आधी आबादी: पूरा इतिहास
आँचलिक महिला रचनाकार: मेहरुन्निसा परवेज
– डॉ. शुभा श्रीवास्तव
मेहरुन्निसा परवेज का जन्म 10 दिसंबर 1944 को मध्यप्रदेश में हुआ था। सन् 1969 ई. में इनका पहला उपन्यास ‘आँखों की दहलीज़’ प्रकाशित हुआ था। इनकी कहानियों जूठन, सोने का बसेरा, फाल्गुनी पर दूरदर्शन धारावाहिक का निर्माण किया गया है। मेहरुन्निसा की पहली कहानी ‘पाँचवी कब्र’ 1963 ई. में प्रकाशित हुई थी। मेहरुन्निसा ने अपने कथा साहित्य में पौरुषीय अंकुश, स्त्री की वेदना, कुंठा और मुक्ति की छ्टपटाहट को मानवीय धरातल पर प्रस्तुत किया है।
मेहरुन्निसा परवेज ने जब साहित्य के क्षेत्र में पदार्पण किया तब उस समय कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा और मन्नू भण्डारी जैसी लेखिकाएँ प्रतिष्ठित हो चुकी थीं और नई कहानी आंदोलन स्वयं को स्थापित कर चुका था। परन्तु इन्होंने अपने आपको किसी भी आन्दोलन से तटस्थ रखा।
ऐसे समय में इन सब से भिन्न आंचलिक आदिवासी जनजीवन से ओत-प्रोत आंचलिक सुगंध लेकर साहित्य में नयी धारा का मुख किया मेहरुन्निसा परवेज ने। कृष्णा सोबती में स्थानीय रंग तो थे पर मेहरुन्निसा ने उस स्थानीय रंगत में आदिवासी दर्द को मिला दिया। उनका मुस्लिम समाज भी कृष्णा सोबती के कथ्य से सर्वथा भिन्न था। इन्होंने अपने आसपास के जीवन को और अनुभूत सत्य को अपनी रचनाओं का आधार बनाया।
एक रचनाकार की श्रेष्ठता का इससे अच्छा मापदंड क्या होगा कि वह भविष्योन्मुखी यथार्थ को अपनी रचनाओं में पूरी सजगता से चित्रित करे। अपनी ज़मीन, विद्रोह, समर लाल गुलाब जैसी अनेक कहानियाँ इस तथ्य की गवाही देती हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद आये वैचारिक बदलाव में एक नारी क्या महसूस कर रही है, वह क्या चाहती है, उसकी इच्छाएँ एवं भावनाएँ कहानियों में पैठ कर पाठक को अनुभूत कराती हैं। नारी का विद्रोही स्वर उनकी रचनाओं में तत्कालीन परिवेश में आया, जिसे हम आज समकालीन परिवेश में महसूस करते हैं।
मेहरून्निसा का मानना है कि कहानी समाज की धड़कनों को पकड़ने और परखने का सशक्त माध्यम है। उनकी यह विचारधारा ही उनकी कहानियों का मूल है। इसी कारण इनकी रचनाओं में आम जीवन के दुख-सुख, समाज की मान्यताएँ और उनके मध्य नये विचारों से उपजता संकट आदि बड़ी बारीकी से कथ्य में घुल-मिल गया है।
मेहरुन्निसा की साहित्य सर्जना के दो महत्वपूर्ण क्षितिज हैं- पहला है, आंचलिकता और दूसरा मुस्लिम समाज। रचना को पढ़ते हुए यह अहसास होने लगता है कि पात्र नहीं, पाठक स्वयं उस मुस्लिम समाज का हिस्सा है जिसमें अनेक विसंगतियाँ हैं तो भीतरी संवेदना भी है। मेहरुन्निसा के कथा साहित्य को पढ़कर पाठक मुस्लिम समाज की हर पर्त से वाकिफ हो जाता है। उस समाज का रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि खुलकर सामने आते हैं। मुस्लिम समाज में व्याप्त कुरीतियों को बड़ी संजीदगी से उठाया है। मुस्लिम समाज खास तौर पर मध्य एवं निम्न वर्ग इनकी रचनाओं में बहुआयामी रूप से आया है।
इनकी रचनाओं में मध्यवर्ग का बड़ा कैनवास दिखाई देता है। मध्यवर्गीय विसंगतियों, रीति रिवाज, रूढ़ सामाजिक स्थिति का सच्चा चित्र हमें इनकी रचनाओं में मिलता है। इनके कथा पात्र मध्यवर्गीय जड़ताओं के विरोध में संघर्षरत एवं प्रयत्नशील हैं। ‘विद्रोह’ कहानी की नीना अपने संस्कारवश विद्रोह नहीं करती है और घुटन भरा जीवन जीने को अभिशप्त है। ‘बंटवारे की फाँस’ जैसी कहानियाँ भारतीय परिवेश और मध्यवर्गीय संस्कार की कहानियाँ हैं।
संयुक्त परिवार का विघटन तेजी से बदलते समाज की मुख्य समस्या है। इस समस्या पर लगभग हर रचनाकार ने लेखनी चलाई है। इस विघटन के फलस्वरूप अकेलापन, अजनबीपन , कुंठा और संत्रास की स्थिति का चित्रण साहित्य में अलग-अलग रंगो में उकेरा गया है। उसका घर, सीढ़ियों का ठेका, अकेला गुलमोहर जैसी रचनाएँ इन रंगों के अलग शेड की प्रस्तुति है। इन रंगों में मध्यवर्गीय मुस्लिम सामाजिकता का रंग भी उनको अन्य रचनाकारों से पृथक करता है।
अगर हम आंचलिकता पर चर्चा करें तो रेणू की भांति मेहरुन्निसा भी आंचलिक कथाकार सिद्ध होंगी। महिला आंचलिक रचनाकारों की संख्या हमारे कथा साहित्य में कम है। मेहरुन्निसा के बाद इस तत्व को मैत्रेयी पुष्पा ने आगे बढ़ाया है। बस्तर की संस्कृति से पूर्व परिचित मेहरुन्निसा ने उसके लोक रीति-रिवाजों, रुढ़ियों आदि को अपने कथानक का आधार बनाया है। भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ी योजनाएँ, अशिक्षा, धर्म की संकीर्ण मानसिकता, परम्पराओं के नाम पर शोषण की अनेक कथाओं को मेहरुन्निसा अपने साहित्य में बड़ी सहजता से समेटते चलती हैं, जो निजन्दरी कथाओं के माध्यम से केंद्र में आता है।
इनके कथा सहित्य में आंचलिकता का विधायक तत्व लोक संस्कृति अपनी मूल संवेदना में उभरता है। लोक तत्व की यहाँ पड़ताल नहीं की गयी है बल्कि वह एक अभिन्न अंग के रूप में समाहित है। इनके यहाँ आँचलिकता सिर्फ सामाजिक संदर्भ में नहीं बल्कि आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और सबसे ज़्यादा प्राकृतिक संदर्भ में रूपायित हुआ है।
मेहरुन्निसा के कथा साहित्य को पढ़कर पाठक अपने को अंचल से घिरा देख ठिठक उठता है कि शहरी जीवन से इतर यह भी एक जीवन हो सकता है। ऐसा जीवन जो अभिशप्त है। ऐसा जीवन, जीने के लिए जिसमें सुख, वैभव, सम्पदा के लिए स्थान नहीं है। आदिवासियों के जीवन की पीड़ा मर्म को छू जाती है। पर ऐसा नहीं है कि शहरी या शिक्षित पात्रों का अभाव है इनके कथा साहित्य में। यहाँ संघर्ष भी है और प्रगति की कामना भी है। गल गल पक्षी और मछली जैसी अनेक लोक कथाओं से इनका साहित्य हिन्दी पाठक को रूबरू कराता है। बाली पूजा, रैना पूजा, टोना टोटका जैसे अनेक तथ्य कानीबार जैसी कहानियों का मूल कथ्य बनते हैं। ‘जंगली हिरण’ कहानी पूरे बस्तर और लोक जन जीवन के हर रेशे को सामने ले आती है।
मेहरुन्निसा के कथा साहित्य में लोक तत्व भौगोलिक स्तर पर भी रूपायित हुआ है। लोक जीवन के नृत्य, गीत आदि के माध्यम से मेहरुन्निसा लोक को पाठक के और करीब ले गई हैं। ‘ओढना’ कहानी में गरबा नृत्य करती युवतियों का यह गीत लोक तत्व का श्रेष्ठ उदाहरण कहा जा सकता है-
म्हारा आंगण भी आवजोरी माँ,
आवीने गरबा जमाव जोरी माँ
विजासन वाली पयागड वाली,
दुर्गा मा आव्या वो घूमता।
ओढना, पृ०- 81
मुहावरे एवं लोकोक्तियों के प्रयोग इनकी आंचलिकता को और पुष्ट करते हैं। ईंट से किनारे बांधना, खड़ी फसल कतर कर उड़ जाना आदि मुहावरे कथानक में ऐसे टाँके गये हैं, जैसे सहज ही आ गये हों।
मेहरुन्निसा के कथा साहित्य में नारी जीवन की हर समस्या जैसे- अनमेल विवाह, दहेज़, नि:संतानता, पर स्त्री गमन, पर पुरुष गमन आदि का खुलकर चित्रण हुआ है। इन्होंने ऐसे नारी पात्रों की सर्जना की है, जो एक ओर परम्परावादी हैं तो दूसरी ओर झूठे परंपरा और रीति-रिवाज की विरोधी हैं। कहीं पर अशिक्षा और परंपरा के नाम पर शोषित नारी है तो कही अपने व्यक्तित्व के प्रति जागरूक नारी है। ‘उसका घर’ की रेशमा, ‘ओढ़ना’ की रानी, ‘ढहता कुतुबमीनार’ की सपना आदि अनेकानेक नारी पात्र इनके कथा का हिस्सा हैं, जो हमारे आसपास विचरण करती हैं।
नारी के चरित्र के प्रति उनकी संवेदनशीलता कुछ उक्तियों में हमें दिखाई देती हैं, जिसमें से दो मैं उद्धृत कर रही हूँ-
“औरत की इज़्ज़त साबुत चूड़ी की तरह है, यदि एक बार टूटी तो फिर टूटती ही चली जाती है।” (पत्थर वाली गली, पृ०- 124)
“औरत का जीवन कच्ची मिट्टी की तरह होता है, जिस शक्ल में चाहे गढ लो, गूंथ लो।” (सोने का बेसर, पृ०- 21)
मेहरुन्निसा ने ‘अकेला पलाश’ में सिर्फ नारी अस्मिता ही नहीं, उसकी दैहिक आवश्यकता, स्वतन्त्रता, नारी शोषण, विजातीय विवाह, विवाहेतर प्रेम सम्बन्ध आदि जटिल समस्याओं को सरल घटनाक्रमों के माध्यम से पाठक के सम्मुख किया है।
‘अकेला पलाश’ उपन्यास में बेमेल विवाह के कारण नारी मन की आहत मनोभाव की सहज अभिव्यक्ति है। स्त्री का मन उसकी इच्छाएँ, उसकी भावनाएँ आदि मनोवैज्ञानिक धरातल पर चित्रित किए गये हैं। इस उपन्यास के माध्यम से मेहरुन्निसा जी ने यह बखूबी उकेरा है कि स्त्री चाहे कामकाजी हो घर में, पूरुषवादी मानसिकता उससे सदैव उपेक्षा और चारित्रिक हनन का व्यवहार करती है। पुरुष सत्तात्मक समाज में नारी अस्मिता कैसे विवश हो टूटती है, इसका चित्रण उपन्यास में पूरी सच्चाई के साथ दिखाया गया है।
‘अकेला पलाश’ के संदर्भ में डॉ. शील प्रभा वर्मा कहती हैं कि ‘अकेला पलाश’ उपन्यास बदलते सामाजिक सन्दर्भों को आत्मसात किये हुए है। प्रस्तुत कृति युगानुरूप सामाजिक प्रयत्नों के अनेक प्रसंग एवं तथ्य लिए हुए है।” (महिला उपन्यासकारों की रचनाओं में बदलते सामाजिक संदर्भ, पृ०- 28) डॉ. शील प्रभा वर्मा का यह कथन मेहरून्निसा के साहित्य में सामाजिकता के महत्व को प्रदर्शित करता है।
इनके कथा साहित्य में दाम्पत्य जीवन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतम अभिव्यक्ति मिलती है। यौन असंतुष्टि और संतानहीनता कैसे धीरे-धीरे दाम्पत्य के माधुर्य को समाप्त कर देती है, यह कहानियों में ज़्यादा व्यक्त हुआ है और तीसरे पक्ष का प्रवेश उपन्यासों में विशेष रूप से अभिव्यक्त हुआ है। असफल दाम्पत्य जीवन इनके कथा साहित्य में ज़्यादा वर्णित है। वैसे तो इनके कथा साहित्य में अधिकतर पत्नियाँ पति के अत्याचार सहती दिखती हैं पर उनके भीतर की चिंगारी को चित्रित करने में मेहरुन्निसा सफल रही हैं।
मेहरुन्निसा की भाषा उनके पात्रों के अनुकूल है। मेहरुन्निसा जी की संवाद योजना इतनी कलात्मक है कि एक ओर वह कथा का विकास करती है तो दूसरी ओर देशकाल का भी ज्ञान कराती है। चरित्र का उद्घाटन संवाद योजना की एक सामान्य विशेषता है, जो मेहरून्निसा में पायी जाती है। इनके संवाद योजना की एक बड़ी विशेषता है- ‘कथानक को गति देते हुए रोचकता को बरकरार रखना’।
पात्र चरित्र चित्रण की दृष्टि से हम देखें तो मेहरून्निसा सबसे अलग नज़र आती हैं। इनके पात्रों में अस्मिता का संज्ञान, स्वाभिमान स्पष्ट झलकता है।
शैली की दृष्टि से मेहरून्निसा जी का कथा साहित्य विविधतापूर्ण रहा है। विचारात्मक, विवेचनात्मक आदि शैलियों का प्रयोग इन्होंने प्रयोग किया है। प्रेम संबंध और परिवेश चित्रण में इनकी शैली काव्यात्मक हो जाती है। चरित्र और घटना के संदर्भ में मेहरून्निसा ने चित्रात्मक शैली को प्रधानता दी है।
मेहरुन्निसा के लेखन में नारी के द्विधा रूप हमारे समक्ष आते हैं पर कथानुरूप वे पश्चिमी और भारतीय विचारधारा की वाहक दिखती हैं। यह निसन्देह कहा जा सकता है कि भारतीय विचारधारा की उपस्थिति अपनी प्रगतिशील चेतना के साथ दर्ज है। मेहरुन्निसा जी ने नारी पर बहुत लिखा है, बहुत तरह से और बहुत पक्षों को उभारते हुए लिखा है। मेहरुन्निसा ने नारी पर तब लिखना शुरू किया, जब स्त्री विमर्श जैसा आन्दोलन आकार नहीं ले पाया था पर स्त्री विमर्श का हर महत्वपूर्ण तथ्य इनकी रचनाओं में आया है। मेहरून्निसा अपने प्रगतिशील विचार और अपने समृद्ध साहित्यिक योगदान के कारण सदैव स्मरण रहेंगी।
– डॉ. शुभा श्रीवास्तव