़लकार’ पुस्तक का pdf आप यहाँ से डाउनलोड कर सकते हैं-
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– हरेराम समीप